क्या सऊदी अरब का पूरा कुनबा बिखर जाएगा?
सीरिया, ईरान, इसराइल-फ़लस्तीनी संघर्ष और मिस्र में लोकतंत्र के आने को लेकर दोनों देशों में मतभेद रहे हैं. सऊदी नहीं चाहता था कि अमरीका ईरान के साथ परमाणु समझौता करे, लेकिन ओबामा प्रशासन ने किया था. हालांकि ट्रंप ने आख़िरकार इस समझौते को तोड़ दिया.
सऊदी अरब और अमरीका के बीच इतना प्रेम क्यों है? यह सवाल ऐसा ही है कि एक तानाशाह या राजा और चुने हुए राष्ट्रपति के बीच दोस्ती कैसे हो सकती है?
अमरीका लोकतंत्र, मानवाधिकार और महिलाओं के बुनियादी अधिकारों को लेकर दुनिया भर में मुहिम चलाता है, लेकिन सऊदी अरब तक उसकी यह मुहिम क्यों नहीं पहुंच पाती है.
इराक़ में तो अमरीका ने सद्दाम हुसैन की तानाशाही को लेकर हमला तक कर दिया. सऊदी अरब में भी लोकतंत्र नहीं है, मानवाधिकारों के आधुनिक मूल्य नहीं हैं और महिलाएं आज भी बुनियादी अधिकारों से महरूम हैं, लेकिन अमरीका चुप रहता है. आख़िर क्यों?
ऐसा कौन सा हित है जिसके चलते अमरीका अपने ही आधुनिक मूल्यों की सऊदी में अनदेखी कर रहा है?
जनवरी 2015 में जब सऊदी के किंग अब्दुल्लाह का फेफड़े में इन्फ़ेक्शन से निधन हुआ तो अमरीकी नेताओं ने श्रद्धांजलि की झड़ी लगी दी. तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अब्दुल्लाह की प्रशंसा में कहा था कि मध्य-पूर्व में शांति स्थापित में उनका बड़ा योगदान था.
तब के विदेश मंत्री जॉन केरी ने कहा कि किंग अब्दुल्लाह दूरदर्शी और विवेक संपन्न व्यक्ति थे. उपराष्ट्रपति जो बाइडन ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि वो उस अमरीकी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगे जो किंग अब्दु्ल्लाह की श्रद्धांजलि में शोक जताने सऊदी अरब जाएगा.
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अमरीका की मजबूरी क्या
किंग अब्दुल्लाह के निधन पर अमरीका की यह प्रतिक्रिया चौंकाने वाली नहीं थी. सऊदी अरब और अमरीका दशकों से सहयोगी हैं. इसके बावजूद अमरीका और सऊदी के सुल्तान के संबंधों में विरोधाभासों का ज़िक्र थमता नहीं है.
मानवाधिकारों को लेकर सऊदी का रिकॉर्ड काफ़ी ख़राब है, क्षेत्रीय शांति में भी उसकी भूमिका पर्याप्त संदिग्ध है. अमरीका और सऊदी की दोस्ती के बारे में कहा जाता है कि अमरीका को सऊदी के साथ की जितनी ज़रूरत अभी है उतनी कभी नहीं रही.
किंग अब्दुल्लाह के बाद उनके सौतेले भाई सलमान ने कमान संभाली. उन्होंने भी अमरीका के साथ अपने पूर्ववर्ती सुल्तान की नीति जारी रखी. यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि सऊदी में राजशाही है और वहां कोई विपक्ष नहीं है.
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धार्मिक बहुलता जैसी बात तो दूर की है. सऊदी में की कुल आबादी में महिलाएं 42.5 फ़ीसदी हैं. शुरुआत में तो यहां महिलाओं के साथ बच्चों की तरह व्यवहार होता था. सऊदी में 'गार्डियनशिप' सिस्टम है.
