सगत सिंह राठौड़ : वो जनरल जिसने भारत-चीन युद्ध में खुलवाए तोपों के मुंह, चाइना के 300 फौजी मारे
नई दिल्ली। भारत-चीन एक बार फिर से बॉर्डर पर आमने-सामने हैं। दोनों देशों की सेनाओं के बीच 15 जून 2020 की रात को खूनी संघर्ष हुआ है, जिसमें भारत के बीस सैनिक शहीद हुए हैं। लद्दाख की गलवान घाटी की इस घटना ने भारत-चीन युद्ध 1967 और 1962 की यादें ताजा कर दीं।
भारत-चीन युद्ध 1967 की जीत के हीरो थे जनरल सगत सिंह
बात अगर सिक्किम के पास नाथू ला में हुए भारत-चीन युद्ध 1967 की करें तो उसमें भारत ने चीन को धुल चटा दी थी। उस जंग में चीन के 300 से अधिक सैनिक मारे गए थे जबकि भारत को सिर्फ़ 65 सैनिकों का नुक़सान उठाना पड़ा था। भारत-चीन युद्ध 1962 के पांच साल बाद 1967 में हुई जंग में भारत जीता था और जीत के हीरो रहे थे राजस्थान के लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह राठौड़। भारतीय सेना का वो बहादुर अफसर जिसने प्रधानमंत्री की बिना अनुमति के तोपों का मुंह खोल दिया और गोले बरसाकर चीन के तीन सौ से ज्यादा सैनिक ढेर कर दिए।
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चीन ने दिया चौकियां खाली करने का अल्टीमेटम
मेजर जनरल वीके सिंह की किताब 'लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी' में भारत-चीन युद्ध 1967 का जिक्र भी विस्तार से किया गया है। किताब में जनरल सिंह लिखते हैं कि उस समय चीन ने भारत को एक तरह से अल्टीमेटम दिया था कि वो सिक्किम की सीमा पर नाथू ला और जेलेप ला की सीमा चौकियां खाली कर देंं। तब भारतीय सेना के कोर मुख्यालय के प्रमुख जनरल बेवूर ने जनरल सगत सिंह को आदेश दिया था कि आप इन चौकियों को खाली कर दीजिए, लेकिन जनरल सगत सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए।
दूसरी टीम ने खाली की चौकियां
जनरल सगत सिंह राठौड़ ने सीमा चौकियों को खाली नहीं करने पर तर्क दिया कि नाथू ला ऊंचाई पर है और वहां से चीनी क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उस पर नजर रखी जा सकती है। जनरल सगत ने नाथू ला चौकियां खाली करने से इनकार कर दिया था। लेकिन, दूसरी तरफ 27 माउंटेन डिवीजन, जिसके अधिकार में जेलेप ला आता था, वो चौकी खाली कर दी। चीन के सैनिकों ने फौरन आगे बढ़कर उस पर कब्जा भी कर लिया। ये चौकी आज तक चीन के नियंत्रण में हैं।
एक मीटर की दूरी पर आमने-सामने खड़े होते सैनिक
उस दौरान नाथू ला में तैनात मेजर जनरल शेरू थपलियाल ने 'इंडियन डिफ़ेंंस रिव्यू' के 22 सितंबर 2014 के अंक में लिखा है कि नाथू ला में दोनों सेनाओं का दिन कथित सीमा पर गश्त के साथ शुरू होता था। इस दौरान दोनों देशों के फौजियों के बीच कुछ न कुछ तकरार हो जाती थी। दोनों तरफ के सैनिक एक दूसरे से मात्र एक मीटर की दूरी पर खड़े रहते थे। वहां पर एक नेहरू स्टोन हुआ करता था। ये वही जगह थी, जहां से होकर जवाहर लाल नेहरू 1958 में भूटान में दाखिल हुए थे।
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बाड़ लगाने से शुरू हुई जंग
थोड़े दिन बाद भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हो रही कहासुनी धक्का-मुक्की में बदल गई। इलाके में तनाव कम करने के लिए भारतीय अधिकारियों ने तय किया कि वे नाथू ला से सेबू ला तक भारत-चीन सीमा पर तार की एक बाड़ लगाएंगे। 11 सितंबर 1967 की सुबह जवानों ने बाड़ लगानी शुरू कर दी। जैसे ही काम शुरू हुआ चीन ने इसका विरोध किया और कहा कि वो तार बिछाना बंद कर दें। लेकिन भारतीय सैनिकों को आदेश थे कि चीन के ऐसे किसी अनुरोध को स्वीकार न किया जाए।
चीनी सैनिकों ने मौका देखकर की फायरिंग
अचानक एक सीटी बजी और चीनियों ने भारतीय सैनिकों पर ऑटोमेटिक फायर शुरू कर दिया। राय सिंह को तीन गोलियां लगीं। मिनटों में ही जितने भी भारतीय सैनिक खुले में खड़े थे या काम कर रहे थे, शहीद हो गए। फायरिंग इतनी जबर्दस्त थी कि भारतीयों को अपने घायलों तक को उठाने का मौका नहीं मिला। हताहतों की संख्या इसलिए भी अधिक थी क्योंकि भारत के सभी सैनिक बाहर थे और वहां आड़ लेने के लिए कोई जगह नहीं थी।
