क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

इसराइल क्या फ़लस्तीनियों के लिए कभी एक देश नहीं बनने देगा

एक तरफ़ जहां दो देश बनाए जाना का आइडिया असंभव दिख रहा है, वहीं इसराइल अब यहूदी बहुसंख्यकों के देश में बदल रहा है.

By मेरिआनो आग्वीरे
Google Oneindia News
फ़लस्तीनी महिलाएं
Getty Images
फ़लस्तीनी महिलाएं

मध्य-पूर्व बदल रहा है. इसराइल ने उन कई अरब देशों के साथ कूटनीतिक संबंध बना लिए हैं जिन्होंने 1948 में उसके बनने के बाद कभी मान्यता नहीं दी थी.

ईरान के ख़िलाफ़ इसराइल की केंद्रीय भूमिका वाला सुन्नी देशों का गठजोड़ और मज़बूत हुआ है और एक दशक पहले अरब क्रांति के बाद ट्यूनीशिया समस्याओं से जूझ रहा है.

इराक़, अल्जीरिया, लेबनान में सामाजिक विरोध इस साल मज़बूत हुए. वहीं, लीबिया और यमन में गृह युद्ध लड़ा जा रहा है.

दूसरी तरफ़, सीरिया की लड़ाई में रूस के दख़ल से राष्ट्रपति बशर-अल-असद की सत्ता बच गई और अब स्पष्ट हो चुका है कि अमेरिका क्षेत्र से वापस जा रहा है.

इस सबके बीच, दशकों से मध्य-पूर्व की राजनीति के केंद्र में रहा फ़लस्तीन का सवाल कहीं पीछे छूट गया है. कई विशलेषक ये कह चुके हैं कि 'दो देश' वाला हल दफ़नाया जा चुका है और अब कई विशेषज्ञ एक देश में दो राष्ट्रीयता वाले विकल्प को बढ़ावा दे रहे हैं.

एक जैसे अधिकार?

सऊदी अरब, मिस्र और खाड़ी के दूसरे राजशाही वाले देशों ने इशारा किया है कि फ़लस्तीन को अलग देश बनाए जाने की मांग प्राथमिकता नहीं है और वैसे भी वे इसे संभव होता नहीं देख पा रहे हैं.

सऊदी प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान ने कहा है कि फ़लस्तीनियों को इसराइल और अमेरिका का दिया शांति प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए वरना चुप बैठना चाहिए.

जनवरी 2020 में ट्रंप सरकार ने शांति का प्रस्ताव पेश किया था जिसे फ़लस्तीनी प्रतिनिधियों ने इसराइल समर्थक कह कर ख़ारिज कर दिया था.

साल 2020 में बिन्यामिन नेतन्याहू ने घोषणा की थी कि वे वेस्ट बैंक के एक-तिहाई हिस्से को इसराइल में मिला लेंगे. ये क़दम उठाने में वह देरी करते रहे, शायद इसलिए क्योंकि अरब देश एक के बाद एक इसराइल को मान्यता देते जा रहे थे.

जुलाई में न्यूयॉर्क टाइम्स में अमेरिकी-यहूदी लेखक पीटर बेनर्ट ने लिखा था, "अब वक़्त आ गया है कि 'दो देश' वाले हल को छोड़ दिया जाए. यहूदी और फ़लस्तीनियों के बराबर अधिकारों के लक्ष्य पर ध्यान दिया जाए."

"अब वक़्त है कि यहूदियों के घर की कल्पना की जाए जो यहूदी देश नहीं है."

उनका कहना है कि ये एक देश हो सकता है जिसमें इसराइल है, वेस्ट बैंक है, गज़ा और पूर्वी यरुशलम है या दो देशों का संघ भी हो सकता है.

इसराइली अख़बार हअरेज़ में टिप्पणीकार गिडियन लेवी ने कहा कि अब उस पर सोचने और शुरुआत करने का वक़्त है जिस पर कभी सोचा नहीं जा सकता था क्योंकि किसी भी हाल में कोई दूसरा विकल्प नहीं है.

इसराइल-फ़लस्तीन
Reuters
इसराइल-फ़लस्तीन

अतीत में भी ऐसा प्रस्ताव रखा गया है

दो राष्ट्रीयता वाले एक देश का आइडिया नया नहीं है.

साल 1948 में, दार्शनिक हना अरेंड ने फ़लस्तीन के बँटवारे के बजाय यहूदी, अरबी और दूसरे अल्पसंख्यकों के संघ के साथ बाइनेशनल देश का प्रस्ताव दिया था.

