नज़रिया: क्या ट्रंप की चेतावनी के बाद बदलेगा पाकिस्तान?
पूर्व राजनयिक विवेक काटजू की राय में अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में भारत को मूल्यवान दोस्त की तरह देखता है.
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप जब मंगलवार को अफ़ग़ानिस्तान पर प्रशासनिक नीति का ख़ाका पेश कर रहे थे तो मेरा दिमाग़ 1990 के दशक के मध्य में चला गया.
उस समय और उसके बाद भी भारत, अमरीका समेत बाकी पश्चिमी देशों को पाकिस्तान की ओर से इस क्षेत्र में अपने हितों के लिए चरमपंथी संगठनों को बढ़ावा देने और उनके इस्तेमाल से जुड़े ख़तरे को लेकर आगाह करता रहा है.
हालांकि, तब भारत को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था. पाकिस्तान को अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता लाने के लिए अहम कड़ी के तौर पर देखा जाता था.
तालिबान को भरोसे लायक लेकिन रुढ़िवादी अफ़ग़ान समूह माना जाता था और पाकिस्तान स्थित कट्टरपंथी तंज़ीमों की भारत के ख़िलाफ़ हिंसा को भारत-पाकिस्तान के अनसुलझे मुद्दों का नतीजा माना जाता था.
अब एक अमरीकी राष्ट्रपति ने बेहद कड़े शब्दों में पाकिस्तान को चेतावनी दे दी है, "चरमपंथियों को समर्थन देना बंद करो, अपने तरीके में बदलाव लाओ या फिर नतीजे भुगतने को तैयार रहो."
'अफ़ग़ानिस्तान से वापस नहीं आएगी अमरीकी सेना'
बदलाव होगा?
क्या अब पाकिस्तान अपना रास्ता बदलेगा या फिर अपने 'सदाबहार दोस्त चीन' के समर्थन से मौजूदा स्थितियों को ही बहाल रखेगा और ट्रंप की संतुष्टि के लिए महज़ नीतियों में दिखावटी बदलाव लाएगा?
ऐसा नहीं लगता कि पाकिस्तान अपनी अफ़ग़ान नीति में बदलाव करेगा. अफ़ग़ानिस्तान पर दबाव बनाए रखने के लिए पाकिस्तान तालिबान पर भरोसा दिखाता रहा है. बीते दो दशक से ज़्यादा वक्त से वो तालिबान की मदद कर रहा है.
उन्हें पाकिस्तानी इलाके में सुरक्षित पनाहगाह मुहैया कराने के साथ उनकी मदद भी जारी है. अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के साथ पाकिस्तान के रिश्ते खराब होने की वजह ये है कि वो अपने पड़ोसी भारत की नीतियों को वीटो करना चाहता है.
पाकिस्तान का आरोप है कि भारत और अफ़ग़ानिस्तान मिलकर उसे अफ़ग़ान की ज़मीन पर अस्थिर करना चाहते हैं.
ये तमाम बातें काल्पनिक हैं. ये साफ़ है कि ट्रंप ने इन झूठे दावों को कोई महत्व नहीं दिया. बल्कि उन्होंने पाकिस्तान को चरमपंथ के इस्तेमाल के ख़तरों को लेकर आगाह किया है. ख़ासकर तब जब उसके और भारत दोनों के पास परमाणु हथियार हैं.
अफगानिस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा क्या है
ऐसे में पाकिस्तान का रास्ता बदलवाने के लिए अमरीका को आर्थिक, कूटनीतिक तरीकों और ताकत तक का इस्तेमाल करना होगा. इस दिशा में वो कितना आगे जाएगा ये साफ़ नहीं है.
क्या वो सिर्फ आर्थिक प्रतिबंध लगाएगा और अगर ज़रुरत पड़ी तो आगे जाकर पाकिस्तान के कुछ अधिकारियों को निशाने पर लेगा और इसके बाद तालिबान की पनाहगाहों पर हवाई हमले करेगा और अंतत: इनमें से अगर कुछ काम नहीं करता है तो पनाहगाहों को खाली कराने के लिए ज़मीन पर भी दम दिखाएगा?
इन तमाम पहलुओं के बीच एक तथ्य साफ़ है कि जब तक पाकिस्तान में पनाहगाहें हैं तब तक तालिबान इतना कमज़ोर नहीं होगा कि वो अफ़ग़ान प्रशासन के साथ राजनीतिक समाधान के लिए बातचीत करने में दिलचस्पी दिखाए.
ट्रंप ने इसका ज़िक्र किया लेकिन इसे प्राथमिकता नहीं दी.
