ज़िम्बाब्वे: राष्ट्रपति मुगाबे को क्यों बनानी पड़ी निजी सेना?
ज़िम्बाब्वे में जारी राजनीतिक संकट राष्ट्रपति मुगाबे से क्यों जुड़ा है?
ज़िम्बाब्वे में सेना ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया है. देश की सत्तारूढ़ पार्टी ने दावा किया है कि एक रक्तहीन सत्ता परिवर्तन के बाद राष्ट्रपति मुगाबे को हिरासत में ले लिया है.
सेना का कहना है कि राष्ट्रपति मुगाबे सुरक्षित हैं.
इससे पहले सेना द्वारा सरकारी ब्रॉडकास्टर ज़ेडबीसी के मुख्यालय पर कब्ज़ा करने की ख़बरें आई थीं. राजधानी हरारे की कुछ जगहों पर बम के धमाकों और भारी गोलाबारी की आवाज़ें सुनी गई हैं. लेकिन इन धमाकों की वजह स्पष्ट नहीं हो पाई है.
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हालांकि, ज़िम्बॉब्वे के 93 वर्षीय राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे ने इस घटनाक्रम पर अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.
ज़िम्बॉब्वे में क्यों पैदा हुआ ये हालात?
मुगाबे ने पिछले हफ़्ते उत्तराधिकार पर जारी कलह को लेकर उपराष्ट्रपति को बर्खास्त कर दिया था.
लेकिन सैन्य जनरल कोन्सटंटिनो चिवेंगा ने देश के उपराष्ट्रपति को बर्खास्त किए जाने के बाद राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे को चुनौती दी थी.
इसके बाद ज़िम्बॉब्वे में ये हालात पैदा हुए क्योंकि देश की सत्ताधारी पार्टी ने देश के सैन्य प्रमुख पर 'विश्वासघाती बर्ताव' का आरोप लगाया.
केवल ख़ुदा कर सकता है बर्खास्त!
ज़िम्बॉब्वे में गहराते राजनीतिक संकट के केंद्र में उत्तराधिकार से जुड़ी कलह है. क्योंकि मुगाबे ने कुछ दिन पहले उपराष्ट्रपति के पद से उस शख़्स को हटाया है जो 1970 के दशक में देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के जाने-माने चेहरा रहे हैं.
1934 में पैदा होने वाले राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे एक पूर्व अध्यापक हैं.
मुगाबे इस समय दुनिया के सबसे ज़्यादा वृद्ध राष्ट्रपति हैं. ज़िम्बॉब्वे की पहली सरकार में उन्होंने पार्टी प्रमुख और प्रधानमंत्री पद की ज़िम्मेदारियां संभाली थीं.
मुगाबे अब तक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद पर रह चुके हैं.
लेकिन मुगाबे की शारीरिक स्थिति ख़राब होने की वजह से ज़िम्बॉब्वे में उत्तराधिकार की कलह जारी है लेकिन वह आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं.
ये साल 2008 की बात है. चुनाव के दौरान मुगाबे ने कहा, "अगर आप चुनाव हार जाएं और लोगों द्वारा अस्वीकार कर दिए जाएं तो आपको संन्यास ले लेना चाहिए."
लेकिन जब मुगाबे को पर्याप्त वोट नहीं मिले तो उन्होंने अपने असली रूप में आते हुए कहा कि उन्हें उनके पद से 'सिर्फ़ ख़ुदा' ही हटा सकते हैं.
इसके बाद सत्ताधारी दल की ओर से राजनीतिक हिंसा को ध्यान में रखते हुए स्वांगिराई ने अपना नाम वापस ले लिया.
गुरिल्ला युद्ध के दौर के मुगाबे
रॉबर्ट मुगाबे की शख़्सियत को समझने के लिए हमें 1970 के गुरिल्ला युद्ध की ओर जाना होगा जिसमें मुगाबे ने अपना नाम कमाया.
इस दौर में मुगाबे को क्रांतिकारी नायक के रूप में देखा जाता था. इसी वजह से कई अफ़्रीकी नेता मुगाबे की निंदा करने से बचते हैं.
लेकिन आज़ादी के बाद से पूरी दुनिया आगे बढ़ चुकी है लेकिन मुगाबे अभी भी उसी मानसिकता के साथ जी रहे हैं.
मुगाबे की पार्टी ज़नू-पीएफ़ की समाजवादी ताकतें अभी भी उपनिवेशवाद और पूंजीवाद से संघर्ष कर रही हैं.
वह ज़िम्बॉब्वे की ख़राब आर्थिक हालत के लिए पश्चिमी देशों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
इसके साथ ही इसे पश्चिमी देशों द्वारा उन्हें अपदस्थ करने की साजिश करार देते हैं.
देश कभी दिवालिया नहीं हो सकते
मुगाबे ने एक बार कहा था कि देश कभी भी दिवालिया नहीं हो सकते. लेकिन भारी इनफ़्लेशन और आर्थिक संकट के साथ वो इस थ्योरी को टेस्ट कर रहे हैं.
ज़िम्बॉब्वे यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर टॉनी हॉकिंस कहते हैं, "जब भी अर्थव्यवस्था राजनीति के रास्ते में आती है तो जीत हर बार राजनीति की ही होती है."
इसी तरह जब मुगाबे की पहली बार आलोचना हुई तो उन्होंने अफ़्रीका की सबसे विविध अर्थव्यवस्था को चरमराकर रख दिया. उन्होंने अंग्रेजों की जमीनों को छीन लिया जो कि अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी थे.
इस कदम से उन्होंने दानकर्ताओं का गुस्सा मोल लिया लेकिन राजनीतिक रूप से उन्होंने जीत हासिल की.
...जब बनाई निजी सेना
साल 2000 में जब एक जनमत संग्रह में मुगाबे को हार का स्वाद चखना पड़ा तो उन्होंने स्वयं-भू पूर्व फ़ौजियों के साथ निजी सेना का गठन किया. इसने हिंसा और हत्याओं को चुनावी रणनीति में शामिल किया.
आठ साल बाद जब मुगाबे ने पहले दौर का राष्ट्रपति चुनाव हारा तब भी इसी तरह की रणनीति अपनाई गई.
अपने पैर पर मारी कुल्हाड़ी
पूर्व अध्यापक मुगाबे की उपलब्धियों की बात करें तो इनमें ज़िम्बॉब्वे में शिक्षा का प्रचार-प्रसार शामिल होगा.
ज़िम्बॉब्वे इस समय अफ़्रीकी देशों में सबसे ज़्यादा शिक्षा दर वाला देश बना गया है.
राजनीति विज्ञानी मासिपूला ने एक बार कहा था कि मुगाबे ने शिक्षा का स्तर बढ़ाकर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली क्योंकि अब जिम्बॉब्वे के युवा अपने आप से ज़िम्बाब्वे की समस्याओं को समझ सकते हैं.
युवा पीढ़ी नौकरियों की कमी के साथ-साथ अपनी अन्य समस्याओं के लिए सरकार को दोष दे सकते हैं.