इसके तहत महिलाओं को काम या यात्रा के लिए घर से निकलने की अनुमति पुरुषों से लेनी होती है. किंग अब्दुल्लाह की कुल 15 बेटियों में से चार बेटियां 13 सालों तक नज़रबंद रही थीं. ऐसा इसलिए क्योंकि इन चारों ने महिलाओं से जुड़ी नीतियों को लेकर शाही शासन की आलोचना की थी. इन चारों में से दो ने कहा था कि उन्हें ठीक से खाना तक नहीं दिया गया.
ओबामा का यह कहना कि अब्दुल्लाह ने मध्य-पूर्व में शांति स्थापना में अहम योगदान दिया था यह तथ्यों से परे है. मिस्र में जब होस्नी मुबारक के शासन के ख़िलाफ़ लोकतंत्र के समर्थन लोग सड़क पर उतरे तो किंग अब्दुल्लाह ने इसका विरोध किया था.
उन्होंने राष्ट्रपति ओबामा से होस्नी मुबारक की सत्ता बचाने के लिए हस्तक्षेप करने को कहा था. दूसरी तरफ़ अमरीका होस्नी मुबारक के ख़िलाफ़ लोगों के आंदोलन का समर्थन कर रहा था.
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तेल का खेल
किंग अब्दु्ल्लाह लंबे समय तक मिस्र की मुस्लिम ब्रदरहुड को मदद पहुंचाते रहे. सऊदी अरब क्षेत्र के शिया आंदोलनों के भी ख़िलाफ़ रहा है. उसे हमेशा लगा कि इससे ईरान का प्रभाव बढ़ेगा. जब शिया प्रदर्शनकारियों ने पड़ोसी बहरीन में तानाशाही शासन प्रणाली को चुनौती दी तो सऊदी ने अपनी सेना भेज दी.
सऊदी ने सीरिया में भी विद्रोहियों को मदद की, लेकिन यह उसी के ख़िलाफ़ गया. सऊदी अरब पर ये आरोप लगते रहे हैं कि वो इस्लामिक स्टेट की आर्थिक मदद करता है.
इतना कुछ होने के बावजूद सऊदी को अमरीका साथ क्यों देता है? वॉशिंगटन में इंस्ट़ीट्यूट फ़ॉर गल्फ़ अफ़ेयर्स में सऊदी अरब के विशेषज्ञ अली अल-अहमद का कहना है कि इसका बहुत ही आसान जवाब है- तेल.
वो कहते हैं, ''सऊदी और अमरीका कोई स्वाभाविक दोस्त नहीं हैं, लेकिन दोनों एक-दूसरे का साथ देना नहीं भूलते हैं. दोनों एक-दूसरे का फ़ायदा उठाते हैं. अमरीका को 1940 के दशक से सऊदी से सस्ता तेल मिल रहा है और यही सऊदी और अमरीका की दोस्ती का राज़ है. तेल के अलावा भी कई चीज़ें हैं, लेकिन तेल सबसे अहम है.''
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वो कहते हैं, ''सऊदी ने अमरीका का साम्यावाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में जमकर साथ दिया था. अफ़ग़ानिस्तान में तथाकथित जिहाद में सऊदी की अहम भूमिका रही थी और वहां से रूस को बाहर होना पड़ा था. हालांकि इसका असर यह हुआ कि अफ़ग़ानिस्तान तीन दशकों तक ख़तनाक युद्ध में फंसा रहा. परिणामस्वरूप तालिबान और अल क़ायदा का जन्म हुआ और 9/11 का हमला भी हुआ. अफ़ग़ानिस्तान आज भी गृह युद्ध जैसे हालात में ही है.''
