संविधान की 10वीं अनुसूची में ऐसा क्या है, जिसके चलते राजस्थान बना राजनीति का अखाड़ा
जयपुर- राजस्थान में कांग्रेस कानूनी लड़ाई से पीछे हटकर अब राजनीतिक लड़ाई लड़ रही है। लेकिन, आखिरकार इस सियासी संकट का जड़ संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधानों में ही छिपा है। विधानसभा सत्र बुलाए जाने के बाद भी संविधान के इसी प्रावधान की गूंज सदन में भी सुनाई पड़ने वाली है। इसी कानून का हवाला देकर राजस्थान में विलुप्त हो चुके अपने 6 विधायकों को फिर से अपने खेमे में लाने के लिए मायावती भी सक्रिय हो चुकी हैं। उनकी पार्टी चुनाव आयोग में इस सवाल को उठाकर शांत बैठी हुई थी, लेकिन अब वह भी पूरी तरह से फ्रंट फुट पर खेल रही है। उधर पायलट और गहलोत खेमे की ओर से शह और मात का सियासी खेल तो चल ही रहा है। कानूनी जंग में तो सचिन पायलट को नैतिक बढ़त मिल चुकी है। ऐसे में आइए समझते हैं संविधान की इस 10वीं अनुसूची के बारे में।
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सचिन पायलट और अशोक गहलोत खेमे की जंग
संविधान की 10वीं अनुसूची या दलबदल कानून इस वक्त राजस्थान की राजनीति का अखाड़ा बन चुका है। सभी सियासी दल इसी के कानूनी पहलुओं को ध्यान में रखकर अपनी-अपनी सियासी रोटियां सेंक रहे हैं। सबसे पहले कांग्रेस के बागी विधायकों के अगुवा और पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट इसी कानून की दुहाई देते हुए राजस्थान हाई कोर्ट पहुंचे। अदालत में उनकी दलील है कि सिर्फ पार्टी के एक गुट से असहमति जताने भर से वह दलबदल कानून के पैरा 2(1)(ए) के तहत "स्वेच्छा से अपनी सदस्यता छोड़ने" की श्रेणी में नहीं आते। उनके वकीलों ने इसी के तहत अदालत में उनकी पैरवी की और विधायकी से अयोग्य ठहराने के विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी के नोटिस को संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन का बताया।
10वीं अनुसूची के तहत दो वजहों से जा सकती है सदस्यता
दलबदल कानून के तहत किसी लॉमेकर को तब सदस्यता के अयोग्य ठहराया जा सकता है, जब उसने खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दी हो- ( 2(1)(ए)) या वह सदन में अपनी राजनीतिक पार्टी के निर्देशों के विरोध में जाकर मतदान करे या वोटिंग के दौरान सदन से अनुपस्थित रहे- (2(1)(बी))। हाई कोर्ट ने इन्हीं कानूनी प्रावधानों के आधार पर 24 जुलाई को स्पीकर से कहा था कि वह फिलहाल पायलट खेमे के 19 विधायकों को अयोग्य ठहराने वाले अपनी नोटिस पर कोई ऐक्शन न लें, जिसके खिलाफ स्पीकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए थे। आखिरकार हाई कोर्ट अपने फैसले पर अडिग रहा और बागी विधायकों के मामले में यथास्थिति बनाए रखने को कह दिया। फिर कांग्रेस ने स्पीकर की ओर से सुप्रीम कोर्ट में डाली गई याचिका वापस लेकर इस लड़ाई को कानूनी रूप से लड़ने के बजाए सियासी तौर पर लड़ने का फैसला कर लिया।
सियासी अखाड़े में बसपा की एंट्री
दलबदल कानून के इसी पैरा 2 को लेकर राजस्थान में एक और कानूनी जंग शुरू है। बसपा का दावा है कि पिछले साल उसके जिन 6 विधायकों ने कांग्रेस में विलय कर लिया वह कानूनी तौर पर गलत है। इसी दावे के तहत पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश मिश्रा ने पार्टी की तरफ से अपने उन सभी 6 विधायकों को व्हीप जारी कर निर्देश दिया है कि अगर सदन में गहलोत सरकार विश्वास प्रस्ताव रखती है तो उन्हें उसके खिलाफ वोट देना है। मिश्रा ने अपनी पार्टी के विधायकों लखन