DU ने अकल से की होती नकल तो नहीं जाता FYUP
नई दिल्ली। प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में जब पाठ्यक्रम का बदलाव किया गया तो लगभग 2 साल लग गए। सिंगापुर यूनिवर्सिटी में जब सिलेबस में कांट-छांट हुई तो सालों का वक्त लगा पर दिल्ली विश्वविद्यालय में आधुनिकता की ऐसी 'लहर' चली कि ढाई महीने में नियम-कानून से हटकर FYUP पाठ्यक्रम लाया गया। फिर लागू किया गया। फिर हटाया गया। आइए गौर से समझें कि क्या कारण थे जिनकी वजह से FYUP का हथौड़ा छात्रों के कमजोर कंधों पर मारा गया-
पलायन
देश के तीन लाख से ज्यादा छात्र उच्च शिक्षा के लिए हर साल विदेश चले जाते हैं। डाक्टरी, इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट की शिक्षा के लिए विदेश जाने वाले छात्रों में सिर्फ 5 प्रतिशत देश लौटते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर DU ने यहीं विदेशी शिक्षा का मॉडल पेश करना चाहता, जिसकी मिसाल FYUP को दी गई।
विदेश का दबाव
भारत की उच्च शिक्षा को दुनिया के खुले बाजार में लाने का पहला बड़ा प्रयास अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने किया था। मनमोहन सिंह सरकार ने भी इस नीति को जारी रखा। जब अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने इंडो-अमेरिकन संवाद में सवाल उठाये कि दुनिया के दूसरे हिस्सों से छात्र अमेरिका में पढ़ने आयें तथा दूसरा भारत में अमेरिकी विश्वविद्यालयों के कैंपस स्थापित हों।
पैटर्न की तस्वीर
अमेरिका अपने यहां लगातार उच्च शिक्षा में सरकारी अनुदान कम कर रहा है। लेकिन अमेरिकी विश्वविद्यालयों की कमाई के लिए वह भारत जैसे देश पर भी प्रभाव डाल रहा है। भारत में भी शिक्षा का पैटर्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों जैसा करने की पहल हुई, जिसका पहला प्रयोग FYUP बना।
नुकसान में भारत
भारत से विदेश जाने वाले उच्च शिक्षा के चहेतों को अपने ही देश में रोकना व व्यवसायिक तौर पर मजबूती देने के लिए कोर्स को आनन-फानन शुरु कर दिया गया। आंकड़ा है कि सिर्फ अमेरिका जाने वाले कंप्यूटर एक्सपर्ट से भारत को 12 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है।
जन्म भारत में, ऐश विदेश में
अमेरिका में भारत के 75 फीसदी वैज्ञानिक, 40 फीसदी रिसर्च स्कॉलर अन्य देशों में हैं। अमेरिका एच-1बी वीजा के कुल कोटा का 47 फीसदी भारतीय प्रोफेशनल्स को बांट रहा है। गौरतलब है कि अक्तूबर, 2013 के बाद अमेरिका जाने वालों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इन्हीं कुछ समाधानों को ध्यान में रखते हुए FYUP की नींव रखी गई जो सरकार बदलते ही भरभराकर ढह गई।