दिवगंत इसराइली नेता और लेखक उरी एवनेरी ने 2013 में ऐसा ही आइडिया दिया था. उनके अलावा फ़लस्तीनी एडवर्ड और यहूदी मूल के ब्रितानी टोनी जुड ने भी ऐसा सुझाया था.

दक्षिण अफ्ऱीका की मानव विज्ञान अनुसंधान परिषद की प्रोफेसर विर्जिनिया टिले ने अपनी किताब फ़लस्तीन/इसराइल: ए कंट्री में भी इसे सुझाया है.

इसराइल के राजनीतिक दायरे में ख़ासकर दक्षिणपंथियों के बीच पिछले दशक में फ़लस्तीन को जोड़ने के विभिन्न मॉडल्स को लेकर एक आशंका रही है.

सभी मॉडल्स में उनके अधिकारों को सीमित किया गया है या बहुत लंबे वक़्त की योजनाएं हैं जिनमें धीरे-धीरे कई पीढ़ियों के बाद उन्हें समान अधिकार मिल पाएंगे.

यरुशलम
AFP
यरुशलम

'नस्लवाद वाला देश'

पीटर बेनर्ट के प्रस्ताव की काफ़ी आलोचना हुई. इसराइली योसी अल्फर ने भी इसकी निंदा की.

सुरक्षा और समझौतों में एक्सपर्ट योसी के मुताबिक़ बाइनेशनल देश का प्रस्ताव मध्य-पूर्व के संघर्षों की हक़ीकत, इसराइल के अतिवादी माहौल और फ़लस्तीनी अथॉरिटी की कमज़ोरी से परे है.

उनके विचार में ये प्रस्ताव दिखाता है कि अमेरिका के लिबरल यहूदी दायरे और इसराइल की हक़ीक़त के बीच कितना अंतर है.

अल्फर के मुताबिक़ बाइनेशनल देश मूल विवाद का हल नहीं निकाल सकता. बल्कि दोनों पक्षों के अतिवादियों के बीच हिंसक टकराव बढ़ सकता है.

उनका कहना है कि अब ज़रूरत है कि इसराइल को विनाश के रास्ते पर जाने से रोका जाए जो वो वेस्ट बैंक को मिलाकर करने वाला है. ये क़दम नस्लवाद के संकट की ओर ले जाएगा.

दूसरे आलोचकों का कहना है कि बाइनेशनल देश में दो लोग नेतृत्व को लेकर लड़ेंगे और बहुत ही कम इसराइली और ना के बराबर इसराइल और फ़लस्तीन में रहने वाले फ़लस्तीनी इस प्रस्ताव के पक्ष में हैं.

अधिकारों का सवाल

पब्लिक ओपिनियन के फ़लस्तीनी एक्सपर्ट ख़लील शिकाकी बताते हैं कि पिछले जून तक ज़्यादातर फ़लस्तीनी एक देश के बजाय दो देशों वाले हल को प्राथमिकता दे रहे थे.

लेकिन इस बात को असंभव मानने वाले लोगों की तादाद अब बढ़ती जा रही है.

वहीं, ज़्यादातर युवा फ़लस्तीनी एक देश को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं जिसमें लोकतांत्रिक और समानता की व्यवस्था हो. लेकिन ज़्यादातर यहूदी लोग फ़लस्तीनियों को समान अधिकार दिए जाने के ख़िलाफ़ हैं.

साल 2014 में समानांतर देशों का प्रस्ताव पेश किया गया था जिसमें संभावना जताई गई थी कि दो अलग-अलग देश, एक फ़लस्तीन और एक इसराइल एक ही ज़मीन पर मौजूद हों और अपने-अपने नागरिकों के लिए लगभग एक जैसी आर्थिक, सुरक्षा और कल्याण नीतियां हों. इस प्रस्ताव का स्वीडन सरकार ने भी समर्थन किया था.

दोनों पक्षों के बीच विवाद इतना गहरा है, हर समुदाय के अपने और दूसरे के बारे में नैरेटिव इतने अलग हैं कि अधिकारों का सवाल बना रहेगा.

तेल अवीव यूनिवर्सिटी के योआव पेलेद कहते हैं कि फ़लस्तीनियों को समान नागरिक और राजनीतिक अधिकार तो मिलने ही चाहिए, साथ ही अल्पसंख्यक होने के नाते सांस्कृतिक स्वायतत्ता और सामूहिक अधिकार भी मिलने चाहिए.

अवॉर्ड विजेता इसराइली पत्रकार हेगाई कहते हैं कि ये कहना ग़लत होगा कि हल एक या दो देश बना देने में है क्योंकि महत्वपूर्ण सवाल है कि इसराइल के औपनिवेशिक कब्ज़े को कैसे रोका जाए और फ़लस्तीनियों के अधिकारों को सम्मान मिले.