सिंह, दीप चंद, आर गुधा, वाजीब अली, जेएस अवाना और संदीप कुमार से कहा है कि व्हीप का उल्लंघन करने पर उन्हें अयोग्य करार दे दिया जाएगा। गौरतलब है कि स्पीकर इन 6 बसपा विधायकों के कांग्रेस में विलय पर मुहर लगा चुके हैं, जिसके खिलाफ बीएसपी पहले ही चुनाव आयोग में भी जा चुकी है, जिसपर फैसला आना अभी बाकी है। इस बीच बसपा विधायकों के कांग्रेस में विलय के खिलाफ भाजपा विधायक मदन दिलावर भी सोमवार को राजस्थान हाई कोर्ट पहुंचे थे, लेकिन उनकी याचिका खारिज हो गई। मंगलवार को उन्होंने एक बार फिर कोशिश की। उधर मायावती अपने विधायकों के पाला बदलने से इतनी नाराज हैं कि वह गहलोत सरकार को सबक सिखाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाने की बात कह रही हैं।
राजस्थान की सियासत में बंट चुकी है विशेषज्ञों की राय
अब व्हीप जारी करने के कानूनी अधिकारों को लेकर कानूनी विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है। कई लोगों का मानना है कि सभी दलों के विधानसभा का सत्र शुरू होने से पहले अपने व्हीप का नाम देना होता है और अगर बसपा सतीश मिश्रा को अपना चीफ व्हीप बनाती है तो उनकी ओर से जारी व्हीप कानूनी तौर पर वैध माना जाएगा। खुद सतीश मिश्रा की दलील है कि राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते विधायकों का विलय तब तक कानूनी नहीं है, जब तक वह राष्ट्रीय स्तर पर न हो। लेकिन, कांग्रेस के वकील सुनील फर्नांडीस का कहना है कि 10वीं अनुसूची किसी राष्ट्रीय पार्टी की भी एक यूनिट को दूसरे दल में विलय की अनुमति देता है। उनका कहना है कि,'10वीं अनुसूची विधायक दल के विलय की भी इजाजत देता है।...........संविधान की 10वीं अनुसूची के तहत मूल पार्टी न भी मिले, लेकिन एक विधायक दल के सदस्यों को किसी दूसरी पार्टी में विलय का अधिकार है।'
दलबदल कानून का संक्षिप्त इतिहास
दलबदल रोकने के लिए सबसे पहले 1985 में राजीव गांधी सरकार एक संविधान संशोधन बिल लेकर आई। इसी संशोधन के तहत संविधान में 10वीं अनुसूची शामिल की गई, जिसमें दलबदल-विरोधी कानून का प्रावधान रखा गया। 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार एक और संशोधन लेकर आई, जिसमें किसी सियासी दल के एक-तिहाई सदस्यों के टूटकर अलग ग्रुप बनाने के उस प्रावधान को हटा दिया गया, जिसके तहत वो अयोग्य नहीं ठहराए जा सकते थे। आज की तारीख में अगर किसी पार्टी के दो-तिहाई या ज्यादा सदस्य किसी दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं या अपने ग्रुप का विलय कर देते हैं तो वह अयोग्य ठहराए जाने से बच सकते हैं। इस तरह के विलय के कुछ उदाहरण भी हैं। मसलन, गोवा में कांग्रेस के सारे विधायकों ने भाजपा में विलय कर लिया। इसी तरह तेलगू देसम पार्टी के दो राज्यसभा सांसद भाजपा में शामिल हो गए।
गवर्नर ने सरकार से क्या कहा है ?
इस बीच राजस्थान के गवर्नर कलराज मिश्र ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ओर से विधानसभा सत्र बुलाए जाने के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया है और इसके लिए कम से कम 21 दिन के नोटिस देने को कहा है। राज्यपाल ने कहा है कि विधानसभा का सत्र कम समय में तभी बुलाया जाना चाहिए जब मुख्यमंत्री विश्वास मत हासिल करना चाह रहे हों। जबकि, कांग्रेस सरकार ने सत्र बुलाए जाने के आधिकारिक एजेंडे में फ्लोर टेस्ट की मांग ही नहीं की है। उसने कोरोना जैसे विषयों को तत्काल सत्र बुलाए जाने का कारण बताया है।
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