प्रधानमंत्री के आदेश का नहीं किया इंतजार
जब सगत सिंह ने देखा कि चीनी फौजी फायरिंग करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। उस समय तोप से गोले बरसाने का आदेश देने का अधिकार सिर्फ प्रधानमंत्री के पास था। यहां तक कि सेनाध्यक्ष को भी ये फैसला लेने का अधिकार नहीं था। लेकिन जब ऊपर से कोई हुक्म नहीं आया और चीनी दबाव बढ़ने लगा तो जनरल सगत सिंह ने बिना देर किए नीचे से मध्यम दूरी की तोपें मंगवाईं और चीनी ठिकानों पर गोलाबारी शुरू कर दी।
चीन कर रहा था फायरिंग, भारत बरसा रहा था गोले
भारत-चीन की इस जंग में भारतीय सैनिक ऊंचाई पर थे और उन्हें चीनी ठिकाने साफ नजर आ रहे थे, इसलिए उनके गोले निशाने पर गिर रहे थे। जवाब में चीनी भी फायर कर रहे थे। उनकी फायरिंग अंधाधुंध थी, क्योंकि वे नीचे से भारतीय सैनिकों को नहीं देख पा रहे थे। इससे चीन को बहुत नुकसान हुआ और उनके 300 से ज्यादा सैनिक मारे गए।
भारतीय फौजियों में खत्म हुई चीनी की दहशत
बता दें कि इससे पहले भारत-चीन युद्ध 1962 हो चुका था। इस जंग में भारत को काफी नुकसान हुआ था, मगर पांच साल में भारतीय सेना ने अपने आप को इस कदर मजबूत बना लिया कि 1962 की लड़ाई का खौफ नहीं रहा। जनरल वीके सिंह ने भी इस बारे में भी अपनी किताब में लिखा है कि 1962 की लड़ाई के बाद भारतीय सेना के जवानों में चीन की जो दहशत हो गई थी वो हमेशा के लिए जाती रही। भारत के जवानों को पता लग गया कि वो भी चीनियों को मार सकते हैं।
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जनरल सगत सिंह राठौड़ की जीवनी
जनरल सगत सिंह राठौड़ का जन्म राजस्थान के चूरू जिले के रतनगढ़ उपखंड के गांव कुसुमदेसर में 14 जुलाई 1919 को हुआ। उनके पिता ठाकुर बृजपाल सिंह ने बीकानेर की प्रसिद्ध कैमल कोर में अपनी सेवाएं दी थी। पहला विश्वयुद्ध भी लड़ा। जनरल सिंह की शुरुआती पढ़ाई वॉल्टर्स नोबल स्कूल, बीकानेर से हुई। बाद में उन्होंने डूंगर कॉलेज, बीकानेर में दाखिला लिया, लेकिन अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी नहीं कर सके।
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पढ़ाई के दौरान ज्वाइन की मिलेट्री एकेडमी
पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने इंडियन मिलेट्री एकेडमी ज्वॉइन कर ली और उसके बाद बीकानेर स्टेट फोर्स में भर्ती हुए। दूसरे विश्व युद्ध में सगत सिंह ने मेसोपोटामिया, सीरिया, फिलिस्तीन के युद्धों में अपना जौहर दिखाया। सन् 1947 में देश आजाद होने पर उन्होंने भारतीय सेना ज्वॉइन करने का निर्णय लिया और सन 1949 में 3 गोरखा राइफल्स में कमीशंड ऑफिसर के तौर पर उन्हें नियुक्ति मिली।
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जनरल सगत सिंह ने 26 सितंबर 2001 को ली अंतिम सांस
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण उन्हें बांग्लादेश सरकार द्वारा सम्मान दिया गया और परम विशिष्ट सेवा मेडल (पीवीएसएम) के साथ-साथ भारत सरकार द्वारा देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 30 नवंबर 1976 को रिटायर हुए जनरल सगत सिंह ने अपना अंतिम समय जयपुर में बिताया। 26 सितंबर 2001 को इस महान सेनानायक का देहांत हुआ।
पिछले साल मनाया गया जन्म शताब्दी
राजस्थान के लिए यह गर्व की बात है कि चूरू के बेटे जनरल सगत सिंह राठौड़ को भारतीय सेना में वही स्थान हासिल है, जो अमेरिकी फौज में जनरल पैटन और जर्मन फौज में रोमेल को प्राप्त है। वर्ष 2019 में जनरल सगत सिंह राठौड़ का जन्म शताब्दी वर्ष मनाया गया। लेफ्टिनेंट जनरल चेरिश मैथसन आर्मी 10 कमांडर सप्त शक्ति कमान की ओर से 13 जुलाई 2019 को जयपुर के झारखंड मोड़ के पास उनकी प्रतिमा का अनावरण किया गया है। जयपुर के अलावा जोधपुर में भी जनरल सगत सिंह की प्रतिमा लगाई गई है।
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