India-China के बीच मीटिंग का जो मौका डोनाल्ड ट्रंप ने गंवाया, पुतिन ने उसे इस मकसद से हथिया लिया
नई दिल्ली। पिछले दिनों मॉस्को में भारत-चीन के बीच पूर्व लद्दाख में जारी टकराव को खत्म करने के लिए दो बड़े मंच तैयार हुए। शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) सम्मेलन से अलग भारत और चीन के रक्षा और विदेश मंत्रियों की मुलाकात हुई। रूस जो यह कह चुका था कि एससीओ सम्मेलन को द्विपक्षीय मुद्दों का अखाड़ा न बनाए जाए, वहां पर टकराव को खत्म करने के लिए एक जमीन तैयार करना अपने आप में असाधारण नजर आता है। भारत और चीन के बीच जारी टकराव में रूस बराबर सक्रिय है। तटस्थ रहते हुए उसकी तरफ से आए बयानों से साफ है कि वह न तो चीन को नाराज करना चाहता और न ही अपने पुराने रणनीतिक साझीदार भारत को नजरअंदाज कर सकता है। आखिर ऐसा क्या है जो अब भारत-चीन सीमा विवाद में रूस एक तीसरे देश की तरह नजर आने लगा है।
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दक्षिण एशिया में रूतबा हासिल करने की कोशिश
हांगकांग से निकलने वाले अखबार साउथ चाइना मॉर्निग पोस्ट एक आर्टिकल की मानें तो रूस कहीं न कहीं दक्षिण एशिया में खो चुकी अपनी जमीन को हासिल करने का ख्वाहिशमंद है। रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव की तरफ से भारत और चीन के बीच जारी तनाव के दौरान हुई मीटिंग्स पर बड़ा बयान दिया गया था। लावरोव ने कहा था, 'चीन और भारत दोनों ही बहुत ही उपयोगी देश हैं और ऐसी मीटिंग के जरिए बॉर्डर पर स्थिरता का मकसद है।' हालांकि विशेषज्ञ अभी तक इस बात को लेकर सशंय में हैं कि इन मीटिंग्स के जरिए कोई नतीजा शायद ही निकले। दोनों देशों के सैनिक लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) में कुछ ही मीटर की दूरी पर हैं। दोनों देशों के करीब एक लाख सैनिक इस समय बॉर्डर पर बस फायरिंग रेंज की दूरी पर है।
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सोवियत संघ वाला रूस बनने की चाहत
विशेषज्ञों की मानें तो रूस की भारत-चीन वार्ता में रूचि दक्षिण एशिया में खोई जमीन को हासिल करने की कोशिशें जोड़कर देखी जा सकती हैं। मॉस्को स्थित रशियन एकेडमी ऑफ साइंसेज जो एक एनजीओ उसके साथ जुड़े एलेक्सी कुप्रियानोव कहते हैं, 'दक्षिण एशिया में रूस की वापसी को कई वजहों के तहत रखकर देखा जा सकता है।' उनका कहना है कि जो वजह सबसे अहम है वह है कि रूस अब साउथ एशिया की बड़ी राजनीति में सक्रिय वापसी करने की चाह रखता है। रूस फिर से अपने उसी प्रभाव को हासिल करने की चाह रखना चाहता है जो 80 और 90 के दशक में था जब अफगानिस्तान में उसकी फौज दाखिल हुई थी। यहां से सोवियत संघ का पतन हुआ और फिर एक बड़े आर्थिक संकट की भी शुरुआत हुई।
ट्रंप चूक गए थे बड़ा मौका
साल 2000 में जब से रूस की सत्ता राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के हाथों में आई है तब से ही देश की ताकत में कमी आती जा रही है। रूस इस समय पश्चिमी एशिया और अफ्रीका में अपने प्रभाव को फिर से हासिल करने की कोशिशों में लगा हुआ है। लेकिन उसका सारा ध्यान दक्षिण एशिया की राजनीति पर है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपने चीनी समकक्ष वांग वाई से जो मुलाकात मॉस्को में की है, उसे एक हाई-प्रोफाइल राजनयिक जीत के तौर पर देखा जा रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो जहां अमेरिका चीन और भारत के बीच मध्यस्थता करने में चूक गया तो पुतिन ने इस मौके को बड़ी चालाकी से हथिया लिया। आपको बता दें कि भारत और चीन दोनों ने ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मध्यस्थता की पेशकश को सिरे से खारिज कर दिया था।
भारत हमेशा रहेगा सच्चा साथी
रूस की सीमाएं पुतिन के उस सपने को पूरा कर सकती हैं, जो उन्होंने दशकों पहले देखा था। चीन और भारत को अपने साथ लाकर पुतिन का विशाल यूरेशिया का सपना पूरा हो सकता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इस वजह से ही रूस मानता है कि भारत और चीन दोनों ही उसके लिए बहुत अहम हैं। रूस इस समय चीन और भारत के अलावा बांग्लादेश, नेपाल और यहां तक की पाकिस्तान के साथ भी संपर्क बनाए हुए है। लेकिन रूस जानता है कि दक्षिण एशिया में उसकी मौजूदगी भारत से ही शुरू होती है और इस पर ही खत्म होती है। रूस और पाकिस्तान के साथ अगर संबंध बढ़े हैं तो वह अमेरिका और भारत के बीच करीबी रिश्तों का जवाब थे। रूस आज भी भारत को अपना भरोसेमंद साथी मानता है और वह हमेशा उसे एक प्राकृतिक साझीदार के तौर पर देखेगा।