क्या कभी एक हो पाएंगे उत्तर और दक्षिण कोरिया!
वे हमेशा अलग नहीं थे, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उनके बंटवारे की नींव पड़ी और शीत युद्ध के दौरान दोनों देश वजूद में आए.
पिछले कुछ महीनों में उत्तर कोरिया और उसके शासक किम जोंग-उन कभी हथियारों के परीक्षण के लिए चर्चा में रहे तो कभी अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से जुबानी जंग के लिए.
मगर साल 2018 की शुरुआत में नाटकीय मोड़ तब आया, जब किम जोंग-उन ने दक्षिण कोरिया में होने जा रहे विंटर ओलिंपिक गेम्स में अपने खिलाड़ी भेजने की पेशकश की.
दक्षिण कोरिया समेत पूरी दुनिया ने इस क़दम का स्वागत किया. उम्मीद जगी कि इससे कोरियाई प्रायद्वीप में बढ़ रहे तनाव को कम करने में मदद मिलेगी.
उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया का अपने मौजूदा स्वरूप में आने से पहले का इतिहास एक है, भाषा एक है और दोनों सांस्कृतिक रूप से भी एक-दूसरे से अलग नहीं हैं. फिर भी दोनों के बीच का तनाव पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बना हुआ है. लेकिन इस विवाद की जड़ क्या है?
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जापान का शासन
प्राचीन काल में कोरियाई प्रायद्वीप में कई राजनीतिक मानचित्र बदले, मगर सांस्कृतिक तौर पर यह एक एक ही रहा.
चौदहवीं सदी से लेकर 19वीं सदी तक यहां जोस्योन वंश का राज रहा. मगर बीसवीं सदी की शुरुआत में जापान ने यहां पर नियंत्रण कर लिया.
जेएनयू में सेंटर फॉर कोरियन स्टडीज़ में असोसिएट प्रोफेसर नीरजा समाजदार बताती हैं कि इस दौर में कोरियाई लोगों और संस्कृति का बहुत दमन हुआ.
वह कहती हैं, "जोस्योन वंश के शासन के दौरान लोगों को राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष करना पड़ा. इस दौरान चीन और जापान का दबाव भी पड़ता रहता था. मगर जब 1910 में जापान ने कोरिया पर नियंत्रण हासिल किया, यहां की संस्कृति का बहुत दमन किया गया."
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अमरीका और सोवियत संघ की खींचतान
नीरजा समाजदार के मुताबिक़, "जापान की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध कोरिया लोगों में अपनी पहचान के लिए भावना जगी और आंदोलन भी हुए. इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध में 1945 में जब जापान की हार हुई तो कोरिया मुक्त हो गया."
मगर यह आज़ादी पूरी आज़ादी नहीं थी. इस दौरान उत्तरी हिस्से पर सोवियत संघ का नियंत्रण था और दक्षिणी हिस्सी पर अमरीका का.
दिसंबर 1945 में मॉस्को कॉन्फ्रेंस में सहमति बनी कि सोवियत संघ, चीन और ब्रिटेन पांच साल तक कोरिया की प्रशासनिक देखरेख करेंगे और फिर उसे पूरी तरह स्वतंत्र किया जाएगा. मगर कोरियाई लोग तुरंत आज़ादी चाहते थे.
इसके बाद 1946-47 में अमरीका और सोवियत संघ ने मिलकर प्रशासन चलाने के लिए बातचीत की, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला. मई 1946 में ही 38वीं समानांतर रेखा के आर-पार जाने के लिए परमिट की व्यवस्था कर दी गई थी. इस रेखा के ऊपरी हिस्से पर सोवियत संघ का नियंत्रण था और दक्षिणी हिस्से पर अमरीका का.
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राजनीतिक व्यवस्था
शीत युद्ध की राजनीति ने कोरिया का विभाजन कर दिया. अमरीका के नियंत्रण वाले दक्षिणी हिस्से मेंसंयुक्त राष्ट्र की निगरानी में चुनाव हुए जिसमें सिंगमैन री की जीत हुई. वह कम्युनिज़्म के ख़िलाफ थे.
वहीं, जोसफ स्टालिन ने रूस के नियंत्रण वाले उत्तरी हिस्से में किम इल-सुंग को नेता नियुक्त कर दिया. इसी तरह दो महाशक्तियों की खींचतान के कारण एक कोरिया के 1948 में दो देश बन गए- उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया.