कोलंबिया यूनिवर्सिटी के फ़लस्तीनी प्रोफ़ेसर राशिद खलीदी ज़ोर देते हैं कि इस विवाद का एक औपनिवेशिक चरित्र भी है जिसकी मुख्य विशेषता है असमान अधिकार.

50 लाख फ़लस्तीनी सेना के नीचे कब्ज़ा की गई जगहों पर रहते हैं जिन्हें कोई अधिकार हासिल नहीं और दूसरी तरफ़ पांच लाख इसराइली उपनिवेशी अधिकारों का आनंद ले रहे हैं.

अलग-अलग मूल के लोग होने के बावजूद आज दो तरह के लोग फ़लस्तीन में रह रहे हैं.

खलीदी कहते हैं कि ये विवाद हल नहीं हो सकता क्योंकि दूसरा पक्ष उसके राष्ट्रीय वजूद को ही नकार रहा है.

यरुशलम
Getty Images
यरुशलम

क्यों है ये विवाद?

फ़लस्तीन समाज कई हिस्सों में बंटा हुआ है. 20 लाख के क़रीब फ़लस्तीनी इसराइल के कब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में 167 अलग-अलग क्षेत्रों में रहते हैं. वहीं 20 लाख लोग गज़ा में रहते हैं.

1948 और 1967 के युद्धों में 50 लाख लोग विस्थापित होकर क्षेत्र के विभिन्न कैंपों में रह रहे हैं.

वेस्ट बैंक में महमूद अब्बास की अवैध सरकार है जो इसराइल और अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर करती है. गज़ा में राजनीतिक-सैन्य समूह हमास का प्रशासन है जिसे क़तर, तुर्की और ईरान का समर्थन मिला हुआ है.

इसराइल ने 1967 के छह दिन के युद्ध में वेस्ट बैंक, गोलन हाइट्स और गज़ा को कब्ज़े में ले लिया.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के बार-बार निंदा प्रस्तावों के बावजूद इसराइल ने सिर्फ़ गज़ा से साल 2005 में क़दम पीछे हटाए.

साथ ही, इसराइल ने आस-पास के शहरों में 4,63,353 लोग बसा दिए जिनमें ज़्यादातर धार्मिक राष्ट्रवादी हैं जिन्होंने खेतों और पानी के स्रोतों पर नियंत्रण कर लिया. इसराइल ने सेना की मौजूदगी भी बढ़ा दी और तीन लाख लोगों को पूर्व यरूशलम में बसा दिया.

1993 के ओस्लो समझौते में तय हुआ कि फ़लस्तीन की वेस्ट बैंक और गज़ा के हिस्सों में अपनी सरकार होगी.

इसके बाद लगा कि दोनों पक्ष एक स्थायी हल की ओर बढ़ेंगे जिसके मुताबिक़ 1948 तक ब्रिटिश राज में कहे जाने वाले फ़लस्तीन क्षेत्र के 22 फ़ीसदी हिस्से में फ़लस्तीन देश बनेगा.

लेकिन इसराइल के आलोचक कहते हैं कि इस देश की सभी सरकारें फ़लस्तीन की मांगों को लेकर रोड़े अटकाती आई हैं जिससे कि ओस्लो समझौता भी नाकाम हो जाए.

इन मांगों में 1948 और 1967 के युद्ध के रिफ्यूजियों को वापस आने का अधिकार, पूर्व यरूशलम और इसके पवित्र स्थानों पर प्रभुत्व, समझौता होने तक वेस्ट बैंक और गज़ा के औपनिवेश पर रोक और एक डिफेंस सिस्टम शामिल हैं.

इसराइल के आधिकारिक नज़रिए से फ़लस्तीनियों की मांग बहुत ज़्यादा हैं और यथार्थवादी नहीं हैं, फ़लस्तीन के अलग-अलग गुटों का एक जैसा राजनीतिक स्टैंड भी नहीं रहा और बहुत से संगठनों ने आतंकवाद का सहारा लिया.

इसराइल-फ़लस्तीन
AFP
इसराइल-फ़लस्तीन

उपनिवेशवाद

दूसरी तरफ़, ओस्लो समझौते की मंशा के अस्पष्ट होने और अमेरिका के इसराइली समर्थक होने की वजह से ज़्यादा अड़चनें पैदा हुईं.

फ़लस्तीन कभी देश नहीं बन पाया. इस बीच, इसराइल ने 'ज़मीन के तथ्य' बनाकर कब्ज़े में लिए क्षेत्रों को औपनिवेशिक बनाने की कोशिश की.