अली अल-अहमद कहते हैं, ''सऊदी ने आर्थिक मदद देकर अपने ही नागरिकों को अफ़ग़ानिस्तान में लाल सेना से लड़वाया. अमरीका सऊदी अरब से इसे लेकर काफ़ी ख़ुश रहा कि उसने जो भी कहा, उसे सऊदी ने पूरा किया. शीत युद्ध ख़त्म होने के बाद सऊदी को अमरीका से अच्छे रिश्ते का ख़ूब फ़ायदा मिला. ईरान उसके ख़िलाफ़ कुछ कर नहीं पाया. आज की तारीख़ में ईरान सऊदी का जानी दुश्मन है. अमरीका भी ईरान को लेकर सऊदी की ही लाइन पर है. 1979 में जब ईरानी क्रांति हुई तो अमरीका ने सऊदी को महफ़ूज रखा. फ़ारस की खाड़ी में अमरीका का सैन्य ठिकाना है और वो इस पर हर साल 200 अरब डॉलर खर्च करता है. ज़ाहिर है सऊदी इस सैन्य ठिकाने से भी आश्वस्त रहता होगा.''
सऊदी अरब तेल उत्पादक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज (ओपेक) का सबसे बड़ा तेल उत्पादक और अहम देश है. ओपेक दुनिया के 40 फ़ीसदी तेलों को नियंत्रित करता है. अमरीका हाल के वर्षों तक दुनिया का सबसे बड़ा तेल आयातक देश रहा है और इसलिए सऊदी के साथ उसकी दोस्ती और प्रासंगिक हो जाती है.
हाल के वर्षों में अमरीका ने अपनी ज़मीन से तेल का उत्पादन शुरू किया है. कहा जा रहा है कि आने वाले वक़्त में अमरीका के लिए सऊदी ज़रूरी नहीं रह जाएगा. अमरीका हर दिन 90 लाख बैरल तेल का उत्पादन कर रहा है जो कि सऊदी के लगभग बराबर है.
अमरीका को 80 फ़ीसदी तेल उत्तरी और दक्षिणी अमरीका से मिलेगा और 2035 तक ये ज़रूरतें पूरी हो जाएंगी. उत्तरी अमरीका में तेल उत्पादन का यह बूम रहा तो वैश्विक राजनीति में बड़ी तब्दीली आएगी.
सऊदी और अमरीका के बीच मुख्य व्यापार तेल और हथियार का है. ओबामा प्रशासन ने सऊदी को 95 अरब डॉलर का हथियार बेचा था. सऊदी अरब के साथ अमरीका के मतभेद भी कई मुद्दों पर हैं.
सीरिया, ईरान, इसराइल-फ़लस्तीनी संघर्ष और मिस्र में लोकतंत्र के आने को लेकर दोनों देशों में मतभेद रहे हैं. सऊदी नहीं चाहता था कि अमरीका ईरान के साथ परमाणु समझौता करे, लेकिन ओबामा प्रशासन ने किया था. हालांकि ट्रंप ने आख़िरकार इस समझौते को तोड़ दिया.
क्या सऊदी अरब का कुनबा बिखर जाएगा?
कई विश्लेषकों का कहना है कि आने वाले वक़्त में सऊदी अरब बुरी तरह से अस्थिर हो सकता है. इन विश्लेषकों का कहना है कि सऊदी कई गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है.
सऊदी की कमान अब पूरी तरह से क्राउन प्रिंस सलमान अपने हाथों में ले चुके हैं. उनके फ़ैसले पर सवाल उठ रहे हैं. उन्हें अनुभवहीन कहा जा रहा है. शाही परिवार में सत्ता को लेकर काफ़ी उठापटक है.
क्राउन प्रिंस ने अपने कई चचेरे भाइयों को जेल में बंद कर दिया था. तेल की क़ीमत गिरती है तो सऊदी का बजट गड़बड़ा जाता है. यमन में सऊदी अरब एक ऐसी लड़ाई में उलझा है जिससे निकल नहीं पार रहा है.
पड़ोसी ईरान के साथ उसके संबंध ठीक नहीं हैं. अगर अमरीका तेल को लेकर सऊदी पर आश्रित नहीं रहता है तो सऊदी अरब के अस्थिर होने की आशंका काफ़ी बढ़ जाती है. और ये अस्थिरता सऊदी राजघराने को निश्चित तौर पर प्रभावित कर सकती है और उसके कथित सहयोगियों को भी.