चूंकि उत्तर कोरिया वाला हिस्सा सोवियत संघ के नियंत्रण में था, इसलिए वहां की राजनीतिक व्यवस्था सोवियत संघ जैसी ही रही और अमरीकी प्रभाव वाले दक्षिण कोरिया में पश्चिमी शासन पद्धति लागू की गई.
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1997 से 1999 तक उत्तर कोरिया में भारतीय राजनयिक रह चुके जगजीत सिंह सपरा बताते हैं कि उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया साम्यवादी और पूंजीवादी व्यवस्थाओं के प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल किए गए.
वह बताते हैं, "शीतयुद्ध के दौरान उत्तर कोरिया को कम्युनिस्ट सिस्टम के सबसे अच्छे उदाहरण के तौर पर पेश किया जा रहा था और दक्षिण कोरिया को पूंजीवाद सिस्टम के बेहतर नमूने के तौर पर पेश किया जा रहा था. काफी सालों तक तो दोनों देशों की अर्थव्यवस्था एक ही रफ्तार से चली थी."
यह वो दौर था जब साम्यवाद का विस्तार हो रहा था. 1949 में चीन में भी कम्युनिस्ट सत्ता में आ चुके थे. इसी बीच 1950 में उत्तर कोरिया के नेता किम इल सुंग ने दक्षिण कोरिया पर हमला कर दिया.
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कोरियाई युद्ध
माना गया कि उत्तर कोरिया के इस कदम के पीछे रूस और चीन का समर्थन था. इस युद्ध में सिर्फ उत्तर और दक्षिण कोरियाई सेनाएं ही नहीं लड़ीं, बल्कि यह महाशक्तियों की लड़ाई थी. इस लड़ाई की वजह से पूरी दुनिया में तीसरे विश्वयुद्ध के बादल मंडराने लगे थे.
- जब उत्तर कोरिया ने हमला किया और आसानी से दक्षिणी कोरिया की सेना को हरा दिया. सितंबर 1950 तक लगभग पूरे दक्षिण कोरिया पर उत्तर कोरिया का क़ब्ज़ा हो चुका था.
- इस बीच अमरीका की मांग पर संयुक्त राष्ट्र ने दक्षिण कोरिया की सहायता के लिए सेना भेजने का फ़ैसला किया. रूस इस फ़ैसले के विरोध में वीटो नहीं कर सका क्योंकि उस दौरान उसने संयुक्त राष्ट्र का बहिष्कार किया हुआ था.
- अक्टूबर में अमरीकी जनरल मैकअर्थर के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र की सेनाएं आईं और उन्होंने उत्तर कोरियाई सेना को वापस खदेड़ दिया. अब लगभग पूरे उत्तर कोरिया पर संयुक्त राष्ट्र का नियंत्रण था.
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- मगर नवंबर 1950 में चीन की पीपल्स वॉलंटियर्स आर्मी ने उत्तर कोरिया की तरफ से हमला कर दिया और अमरीकी सेना को दक्षिण कोरिया में बहुत पीछे हटना पड़ा.
- अमरीका ने और सैनिक भेजे और चीनियों को 38वीं समानांतर रेखा हटा दिया. उस समय अमरीका के राष्ट्रपति थे हैरी ट्रूमन. उन्होंने जनरल मैकअर्थर को इसी रेखा पर रुकने के लिए कहा, मगर मैकअर्थर इस बात के लिए तैयार नहीं हुए तो उन्हें हटा दिया गया.
- इस तरह से तीन साल तक यह युद्ध जारी रहा और 38वीं समानांतर रेखा जो एक तरह से नियंत्रण रेखा थी, पर झड़पें होती रहीं. अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति ड्वाइट आइज़नावर ने चीन के सामने शांति प्रस्ताव रखा, मगर यह भी कहा कि शांति के लिए जरूरी हुआ तो परमाणु बम भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
यह धमकी एक तरह से रंग लाई और 27 जुलाई 1953 को कोरियाई युद्ध ख़त्म हो गया.
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युद्ध ख़त्म हुआ, लड़ाई नहीं
दोनों देशों के बीच युद्ध के बाद कोई शांति समझौता भी नहीं हुआ है. इसका एक मतलब ये भी समझा जाता है कि कि दोनों देश तकनीकी रूप से आज भी युद्धरत हैं. वैसे भी आज तक न तो दोनों देशों के रिश्ते सामान्य हुए हैं और न ही पूरी तरह शांति स्थापित हुई है. कई मौक़े ऐसे आए, जब तनाव चरम पर पहुंच गया.
