ज़िम्बॉब्वे संकट: ये पांच चीज़ें आपको पता होनी चाहिए
ज़िम्बॉब्वे में सेना सत्ता पर नियंत्रण के बाद अब क्या करेगी? जानिए वहां के संकट के बारे में ख़ास बातें.
ज़िम्बॉब्वे की सत्ता पर सेना के नियंत्रण के बाद अब क्या होगा? सेना का अगला रुख़ क्या होगा इसकी प्रतीक्षा दुनिया के कई देश कर रहे हैं.
सेना ने राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे को नज़रबंद कर रखा है. हम आपको यहां पांच अहम बातें बता रहे हैं जिसे आप समझ सकते हैं कि ज़िम्बॉब्वे की वर्तमान स्थिति क्या है और क्यों है.
संकट में अर्थव्यवस्था
ज़िम्बॉब्वे पिछले एक दशक से आर्थिक संकट से जूझ रहा है. देश में बेरोज़गारी का अनुमान अलग-अलग है, लेकिन देश के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन का कहना है कि इस साल की शुरुआत में बेरोज़गारी की दर 90 फ़ीसदी तक थी.
2008 में ज़िम्बॉब्वे में मंहगाई चरम पर थी. ज़िम्बॉब्वे को अपनी करंसी छोड़ विदेशी कैश अपनाने पर मजबूर होना पड़ा था. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि ज़िम्बॉब्वे नक़दी की समस्या से जूझ रहा था. सरकार ने अपना डॉलर जारी किया था जिसे बॉन्ड नोट कहा गया, लेकिन बड़ी तेज़ी ये बेकार साबित होते गए.
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जिन लोगों ने बैंकों में पैसे जमा किए थे वो निकाल नहीं सकते थे. पैसे निकालने की सीमा तय कर दी गई थी. ऐसे में ऑनलाइन लेन-देन की लोकप्रियता बढ़ी. जब बुधवार को सेना ने सत्ता पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया तो बिटक्वाइन की कीमत राजधानी हरारे में बढ़ गई. बिटक्वाइन एक डिजिटल पेमेंट सिस्टम है.
मुगाबे और विवाद
93 साल की उम्र में सत्ता पर क़ाबिज़ रहने के लिए मुगाबे की तीखी आलोचना होती है. ज़िम्बॉब्वे में उन्हें एक क्रांतिकारी हीरो के रूप में देखा जाता है, जिन्होंने देश में गोरों के शासन की ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी.
हालांकि मुगाबे और उनके समर्थक सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेते रहे हैं. सरकार की मशीनरी का इस्तेमाल सत्ता को बचाने के किया जाता था.
मुगाबे की पार्टी का कहना है कि यह पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई है. लेकिन सच यह है कि देश की आर्थिक समस्याओं को निपटाने में मुगाबे नाकाम रहे हैं.
मुगाबे अक्सर कहते रहे हैं कि वो राष्ट्रपति की कुर्सी तभी छोड़ेंगे जब क्रांति पूरी हो जाएगी, लेकिन दूसरी तरफ़ वो एक उत्तराधिकार भी चाहते हैं.
देश के वर्तमान संकट का संबंध इसी से है कि मुगाबे जीवन के आख़िरी वक़्त में हैं और एक उत्तराधिकार की तलाश है.
देश में एक विपक्ष है
1980 में ब्रिटेन की निगरानी में जब पहली बार चुनाव हुआ और रॉबर्ट मुगाबे प्रधानमंत्री बने तो एक विपक्ष भी था. 1987 में मुगाबे ने संविधान को बदल दिया और ख़ुद को राष्ट्रपति बना लिया.
1999 में मूवमेंट फोर डेमोक्रेटिक चेंज नाम से एक विपक्षी समूह अस्तित्व में आया. इसके बाद से सरकार की नीतियों और आर्थिक संकट को लेकर विरोध प्रदर्शन और हड़ताल आम बात हो गई.
मुगाबे ने सरकारी हिंसा के अलावा सत्ता पर नियंत्रण रखने के लिए अपने राजनीतिक विरोधियों को ख़त्म करना शुरू किया. इसके साथ ही उन्होंने पार्टी में ताक़तवर लोगों को निकाल बाहर किया.
हाल ही में मुगाबे ने उपराष्ट्रपति एमर्सन को बर्ख़ास्त कर दिया था. मुगाबे अपनी पत्नी ग्रेस मुगाबे को सत्ता सौंपना चाहते थे, लेकिन सेना ने ऐसा नहीं होने दिया.
कोई नया नेता बड़ा बदलाव नहीं ला सकता
अगर बर्ख़ास्त उपराष्ट्रपति एमर्सन को सत्ता सौंपी जाती है तो उनकी राह आसान नहीं होगी. उनकी विश्वसनीयता मुगाबे की तरह नहीं है. एमर्सन भी ज़िम्बॉब्वे की आज़ादी की लड़ाई के अहम चेहरा रहे हैं.
इनके बारे में कहा जाता है कि वो सेना, ख़ुफ़िया एजेंसियों और सत्ताधारी पार्टी के बीच कड़ी जोड़ने काम करते हैं.
इन पर ज़िम्बॉब्वे में गृहयुद्ध के दौरान दमन और विपक्ष पर हमले करने के भी आरोप हैं. पिछले चार दशकों से देश में यथास्थिति को बनाए रखने में वहां की सरकार और सेना दोनों के हाथ रहे हैं.
संभव है कि मुगाबे राष्ट्रपति बने रहें
लोगों को लगता है कि मुगाबे के जाने से देश में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आएगा. सेना ने टीवी पर दिए बयान में कहा है कि सत्ता पर उसका नियंत्रण अस्थायी रूप से है.
सेना का कहना है कि ऐसा अपराधियों को ख़त्म करने के लिए किया गया है न कि मुगाबे को निशाना बनाने के लिए.
हो सकता है कि मुगाबे यह गतिरोध ख़त्म होने के बाद सत्ता छोड़ दें. बर्ख़ास्त उपराष्ट्रपति एमर्सन को फिर से उपराष्ट्रपति बनाया जा सकता है और फिर उत्तराधिकार की योजना बनेगी.