अंग्रेजों पर रंग फेंककर लगाए थे नारे, टोडी बच्चा हाय हाय, घटना की याद में आज भी मनाते हैं 7 दिन की होली
कानपुर। पूरे देश में होली का त्योहार भले ही बीत गया हो, लेकिन कानपुर में तो रंगों की खुमारी अभी भी लोगों के सिर चढ़ी हुई है। यहां आज भी रंग खेले जा रहे हैं। क्रान्तिकारियों के इस शहर में एक सप्ताह तक होली मनाने की परंपरा स्वाधीनता संग्राम की एक घटना से जुड़ी हुई है। दरअसल, कानपुर में होली मेला अंग्रेजी हुकुमत की हार का प्रतीक है।
कब शुरू हुई परंपरा
कानपुर में होली का हुड़दंग अभी जारी है जो गंगा किनारे होली मेला के आयोजन के साथ समाप्त होगा। ये बात सन् 1930 के आसपास की है जब जियालों के इस शहर में सात दिनों तक होली मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। उस समय कुछ देशभक्त नौजवानों की एक टोली ने हटिया इलाके से निकल रहे अंग्रेज पुलिस अधिकारियों पर रंग डालकर ''टोडी बच्चा हाय हाय'' के नारे लगाये थे। जनता के बढ़ते दबाव के बाद सात दिनों बाद सभी गिरफ्तार युवकों को रिहा कर दिया गया। तब अपनी इस जीत का जश्न मनाने और अंग्रेजी हुकूमत को ठेंगा दिखाने के लिये पूरे शहर में होली मेला आयोजित किया गया। तब से आज तक कानपुर में सात दिनों तक होली मनाना और बिट्रिश कालीन कोतवाली के सामने से रंगों का ठेला निकालना बदस्तूर चला आ रहा है।
जमाने के साथ बदला होली मेला का स्वरूप
जमाना बदला है, दौर बदले हैं तो कानपुर के होली मेला का स्वरूप भी बदल गया है। पिछले 65 सालों से होली मेला में फाग गाने वाले बुजुर्ग कहते हैं कि पहले फाग में देशभक्ति के गीतों को जोड़कर गाया जाता था और फागुनी मस्ती भी क्रान्ति की अलख जगाने का जरिया बन जाती थी, लेकिन नये जमाने के युवक तो सिर्फ डीजे की मस्ती पर थिरकना पसंद करते हैं। फिर भी हटिया से होली मेला का जो ठेला निकलता है, उसमें बृज की रासलीला के स्वांग रचाए जाते हैं। सतरंगी पिचकारी के रंगों की बौछार इतनी तेज होती है कि तिमंजिले पर खड़ी बालाएं भी भीग जाएं। गुलाल के ऐसे बादल छाते हैं कि आसमान नीला नहीं बहुरंगी नजर आता है।