क़तर में रूस का विकल्प ढूँढ़ पाएगा जर्मनी?
जर्मनी एक तरफ़ एलजीबीटी मसले पर क़तर का विरोध कर रहा है तो दूसरी तरफ़ उसने क़तर के साथ प्राकृतिक गैस को लेकर 15 सालों का अनुबंध किया है.
"ये माना जाता है कि जब दो देशों के बीच तेल या गैस पाइपलाइन बन जाती है तो उनका विवाह हो गया. इसके माध्यम से उनकी निकटता बढ़ती है और राजनयिक संबंध गहरे होते हैं. लेकिन, हमने देखा कि इतनी पुरानी पाइपलाइन होने के बावजूद यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद पूरे पश्चिम यूरोप और रूस में जिस तरह का मतभेद आ गया तो ये थ्योरी असफल हो गई है. अरबों डॉलर का निवेश बर्बाद हो सकता है."
भारत के जाने-माने ऊर्जा विशेषज्ञ और फ़िलहाल बीजेपी से जुड़े नरेंद्र तनेजा जर्मनी और रूस के बीच बनते-बिगड़ते संबंधों को कुछ इस तरह ज़ाहिर करते हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद यूरोप रूस पर अपनी प्राकृतिक गैस की निर्भरता को कम कर रहा है. जर्मनी ने इस दिशा में एक क़दम और बढ़ाया है.
जर्मनी की तेल कंपनियों ने क़तर के साथ वार्षिक तौर पर 20 लाख टन लिक्विड गैस ख़रीदने का अनुबंध किया है. इस अनुबंध की घोषणा क़तर की कंपनी क़तर एनर्जी ने की है. इसकी शुरुआत साल 2026 से होगी.
क़तर अमेरिकी कंपनी कॉनोकोफिलिप्स को प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करेगा, फिर वो इसे जर्मनी के बुर्न्सपैट्री एलएनजी टर्मिनल पर पहुँचाएगा.
जर्मनी गैस आपूर्ति के लिए एलएनजी टर्मिनल्स का इस्तेमाल कर रहा है. यहाँ प्राकृतिक गैस को तरल में बदलकर टैंकर में भरकर लाया जाएगा.
जर्मनी के इकोनॉमी मिनिस्टर रॉबर्ट हैबेक ने कहा कि जर्मनी को रूस से गैस आपूर्ति पर निर्भरता कम करनी चाहिए और इसके स्रोत बढ़ाने चाहिए.
जर्मनी और रूस के बीच इस साल फरवरी से पहले नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन के ज़रिए प्राकृतिक गैस की आपूर्ति बेरोकटोक हो रही थी. संबंध अच्छे थे, एक और पाइपलाइन शुरू करने पर विचार चल रहा था.
लेकिन, 24 फरवरी को यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद यूरोपीय देशों और रूस के संबंध बदल गए. अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस से तेल और गैस की ख़रीद पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए.
अमेरिका ने रूस से होने वाले तेल, गैस और कोयले के आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की घोषणा की. इसके बाद, ब्रिटेन को इस साल के अंत तक रूस से होने वाले तेल की आपूर्ति को बंद करना है.
लेकिन, इस बीच ये बात भी उठने लगी कि यूरोपीय देश रूस से बड़ी मात्रा में प्राकृतिक गैस ख़रीदते हैं. उनकी रूस पर निर्भरता दूसरे देशों से कहीं ज़्यादा है.
इसके बाद रूस से प्राकृतिक गैस की निर्भरता करने के प्रयास होने लगे.
इसी के तहत जर्मनी भी अमेरिका, कनाडा और क़तर जैसे अन्य विकल्प तलाश रहा है.
लेकिन, क्या रूस पर निर्भरता ख़त्म करना संभव है और क़तर से हुए सौदे का इस पर क्या प्रभाव पड़ेगा.
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जर्मनी और रूस का रिश्ता पुराना
वैसे तो रूस यूरोपीय देशों को प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करता है लेकिन रूस और जर्मनी को जोड़ने वाली पाइप लाइन 'नॉर्ड स्ट्रीम-1 कभी दोनों देशों के बीच भरोसे का प्रतीक मानी गई.