इसका संबंध बाइबल में लिखी उस बात से जोड़ा गया कि ईश्वर के वादे के अनुसार यहूदियों को उस ज़मीन पर बसने का अधिकार है.

एक तरफ़ जहां दो देश बनाए जाना का आइडिया असंभव दिख रहा है, वहीं इसराइल अब यहूदी बहुसंख्यकों के देश में बदल रहा है. इसके 9,227,700 लोगों में से 74 फ़ीसद यहूदी हैं, इसके अलावा क़रीब 19 लाख अरबी और साढ़े चार लाख के आस-पास ग़ैर-अरबी ईसाई हैं.

इसके साथ-साथ इसराइल का नियंत्रण वेस्ट बैंक में रहने वाले क़रीब 20 लाख फ़लस्तीनियों पर भी है.

साल 2020 में बिन्यामिन नेतन्याहू ने घोषणा की थी कि वे वेस्ट बैंक के एक-तिहाई हिस्से को देश में मिला लेंगे.

फ़िलहाल, फ़लस्तीनी क्षेत्रों की सुरक्षा इसराइल और अमरीका के सहयोग से फ़लस्तीन अथॉरिटी के पास है.

अगर इसराइल वेस्ट बैंक के हिस्से को जोड़ लेता है तो उसे फ़लस्तीन अथॉरिटी द्वारा दी जा रही सुरक्षा और दूसरी जन सेवाएं भी अपने हाथ में लेनी होंगी.

संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय यूनियन और अमेरिका द्वारा विकास के लिए दी जाने वाली मदद भी बंद हो सकती है.

इसराइल ने अगर पश्चिम तट को जोड़ लिया तो उसके क्षेत्र में फ़लस्तीनी आबादी काफ़ी बढ़ जाएगी.

इसके बाद अगला कदम होगा सभी फ़लस्तीनियों को नागरिकता दी जाए या नहीं और उन्हें मताधिकार दिया जाए या नहीं.

अगर वो ऐसा करता है तो चुनाव में उनकी भूमिका अहम हो जाएगी. और अगर वो ऐसा नहीं करता तो वो लोकतांत्रिक देश नहीं कहलाएगा.

इसराइल की स्थापना करने वाले एक यहूदी और लोकतांत्रिक देश बनाना चाहते थे. बिना अधिकारों या सीमित अधिकारों वाले फ़लस्तीनियों के साथ ये एक नस्लभेदी देश बन जाएगा जैसा दक्षिण अफ़्रीका एक समय था.

कुछ विश्लेषक मानते हैं कि इसराइल उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है.

यू एस कैंपेन फॉर पैलेस्टीनियन राइट्स के कार्यकारी निदेशक यूसुफ़ मुनय्यर तो यहाँ तक मानते हैं कि फ़लस्तीनी आबादी का दमन और उनका औपनिवेशीकरण एक ऐसा तथ्य है जिसे बदला नहीं जा सकता. उनके अनुसार सवाल ये नहीं है कि क्या सिर्फ़ एक देश होना चाहिए बल्कि ये है कि क्या असल में इस समय भी ऐसा ही है.

इसलिए सवाल ये है कि क्या ये एक रंगभेदी शासन होगा या ऐसा जो कानून के सामने फ़लस्तीनियों की समानता को मानेगा.

साल 2019 में कराए गए कई जनमत सर्वेक्षण दिखाते हैं कि कम से कम आधे इसराइली एनेक्सेशन या राज्य के मिला लिए जाने का समर्थन करते हैं. इसमें से 63 फ़ीसदी दक्षिणपंथी मतदाता हैं.

मगर अधिकतर फ़लस्तीनियों को समान अधिकार दिए जाने के खिलाफ हैं. जिन लोगों के बीच सर्वेक्षण हुआ उनमें से एक तिहाई ये भी मानते थे कि उन लोगों को किसी दूसरी जगह भेज दिया जाना चाहिए.

रब्बाई आर्ये मायर ने 2019 में दावा किया कि दो-राष्ट्र वाला रास्ता भले ही पूरी तरह सही न हो मगर उससे कम से कम एक ऐसा इसराइल तो बनेगा जो यहूदी होगा, लोकतांत्रिक होगा और सुरक्षित होगा.

"राज्य को मिला लेने से आख़िरकार दो राष्ट्र बनेंगे जिनमें एक रंगभेदी होगा और उससे यहूदी राष्ट्र का सपना समाप्त हो जाएगा."

BBC Hindi
Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
English summary
Will Israel never allow the Palestinians to become one country?
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X