दक्षिण कोरिया में जनरल पार्क चुंग-ही ने 1963 में सैन्य तख्तापलट करके सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था. 1968 में उत्तर कोरिया के ख़ास दस्ते ने उनकी हत्या की नाकाम कोशिश की, जिसके बदले में दक्षिण कोरिया ने उत्तर कोरिया के नेता को मारने के इरादे से एक टीम बनाई.
आगे भी उत्तर कोरिया पर कई घटनाओं में शामिल रहने के आरोप लगे. 1983 में म्यांमार में एक धमाके में 17 दक्षिण कोरियाई नागरिक मारे गए और उंगलियां उत्तर कोरिया की तरफ उठी थीं. इसी तरह 1987 में दक्षिण कोरिया के एक यात्री विमान को बम से उड़ाने का आरोप उत्तर कोरिया पर लगा था.
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शांति स्थापना की कोशिशें पहले भी हुईं
पहले भी दोनों देशों ने आपसी रिश्तों को बेहतर करने के लिए कोशिशें की हैं, मगर वे सिरे नहीं चढ़ पाई हैं. जगजीत सिंह सपरा बताते हैं, "दक्षिण कोरिया के नेता किम दे-जुंग ने सनशाइन पॉलिसी शुरू की थी. वह उत्तर कोरिया भी गए थे."
"उत्तर कोरिया के सीमावर्ती शहर केसोंग में बड़ा औद्योगिक क्षेत्र तैयार किया गया था, जहां दक्षिणी कोरियाई कंपनियों में उत्तर कोरियाई मजदूर काम कर सकते थे. और यह किम जोंग-उन के पिता किम जोंग-इल के शासनकाल में हुआ था. तो लोगों का आपस में सीधा संपर्क रहा है."
मगर सवाल उठता है कि ऐसी कोशिशें कभी सिरे क्यों नहीं चढ़ पाईं? पांच साल तक दक्षिण कोरिया में भारतीय डिप्लोमैट रहे शशांक बताते हैं कि दोनों देशों के राजनीतिक हालात इसके लिए ज़िम्मेदार हैं.
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परमाणु युद्ध की धमकी
शशांक कहते हैं, "दक्षिण कोरिया में दो तरह की पार्टियां हैं. कुछ पार्टियां चाहती हैं कि उत्तर कोरिया के सामने कड़ा स्टैंड लेना चाहिए, फिर बातचीत होनी चाहिए. वहीं दक्षिण कोरिया के मौजूदा राष्ट्रपति नरम रुख अपना चाहते हैं ताकि मिलजुलकर आगे बढ़ा जाए."
"मगर कोरियाई देशों में अगर दोस्ती की बात होती है, तो उन्हें डर लगता है. दक्षिण कोरिया को लगता है कि कहीं उत्तर कोरिया परमाणु युद्ध की धमकी देकर कहीं दबाव न बनाता रहे और उत्तर कोरिया को लगता है कि कहीं उसकी सत्ता को ख़तरा न हो जाए."
दरअसल उत्तर कोरिया में शुरू से एक ही वंश का शासन रहा है. पहले किम जोंग उन के दादा यहां के शासक थे, फिर उनके पिता ने सत्ता संभाली और अब वह ख़ुद वहां के 'तानाशाह' हैं.
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मगर दोनों देशों के बीच रिश्ते तब से और भी खराब हो गए हैं, जबसे उत्तर कोरिया के परमाणु हथियारों और मिसाइलों के परीक्षण शुरू किए हैं. सवाल यह भी उठता है कि उत्तर कोरिया को इन हथियारों की जरूरत क्यों हैं?
जगजीत सिंह सपरा कहते हैं, "परमाणु कार्यक्रम इस डर से चलाया जा रहा है कि हमें हटाने की कोशिश हो रही है. साथ ही उन्हें चीन, रूस, जापान और अमरीका पर विश्वास नहीं है. ऐसा नहीं है कि अमरीका के खिलाफ ही हथियार बना रहे हैं. वे ये मानकर आगे बढ़ रहे हैं कि हम किसी भी बाहरी ताकत से अपनी सुरक्षा के लिए हथियार बना रहे हैं."
उत्तर कोरिया के हथियारों को ख़तरे की तरह देखा जाता है. पिछले दिनों परमाणु युद्ध तक की आशंका जताई जा रही थी.
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एकीकरण का सपना
जेएनयू में सेंटर फॉर कोरियन स्टडीज़ में असोसिएट प्रोफेसर नीरजा समाजदार कहती हैं कि इस मामले को थोड़ा अलग ढंग से देखने की ज़रूरत है.
