अलौकिक कृष्णवटः कान्हा ने छुपाया था माखन, भगवान के स्पर्श से आज भी कटोरी-चम्मच बनकर उगते हैं पत्ते
सागर, 19 अगस्त। 'कृष्णवट' धरती का वह चमत्कारिक वृक्ष है जो भगवान श्रीकृष्ण के बाल्यकाल में उनका पवित्र स्पर्श पाकर अलौकिक हो गया था। कान्हा ने मां यशोदा से छिपाकर एक बार इसके पत्तों में माखन रखा था, उस के बाद से इसका पत्ता-पत्ता भगवान के लिए समर्पित हो गया। आज भी "कृष्णवट" के पत्ते कटोरी-चम्मच का आकार लेकर उगलते हैं। सागर में डाॅक्टर हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय के वानस्पतिक उद्यान में यह पवित्र वृक्ष संरक्षित है। इसका वानस्पतिक नाम भी भगवान कृष्ण के नाम पर ''फाइकस कृष्नाई'' है।
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‘‘फाइकस कृष्नाई‘‘ विवि के बाॅटनीकल गार्डन में संरक्षित
मप्र के सागर में स्थित डॉ. हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यायल के बॉटनीकल गार्डन में बाईं ओर कृष्णबट लगा है। विभाग के अधिकारियों के अनुसार करीब 6 दशक से अधिक समय से यह मौजूद है। इसे किसने कब कहां से लाकर लगाया गया था, इसकी पुख्ता जानकारी नहीं है। यह वृक्ष करीब 15 साल से जरा सा बढ़ पाया है। काफी धीमीगति से यह बढ़ रहा है। विभाग ने इसको संरक्षित करने व मानवीय हस्तक्षेप से बचाने तार की फेंसिंग कराई है।
भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का प्रत्यक्ष प्रमाण है
द्वापर युग में भगवान की बाल्य लीलाओं के प्रत्यक्ष सबूत आज भी जगह-जगह मौजूद हैं। सागर विवि के वानस्पतिक गार्डन में लगा कृष्नाई वटवृक्ष (फाइकस कृष्नाई ) बीते 62 सालों से मौजूद है। इसके पत्ते कटोरीनुमा व पीछे की तरफ चम्मचनुमा होते हैं। धार्मिक मान्यता है कि माखन चोरी की लीलाओं के दौरान माता यशोदा की डांट से बचने के लिए बाल कृष्ण ने इसी वटवृक्ष के पत्तों में माखन रखकर उन्हें लपेट दिया था। जिसके बाद से इसके पत्ते भगवान के स्पर्श से कटोरी-चम्मच की तरह ही उगते हैं।
माखन कटोरी वटवृक्ष नाम से भी पहचाना जाता है
"फाइकस कृष्नाई" वृक्ष को देश के कई हिस्सों में माखन-कटोरी वटवृक्ष भी कहा जाता है। इसको लेकर अलग-अलग किवदंतियां व धार्मिक मान्यताएं बताई जाती हैं। एक मान्यता है कि माता यशोदा ने कान्हा को पहली दफा इसी वृक्ष के पत्तों में रखकर दधी-माखन खिलाई थी, जिसके बाद से इसके पत्ते आज तक माखन कटोरी-चम्मन के आकार के उगते हैं।
ऑक्सीजन का भरपूर स्रोत, हमेशा हरा-भरा रहता है
