‘नेताजी’, ‘शहीद-ए-आजम’, ‘बापू’ या ‘महात्मा’ से बड़ा सम्मान है ‘भारत रत्न’?
नई दिल्ली। 23 साल की उम्र में भगत सिंह को फांसी हुई और इस घटना के 23 साल बाद 'भारत रत्न' का जन्म हुआ। एक और भगत सिंह इस दौरान पैदा हो सकते थे। लेकिन, भगत सिंह का पैदा होना सांसारिक इतिहास की अनहोनी घटना होती है। वे शहीद-ए-आज़म कहे गये। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज की भारत सरकार से पहले भारत सरकार का गठन कर लिया था। 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में उन्होंने अपनी सरकार की घोषणा की थी जिसे जर्मनी, जापान समेत 9 देशों ने मान्यता दे दी। क्या ऐसे इंसान किसी सरकार की ओर से सम्मान दिए जाने से ऊपर नहीं हैं?

बापू या महात्मा की उपाधि पा चुके अहिंसा के मंत्र फूंकते रहे गांधीजी को राष्ट्रपिता देश ने माना
बापू या महात्मा की उपाधि पा चुके अहिंसा के मंत्र फूंकते हुए आजादी के गीत गाते रहे गांधीजी को राष्ट्रपिता देश ने माना। निश्चित रूप से आज़ाद हिन्दुस्तान के सर्वोच्च सम्मान पाने से पहले वह सम्मान की सर्वोच्चता को हासिल कर चुके थे। भारत की जिन विभूतियों ने अपनी ज़िन्दगी में 'भारत रत्न' के पैदा होने से पहले ऐसा रुतबा हासिल कर लिया हो तो क्या उन नामों को इस सम्मान से परे नहीं रखा जाना चाहिए? आप पूछेंगे कि यह सवाल क्यों किया जा रहा है? यह सवाल इसलिए पूछे जा रहे हैं क्योंकि भारत रत्न के मामले में दो ऐसी गलतियां हुई हैं जिसके बाद
यह सवाल 'भारत रत्न' की हर घोषणा के साथ ज़िन्दा हो जाता है। पहली गलती 1991 में हुई जब नरसिम्हाराव सरकार ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को सम्मानित करने का फैसला किया। सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु 1950 में हुई थी। यानी 2 जनवरी 1954 को भारत रत्न की शुरुआत से चार साल पहले। दूसरी गलती नरेंद्र मोदी की सरकार ने की जब मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला लिया गया। उनकी मृत्यु 1946 में हुई थी यानी भारत रत्न की शुरुआत से 8 साल पहले। मोदी सरकार ने एक और गलती की थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिए भी उन्होंने भारत रत्न की घोषणा कर दी थी। लेकिन इस सम्मान को नेताजी के परिवार ने ग्रहण नहीं किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे अमान्य करार दिया।

भारत रत्न पर उठे सवाल
तभी से यह सवाल नये सिरे से उठे हैं कि 'भारत रत्न' से सम्मानित होने वाली विभूतियों में केवल दो को सम्मान क्यों दिए जाएं, यह उचित कैसे हो सकता है? खुदी राम बोस से लेकर बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे 20वीं सदी के नेताओं में किन्हीं के नाम को छोड़ने का औचित्य नहीं बनता। इसी तरह से 19वीं सदी में भी रानी लक्ष्मी बाई, राजा राम मोहन राय जैसे नामों को कैसे छोड़ा जा सकता है? फिर यह सिलसिला रुकेगा भी नहीं। अतीत में जाने का कोई अंत नहीं रह जाएगा। फिर, यह सवाल ख़त्म कैसे होंगे?
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ये सपूत पहले महान् बने, 'भारत रत्न' बाद में पैदा हुआ
सरदार वल्लभ भाई पटेल और मदन मोहन मालवीय को दिए गये 'भारत रत्न' अमान्य करके ही ऐसा हो सकता है। इससे इन विभूतियों का सम्मान घटेगा नहीं, बल्कि बढ़ेगा। अवसरवादी राजनीति ने यह स्थिति पैदा की है। इसके तहत नेहरू को 'भारत रत्न' मिला, तो पटेल को भी दे देते हैं या फिर इन दोनों को मिला तो मदन मोहन मालवीय को क्यों नहीं? इस अवसरवाद ने 'भारत रत्न' की नींव ही हिला दी। अगर भारत रत्न की प्रतिष्ठा को आगे बढ़ाना है तो हमें इस दिशा में सोचना ही होगा। अन्यथा ये सवाल उठते रहेंगे कि भगत सिंह, खुदीराम बोस, सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी जैसे सपूत क्यों 'भारत रत्न' से दूर रहे? हमें ये साफ कर देना चाहिए कि इन सपूतों ने अपने जीवन में जो हासिल कर लिया, उसके सामने कोई भी सम्मान बड़ा नहीं है। ये सपूत पहले महान् बने, 'भारत रत्न' बाद में पैदा हुआ।