वह कहती हैं, "हो सकता है कि हमारे बीच ऐसा दोस्त हो जो अलग सोचता हो. जरूरी नहीं कि उसका मकसद किसी को नुकसान पहुंचाना है. मगर हमारे बीच में कुछ अन्य लोग उस दोस्त का विरोध करने लग जाते हैं. ऐसे में वह दोस्त सोचेगा कि कल को ये मेरे ऊपर हमला करें तो मेरे पास भी आत्मरक्षा के लिए कुछ होना चाहिए."
दोनों देशों के नेता और लोग एकीकरण की बात करते हैं. दक्षिण कोरिया में एकीकरण के लिए अलग से मंत्रालय भी बना हुआ है. मगर क्या दोनों देशों का विलय हो पाएगा?
शशांक बताते हैं कि दोनों देशों के एक हो जाने में कुछ व्यावहारिक दिक्कतें हैं.
युद्ध का दर्द
शशांक कहते हैं, "अगर दोनों कोरिया का विलय हो गया तो जो नया देश होगा, वह किस तरह का देश होगा? वह साम्यवादी होगा या पूंजीवादी? ऐसा इसलिए संभव नहीं लगता क्योंकि उत्तर कोरिया को लगता है कि दुनिया में जहां भी उनके देश जैसी व्यवस्था रही है, वहां के शासकों ने अपने वेपन सिस्टम को कमजोर किया है तो वहां सत्ता बदल गई है. उत्तर कोरिया को तो यही चिंता है कि उसके यहां की व्यवस्था न कोई बदल दे."
यह तो हुई उत्तर कोरिया की बात. दक्षिण कोरिया के लोग क्या सोचते हैं? हाल ही में बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव दक्षिण कोरिया गए थे, जहां उन्होंने दक्षिण कोरियाई लोगों से भी बात की और उत्तर कोरिया से भागकर आए लोगों से भी.
वह बताते हैं, "एकीकरण को लेकर अलग-अलग पीढ़ियों के अलग मत हैं. जिस पीढ़ी ने विभाजन और युद्ध का दर्द देखा है, वह बुजुर्ग हो चुकी है और चाहती है कि एकीकरण हो. मगर युवा मानते हैं कि कोरिया आर्थिक और सामाजिक रूप से बहुत पीछे छूट चुका है. अगर विलय होता है तो उसे अपने बराबर लाने में दक्षिण कोरिया का नुकसान होगा."
भविष्य क्या है?
जानकार मानते हैं कि राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि कितने भी प्रयास कर लिए जाएं, उत्तर कोरिया कभी नहीं चाहेगा कि वह दक्षिण कोरिया के बहुत ज्यादा करीब आए.
जगजीत सिंह सपरा बताते हैं, "उत्तर कोरिया नहीं चाहेगा कि दक्षिण कोरिया के सिस्टम के बारे में उसके लोगों को पता चले और लोगों में अपने शासक के खिलाफ भावना पैदा हो. वहां तो पहले ही यह बताया जाता है कि उनका देश सर्वश्रेष्ठ है. ऐसे में उत्तर कोरिया संभलकर रिश्ते बनाएगा. संपर्क में रहेगा मगर ज्यादा नहीं."
और क्या हो अगर उत्तर-कोरिया और दक्षिण कोरिया को आपस में मामले सुलझाने के लिए छोड़ दिया जाए और बाकी कोई देश इनके मामले में दखल न दे?
इस राह में दो बड़ी मुश्किलें नजर आती हैं. पहला तो यही कि ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक उत्तर कोरिया अपना परमाणु कार्यक्रम बंद न कर दे.
'गेम डिप्लोमसी'
और दूसरी बात यह है कि कोरिया ऐसी जगह है जहां चारों तरफ़ चीन, जापान, रूस और अमरीका हैं जो विश्वयुद्ध में भी शामिल थे.
इनकी सोच उस समय यही थी कि कोरिया पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लें ताकि कोई और यहां हावी न हो जाए.
ऐसे में जानकारों का कहना है कि मामला यहां सिर्फ उत्तर और दक्षिण कोरिया के समझौते से नहीं सुधर सकता, इसमें इन चार शक्तियों को भी शामिल होना होगा.
बहरहाल, दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने को अच्छा संकेत माना जा रहा है.
इस 'गेम डिप्लोमसी' को लेकर शंकाए भी कई हैं, मगर यह भी उम्मीद है कि दोनों देशों के बीच विंटर ओलिंपिक गेम्स के बहाने जो बातचीत शुरू हुई है, वह आगे बढ़ेगी और इसका कोई न कोई सकारात्मक परिणाम निकलेगा.