इसे तैयार करने में तब 15 अरब डॉलर से ज़्यादा की लागत आई और इसका एक ही मक़सद था कि रूस की गैस आने वाले कई दशकों तक जर्मनी की अर्थव्यवस्था को गति देती रहे.
लेकिन, अब दोनों देशों के बीच टकराव होने से ना सिर्फ़ ऊर्जा ज़रूरतों की आपूर्ति पर सवाल खड़ा हो गया बल्कि इस पाइपलाइन का भविष्य भी अधर में लटक गया है.
जर्मनी में प्राकृतिक गैस की खपत की बात करें तो साल 2021 में देश में 100 अरब क्यूबिक मीटर्स गैस की खपत हुई थी.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक घरेलू स्तर पर और लघु उद्योगों में 40 प्रतिशत खपत होती है और बड़े उद्योग 60 प्रतिशत की खपत करते हैं.
जर्मनी में ऊर्जा के लिए प्राकृतिक गैस का 27 प्रतिशत इस्तेमाल होता है. रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने से पहले इस ज़रूरत का करीब 55 प्रतिशत जर्मनी रूस से आयात करता था.
जर्मनी में विपक्ष के नेता क्लॉस अर्नस्ट ने ट्वीट किया है, "सरकार क़तर के साथ हुए अपने सौदे का जश्न मना रही है. लेकिन, सच्चाई ये है कि ये 20 लाख टन एलएनजी जर्मनी की सिर्फ़ तीन प्रतिशत गैस ज़रूरत को पूरा करती है. रूस का अब भी कोई ठोस विकल्प नहीं मिल पाया है."
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लेकिन, विशेषज्ञों का कहना है कि जर्मनी ने रूस पर अपनी निर्भरता इतनी बढ़ा ली है कि उसके लिए उलटे क़दम लौटना बड़ा मुश्किल होने वाला है.
नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "पिछले 30 सालों का इतिहास उठाएँ तो जर्मनी ज़्यादातर गैस रूस से ले रहा था. उसके लिए वहाँ पाइपलाइन बनी हुई है. जर्मनी की रूस पर निर्भरता इतनी अधिक थी कि वो रूस के गैस को घरेलू गैस मानने लगे. वहां से गैस आना भी आसान था."
"लेकिन, यूक्रेन युद्ध के बाद उन्हें लगने लगा है कि रूस पर भरोसा नहीं किया जा सकता. रूस से ही सारी गैस लेना ऊर्जा रणनीति के हिसाब से ठीक नहीं है. नेटो के सारे देशों ने फ़ैसला किया ही है कि रूस से तेल नहीं लेंगे. 15 फरवरी के बाद जर्मनी जो रूस से गैस लेता है उसे कम कर देगा. इसलिए अब उन्हें नई जगह की तलाश शुरू कर दी है. वो कनाडा और अमेरिका से भी गैस ले रहे हैं."
बुनियादी ढाँचे का क्या करेगा जर्मनी
रूस से प्राकृतिक गैस आपूर्ति के लिए अरबों डॉल के ख़र्चे के बाद जर्मनी ने पाइपलाइन्स बनवाई थीं. इनसे जर्मनी सहित यूरोप के लिए रूस से गैस लेना आसान हो गया था.
लेकिन, अब इस पाइपलाइन के इस्तेमाल और भविष्य पर ख़तरा मँडरा रहा है.
नरेंद्र तनेजा बताते हैं- देखना होगा कि जर्मनी इस बुनियादी ढाँचे का क्या करता है. क्योंकि पाइपलाइन बनी हैं और अरबों डॉलर का निवेश है तो हो सकता है कि यूक्रेन युद्ध के बाद फिर से रूस के साथ गैस आपूर्ति शुरू कर दे.
