दुनिया भर में खत्म होने की कगार पर आए गिद्ध इटावा के जंगलों में फड़फड़ा रहे पंख
लांग बिल्ड वल्चर, व्हाइट विल्ड वल्चर और किंग वल्चर को देखने के लिए पर्यावरणविदों ने उम्मीद ही छोड़ दी थी। गिद्धों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर किए जा रहे प्रयासों के अलावा हरियाणा, बिहार और पश्चिम बंगाल में भी इस तरह की पहल जारी हैं। पर्यावरण के सैनिक कही जाने वाली यह प्रजाति को प्रकृति का सफाईकर्मी भी माना गया है।
ये खेतों व सड़कों पर पड़े आवारा जानवरों के शवों से अपनी भूख मिटाते हैं, जिससे पर्यावरण संतुलित रहता है। भारत, नेपाल और पाकिस्तान में कभी इनकी संख्या 8 करोड़ से भी ज्यादा थी पर अब सिमट कर कुछ हजार पर आ चुकी है।
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99 फीसदी की इस भयानक गिरावट ने प्रकृति के इस प्रहरी की विलुप्तता तो जाहिर कर ही दी थी साथ ही पर्यावरणविदों को भी आश्चर्य में डाल दिया गया था। इन आंकड़ों के उजागर होने के बाद मुहिम शुरु हुई थी, जिससे इन्हें फिर वापस सकुशल पाया जा सके। वर्ल्ड कन्जर्वेशन यूनियन ने सरकार का ध्यान गिद्धों की तेजी से गिरावट की ओर दिलाया तो 2002 में इन पर काम शुरु हुआ।
हरियाणा के पिंजौर में पहला वल्चर कंजर्वेशन बना जिसके बाद अन्य राज्यों की सरकारें भी जागीं व पहल को तेजी मिली। माना जाता है कि गिद्ध एक साल में केवल एक ही अंडा देता हैपर अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। साथ ही वे ऐसा घौंसला बनाते हैं जो बिना पत्ती वाले पेड़ पर हो। पर्यावरण कार्यकर्ता राजीव चौहान के मुताबिक चंबल सेंच्युरी में इन्हें देखा गया है जो भविष्य के लिए शुभ संकेत है।