सागर के बॉटनिकल गार्डन में मौजूद इस कृष्ण वट का वैज्ञानिक महत्व का भी है। दरअसल फाइकस बेंगालेंसिस नाम के सोलानासि परिवार का यह पेड़ ऑक्सीजन का बढ़ा स्रोत है। ऑक्सीजन देने वाले तमाम वृक्षों में यह वृक्ष सबसे ज्यादा ऑक्सीजन छोड़ता है। रिसर्च के अनुसार बरगद व वटवृक्ष की प्रजाति में यह आॅक्सीजन जनरेटर का यह सबसे अधिक उत्पादक माना जाता है।
‘‘कृष्नाई वटवृक्ष‘‘ देश में सागर, नंदगांव वृंदावन, कोलकाता, झारखंड में मौजूद
''कृष्नाई वटवृक्ष'' हिन्दुस्तान में सागर के अलावा नंदगांव वृंदावन, वॉटनिकल गार्डन कोलकाता व वॉटनिकल गार्डन झारखण्ड में मोैजूद है। इसके अलावा विदेशों में भी दो जगह इसकी मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं। यह इतना दुर्लभ प्रजाति का पौधा है कि सागर के वाॅटनीकल गाॅर्डन में इसके अन्य पौाधे बनाने के प्रयास किए गए, लेकिन इसी गार्डन में मात्र एक पौधा बन पाया। गौर भवन व अन्य तीन जगह जो पौध तैयार करने की कोशिश की गई थी, लेकिन सफलता नहीं मिली। देश के अन्य वानस्पतिक उद्यान में भी ऐसी ही स्थिति बनी है, जहां भी इसके पौधे तैयार करने की कोशिश की गई, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी।
बॉटनीकल गार्डन में तीन तरह के बरगद मौजूद
केंद्रीय विवि के बॉटनीकल गार्डन में हजारों प्रजाति के पेड़-पौधे संरक्षित हैं। सबसे खास बात यह कृष्नाई फाइकस (कृष्णवट) के साथ-साथ दो अन्य प्रजाति के बरगद भी मौजूद हैं। इनमें एक सामान्यतः पाया जाने वाला बरगद तो दूसरा बरगद ऐसा है जिसकी जड़े ऊपर के तनों से नीचे की तरफ बढ़ती हैं। एक ही स्थान पर बरगद की तीनों प्रजातियां मौजूदगी का यह इकलौता स्थान है।
यह दुर्लभ प्रजाति का है, वानस्पतिक नाम ‘‘फाइकस कृष्नाई‘‘ है
दुर्लभ
प्रजाति
का
''कृष्ण
वट''
हमारे
विभाग
के
बॉटनीकल
गार्डन
में
करीब
62
साल
से
अधिक
समय
से
मौजूद
है।
इसका
हिंदी
नाम
'माखन-दोना'
या
'माखन
कटोरी'
भी
प्रचलित
है।
वानस्पतिक
नाम
फाइकस
कृष्नाई
है
।
इसे
कृष्ण
वट
नाम
इसलिए
दिया
गया
क्योंकि
मान्यता
है
कि
बचपन
में
कृष्ण
ने
मक्खन
खाने
में
इस
वृक्ष
के
पत्तों
का
उपयोग
किया
था।
पौराणिक
कथाओं
में
उल्लेख
है
कि
कृष्णजी
इस
वृक्ष
पर
बैठकर
माखन
खाया
करते
थे।
यह
वृक्ष
12
महीने
हरा
भरा
रहता
है।
जिससे
आसपास
भूजल
स्तर
की
विपुलता
के
संकेत
मिलते
हैं,
मध्यप्रदेश
में
सागर
विश्वविद्यालय
में
ही
यह
इकलौता
वृक्ष
है।
इस
वृक्ष
से
नए
पौधे
तैयार
करना
काफी
जटिल
प्रक्रिया
होती
है।
काफी
प्रयास
के
बावजूद
मात्र
एक
और
पेड़
तैयार
हो
पाया
है।
इसके
पत्तों,
छाल,
जड़
आदि
का
औषधियों
के
रुप
में
प्रयोग
किया
जाता
है।
-
प्रो.
दीपक
व्यास,
विभागाध्यक्ष,
वानस्पतिक
विज्ञान
विभाग,
डाॅ.
एचएस
गौर
सेंट्रल
यूनिवर्सिटी
सागर
मप्र