वहीं, ऊर्जा विशेषज्ञ अरविंद मिश्रा मानते हैं कि महंगी प्राकृतिक गैस मिलने के चलते भी अंतरराष्ट्रीय स्थितियाँ शांत होने के बाद जर्मनी रूस का रुख़ कर सकता है.
वे कहते हैं, "जर्मनी को क़तर से ये गैस महंगी पड़ेगी क्योंकि रूस से आने वाली गैस के लिए पहले से ही बुनियादी ढाँचा तैयार है. नया लॉजिस्टिक ही उनको बहुत महंगा पड़ेगा. अभी तो वो राजनयिक दबाव बनाने के लिए भी ऐसा कर रहे हैं. तेल और गैस बाज़ार में रूस का दबदबा था. अब क़तर सस्ती दरों पर गैसे देने की कोशिश कर रहा है लेकिन ये उसके भी हित में नहीं है. ऐसे में क़तर जलवायु परिवर्तन या मानवाधिकारों जैसे मुद्दों पर छूट लेकर भरपाई चाहता है."
क़तर का विरोध भी, सौदा भी
क़तर में हो रहे फ़ीफ़ा विश्व कप में जापान से मैच के समय जर्मनी के फुटबॉल खिलाड़ियों ने फोटो सेशन के दौरान अपने हाथ से अपना मुंह ढँक लिया था.
वह क़तर में भेदभाव का विरोध करने के लिए 'वन लव’ आर्मबैंड पहनने को लेकर फ़ीफ़ा के कड़े रुख़ का विरोध कर रहे थे.
फ़ीफ़ा ने बैंड पहनने पर पीला कार्ड जारी करने की चेतावनी दी थी.
क़तर का ख़राब मानवाधिकार रिकॉर्ड और समलैंगिकता को अपराध बताने वाले क़ानूनों के कारण आलोचना होती रहती है.
वहीं, कतर पहुँची जर्मनी की एक मंत्री नैंसी फेज़र भी फ़ीफ़ा की चेतावनी का विरोध करती नज़र आईं.
उन्होंने बयान भी दिया था कि विश्व कप की मेज़बानी देने से पहले किसी देश के मानवाधिकार रिकॉर्ड का भी ध्यान रखा जाना चाहिए.
इस पर क़तर के विदेश मंत्रालय ने जर्मन राजदूत को तलब किया था. क़तर ने कहा था कि जर्मनी क़तर की आलोचना करके दोहरा रवैया अपना रहा है.
क़तर का कहना था कि उसे विश्व कप की मेज़बानी मिलने के बाद से पिछले 12 सालों से उसके ख़िलाफ़ व्यवस्थित अभियान चल रहा है.
इस तनातनी के बीच दोनों देशों में प्राकृतिक गैस के सौदे की ख़बर थोड़ा हैरान करने वाली है. सामने से चल रहे विवाद के पीछे हो रहा ये सौदा क्या दिखता है.
अरविंद मिश्रा का कहना है, "यूरोपीय देशों के लिए गैस बेहद अहम है क्योंकि उन्होंने गैस आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बहुत तेज़ी से क़दम बढ़ाया है. इन देशों ने ग्रीन एनर्जी या प्राकृतिक गैस की तरफ़ बढ़ने के लिए ऐसा किया. आज वो अपने इन हितों के चलते अन्य मसलों को भी दरकिनार कर रहे हैं."
वह कहते हैं, "वहीं, जर्मनी हो या अन्य यूरोपीय देश वो क़तर या दुनिया के किसी भी देश में मानवाधिकार पर ख़ुद को आक्रामक दिखाते हैं. जबकि उनके अपने देश में जब इसकी बात होती है तो ऐसे कई संगठन हैं जो उन मुद्दों को आगे नहीं लाते हैं. वो इसे राजनयिक दबाव के तरीक़े के तौर पर भी इस्तेमाल करते हैं."
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यूरोप पर असर
विभिन्न देशों से यूरोपीय संघ के देशों में जाने वाली प्राकृतिक गैस में रूस की हिस्सेदारी अभी लगभग 40% है. अगर यह स्रोत बंद हो जाता है, तो इटली और जर्मनी खासतौर से मुश्किल में घिर जाएँगे.