इस मामले में वो पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बराक ओबामा की नीति से अलग नज़र आते हैं.
भारत की भूमिका
अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में ट्रंप ने जिस तरह से भारत और पाकिस्तान का ज़िक्र किया, उससे बड़ा अंतर बयान में नहीं किया जा सकता... उन्होंने भारत से अफ़ग़ानिस्तान में ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाने को कहा. खासकर आर्थिक सहायता मुहैया कराने के मामले में.
उन्होंने इसे भारत-अमरीका वाणिज्य संबंधों से जोड़ा लेकिन इसकी ज़रुरत नहीं थी. पारंपरिक दानदाता के तौर पर पेश न आते हुए भी भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में सड़कें बनाई हैं. बांध बनाए हैं. बिजली मुहैया कराई है. संसद भवन बनाया है.
अफ़ग़ानिस्तान की सेना और सिविल अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया है. अफ़ग़ानी छात्रों को शिक्षा की सुविधा मुहैया कराई है और भी काफी कुछ किया है.
भारत के सहायता कार्यक्रम अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हैं. ये सब करते हुए भी भारत ने स्वतंत्र नीति अपनाई हुई है.
ख़ासा समर्थन रखने वाले अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने भारत के सकारात्मक रुख़ की वजह से तय किया था कि भारत वो पहला देश होगा जिसके साथ अफ़ग़ानिस्तान रणनीतिक साझेदारी करेगा.
फिलहाल ये अच्छा है कि अमरीका और उसके सहयोगियों और भारत के अफ़ग़ानिस्तान में हित मिलते-जुलते हैं.
भारत-अफ़ग़ानिस्तान ने पाकिस्तान को कैसे छकाया?
समयसीमा तय नहीं
गौरतलब है कि ट्रंप ने अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति के मद्देनज़र जिन विचारों की बात की उनमें से कई को लागू करने के लिए अतीत में भारत ने वकालत की थी.
इसमें तालिबान के साथ ताकत के जरिए निपटने की ज़रूरत भी शामिल है. इसके मायने उन्हें शरीक बनाए रखने के बजाए उन्हें कमज़ोर करने को प्राथमिकता दी जाए. भले ही उनका अफ़ग़ानिस्तान से बातचीत करना ज़रूरी ही क्यों न हो.
तालिबान की सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैधता हासिल करने में दिलचस्पी थी. उनकी इससे ज़्यादा चाहत नहीं थी. फिलहाल अड़ियल नेताओं के रहते तालिबान को राजनीतिक हालात की ओर देखने की कोई ज़रुरत नहीं लगती.
संघर्ष को 16 साल बीत जाने के बाद भी ये अच्छा है कि ट्रंप ने अमरीकी सैनिकों को वापस बुलाने के लिए कोई डेडलाइन तय नहीं की है. इससे उनका संकल्प ज़ाहिर होता है.
कठिन काम
सर्वमान्य मानवाधिकारों का पालन हर देश को करना चाहिए फिर भी संघर्ष की स्थितियों के बाद देश निर्माण एक ऐसी स्वायत्त प्रक्रिया है जो उस देश के हवाले कर देना ही उचित है.
राष्ट्र का विकास बाहर से अचानक आए मूल्यों और संस्थानों के ज़रिए नहीं बल्कि जैविक तौर पर होता है. ट्रंप ने ज़ोर देकर कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका की भूमिका 'आतंकवादियों के ख़ात्मे' की है न कि राष्ट्र निर्माण की.
साथ ही उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान प्रशासन से अपनी कार्रवाईयों के लिए जवाबदेह होने को कहा है. जो कि सही भी है.
भारत से बड़ी भूमिका निभाने के लिए कहते हुए ट्रंप ने ज़ाहिर किया कि भारत-अफ़ग़ान रिश्तों को सीमित करने की पाकिस्तान की तमन्ना को कोई सहानुभूति हासिल नहीं होगी.
ये पश्चिमी देशों के पारंपरिक रुख़ से उलट है जिसमें हालिया सालों में बदलाव दिखने लगा है लेकिन ट्रंप का रुख़ ज़ाहिर करता है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में सामान्य स्थिति बहाल करने में भारत को एक मूल्यवान सहयोगी के तौर पर देखते हैं.
ये भारत के हित में है कि वो स्वतंत्र तौर पर वहां जुड़ा रहे. अफ़ग़ानिस्तान भारत की भूमिका का स्वागत करता है. सुरक्षा के क्षेत्र में भी.
ट्रंप ने सही रुख़ तय करने में सात महीने का वक्त लिया. अब इसे अमल में लाने का कठिन काम शुरू होता है.