उसके बाद यूरोप गैस के मौजूदा निर्यातकों जैसे क़तर, अल्जीरिया या नाइजीरिया का रुख़ कर सकता है. हालांकि तेज़ी से उत्पादन बढ़ाने के रास्ते में कई व्यावहारिक बाधाएँ हैं.
रूस से अभी ब्रिटेन में गैस की 5 प्रतिशत आपूर्ति होती है. वहीं, अमेरिका फ़िलहाल रूस से बिल्कुल भी गैस नहीं मंगवाता.
जर्मनी के इस समझौते के बाद यूरोप के लिए एक और विकल्प खुलेगा, लेकिन छोटे देशों के लिए महंगी गैस ख़रीदना मुश्किल होगा.
विशेषज्ञ कहते हैं कि यूरोपीय संघ में तो डेनमार्क, फ़िनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे और स्वीडन ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि बड़े देशों की सौदेबाज़ी और अड़ियल रवैए का ख़ामियाजा वो क्यों भुगतें.
रूस के पास विकल्प
जहाँ यूरोपीय देश रूस पर निर्भर हैं, तो वहीं रूस भी अपनी अर्थव्यवस्था के लिए यूरोपीय देश में जा रहे तेल और प्राकृतिक गैस पर निर्भर है.
रूसी कंपनी गैज़प्रॉम यूरोप को प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करती है. ये कई सहायक कंपनियों को भी नियंत्रित करती है.
रूस यूरोप को होने वाली गैस आपूर्ति से अरबों डॉलर कमाता है.
सेंटर फ़ॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के एक डेटा के मुताबिक़ यूक्रेन पर रूसी हमले के दो महीनों के अंदर रूस ने यूरोप में ईंधन की बिक्री से 46.3 अरब डॉलर (करीब 37 खरब रुपए) कमाए थे.
अब जब संबंध ख़राब हो रहे हैं, तो रूस भी अपने लिए विकल्प तलाश रहा है.
अरविंद मिश्रा कहते हैं, "रूस अपनी गैस पाइपलाइन के माध्यम से चीन, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका को प्राकृतिक गैस बेचता है. हालाँकि, पिछले चार महीने से भारत में गैस नहीं आई है. रूस को नए बाज़ार ढूंढने होंगे. ये उतना मुश्किल काम नहीं है लेकिन ये है कि जिस तरह पश्चिम के देशों और जी7 ने प्रतिबंध लगाए हैं उसमें दिक्कतें ज़रूर आएंगी. पर दुनिया में 80 फ़ीसदी देशों की निर्भरता आयातित गैस पर है तो रूस के लिए विकल्प इतने भी कम नहीं होंगे."
वहीं, विशेषज्ञ जर्मनी के इस सौदे से प्राकृतिक गैस की क़ीमतें बढ़ने की आशंका भी जताते हैं.
उनका कहना है कि भारत जैसे देश जो कतर से प्राकृतिक गैस ख़रीदते हैं. उन्हें आपूर्ति में मुश्किलें आने वाली हैं.
क़तर ने जर्मनी के साथ सौदे से पहले चीन के साथ भी प्राकृतिक गैस आपूर्ति के लिए 27 सालों का अनुबंध किया है.
नरेंद्र तनेजा कहते हैं, "क़तर अन्य देशों को भी प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करता है, जिसमें भारत भी है. उन देशों के लिए चुनौती ये आ जाएगी कि आने वाले समय में गैस की क़ीमतें बढ़ेंगी. क़तर के लिए गैस उत्पादन में तुरंत तेज़ी लाना आसान नहीं होगा. साथ में ये भी हो सकता है कि ये देश क़तर से जितनी गैस लेते थे उसमें भी परेशानी हो."
फिलहाल जर्मनी का ध्यान रूस पर अपनी निर्भरता कम करने पर है और इन बदलते तेल एवं गैस व्यापार संबंधों के बीच कौन कहाँ बैठेगा इसके लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा.
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