कभी अमरीका की आंखों का तारा पाकिस्तान क्यों हुआ पराया
अमरीका पाकिस्तान से यह उम्मीद करता है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान पर यह दबाव भी डाले कि वह अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत की मेज़ पर आए.
अमरीका का कहना है कि पाकिस्तान के अंदर से काम करने वाले चरंपंथी और आतंकी गुटों से अमरीका को लगातार ख़तरा बना हुआ है.
न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन में 11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद से अमरीका के लिए विदेश नीति के हिसाब से पाकिस्तान की अहमियत अधिक बढ़ गई थी.
उन हमलों के बाद 2002 में अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी हमले के ज़रिए तालिबान की हुकूमत को उखाड़ फेंका गया और तब से वहां अमरीकी सैन्य अभियान जारी है.
पिछले 70 सालों में पाकिस्तान के साथ अमरीका के रिश्तों में उतार चढ़ाव आते रहे हैं, लेकिन पिछले 18 वर्षों में विभिन्न अमरीकी सरकारों का यह मानना रहा है और मौजूदा सरकार का भी है कि अफ़ग़ानिस्तान में शांति कायम करने के लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान की मदद ली जाए.
लेकिन मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के पाकिस्तान के बारे में सख़्त बयानों से दोनों देशों के बीच तनाव सबसे अधिक बढ़ा है.
राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा था कि "पाकिस्तान में हर किसी को पता था कि ओसामा बिन लादेन सैन्य अकादमी के क़रीब ही रहता है, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया. हम उन्हें 1.3 अरब डॉलर हर वर्ष आर्थिक मदद दे रहे हैं. हमने अब यह मदद बंद कर दी है क्योंकि वह हमारे लिए कुछ नहीं करते."
इससे पहले जनवरी 2018 में भी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने कहा था कि "अमरीका ने 15 वर्षों में पाकिस्तान को 33 अरब डॉलर बतौर आर्थिक मदद दे कर बेवकूफ़ी की थी. उन्होंने हमें सिवाय झूठ और धोखे के कुछ नहीं दिया."
सैन्य और आर्थिक मोर्चे पर अमरीकी मदद
इसके जवाब में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा कि अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में अपनी नाकामियों की ज़िम्मेदारी पाकिस्तान पर डालने की कोशिश न करे.
सिर्फ़ बयानों तक ही नहीं बल्कि राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान की तकरीबन सारी आर्थिक मदद भी रोक दी है.
अमरीका का कहना है कि पाकिस्तान जब तक तालिबान, हक्कानी नेटवर्क और लश्कर-ए-तैयबा जैसे चरमपंथी गुटों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करता और उन्हें पनाह देना बंद नहीं करता तब तक आर्थिक मदद नहीं दी जाएगी.
लेकिन अमरीका ने पाकिस्तान को अब तक कितनी और कैसी आर्थिक मदद दी इस पर एक नज़र डालते हैं.
पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही अमरीका ने आर्थिक और सैन्य मदद देने की शुरुआत कर दी थी.
1950 से 1964 के बीच जब अमरीका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध जारी था तब अमरीका के सरकारी आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान को 1954 के एक सुरक्षा समझौते के तहत करीब 2.5 अरब डॉलर की आर्थिक मदद और 70 करोड़ डॉलर सैन्य मदद के तौर पर दिए गए.
- इमरान को ट्रंप का बड़ा झटका, करोड़ों की मदद रद्द
- पाकिस्तान की आर्थिक तंगहाली के लिए कौन ज़िम्मेदार है?
पैकेज का कैसे इस्तेमाल करता था पाकिस्तान?
अमरीका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी कहते हैं कि अमरीका को हमेशा यह चिंता रहती थी कि पाकिस्तान अमरीका से मिलने वाली सैन्य मदद को कैसे प्रयोग करता है.
हुसैन हक्कानी कहते हैं, "1954 के बाद से ही कई अमरीकी राष्ट्रपति भी इस बात पर बहस करते रहे थे कि पाकिस्तान को जो भी फ़ौजी मदद दी जाती है उसका रुख हमेशा भारत की ओर मोड़ा जाता है."
हुसैन हक्कानी कहते हैं कि पाकिस्तान की फ़ौज ने अमरीकी सैन्य मदद का फ़ायदा उठाते हुए भारत के ख़िलाफ़ सैन्य तैयारी में अधिकतर अमरीकी मदद लगाई गई.
1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के कारण अमरीका थोड़ा पीछे हटा और पाकिस्तान को 1965 और 1971 के बीच सैन्य मदद के तौर पर सिर्फ़ 2 करोड़ 60 लाख डॉलर दिए.
इसके बाद 1970 के दशक के अंत तक आते आते अमरीका से सैन्य मदद में कटौती होकर सिर्फ़ 29 लाख डॉलर हो गई थी.
लेकिन इस दौरान भी आर्थिक मदद जारी रही और 1965 से 1979 के बीच अमरीका ने पाकिस्तान को दो अरब 55 करोड़ डॉलर की आर्थिक मदद दी.
1979 में पाकिस्तान में सैन्य शासक जनरल ज़ियाउलहक की हुकूमत थी, उस समय अमरीका में राष्ट्रपति जिमी कार्टर को पाकिस्तान में एक यूरेनियम संवर्धन सुविधा का पता चला और उन्होंने पाकिस्तान को दी दाने वाली सारी सैन्य और आर्थिक मदद रोक दी.
फिर उसके बाद 1979 में ही जब अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ ने कब्ज़ा किया तो सारे हालात बदल गए.
रूस के ख़िलाफ़ पाकिस्तान का इस्तेमाल
अमरीका ने सोवियत फ़ौजों के ख़िलाफ़ लड़ने में अफ़ग़ान लोगों की मदद करने के लिए पाकिस्तान को अपना अहम साथी बनाया.
उसी के साथ पाकिस्तान को बड़े पैमाने पर अमरीकी सैन्य और आर्थिक मदद मिलना शुरू हो गई.
अमरीका की डेलवेयर यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि इसी दौर में पाकिस्तान को अमरीका के सहयोगी के तौर पर अपनी अहमियत का भी अंदाज़ा हुआ.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं, "सोवियत यूनियन की फ़ौजों को अफ़ग़ानिस्तान में पीछे धकेलने के लिए अमरीका पाकिस्तान और सऊदी अरब ने एक गठबंधन बनाया, जिसके तहत अफ़ग़ान मुजाहिदीन की मदद की गई. पाकिस्तानी सेना की खुफ़िया एजेंसी आई एस आई ने इसके लिए अमरीका से धन और हथयार लिए, और अफ़ग़ान मुजाहिदीन को प्रशिक्षण भी दिया."
"इस गठबंधन के नतीजे में पाकिस्तान को यह पता लग गया कि वह अपनी सामरिक स्थिति का फ़ायदा उठाकर अमरीका और सऊदी अरब जैसे देशों से धन के साथ साथ सैन्य साज़ो सामान की नई तकनीक भी हासिल कर सकता है."
1979 से 1990 के बीच में अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ाई के लिए अफ़ग़ान मुजाहिदीन को पाकिस्तान के ज़रिए मदद के लिए आईएसआई को मुख्य ज़रिया बनाया.
इस तरह अमरीका ने 1980 और 1990 के बीच में पाकिस्तान को सैन्य और आर्थिक मदद के तौर पर 5 अरब डॉलर से अधिक दिए.
कई जानकार यह भी कहते हैं कि उस दौरान अमरीका ने पाकिस्तान को अरबों डॉलर की ऐसी रकम भी भेजी जिसका कोई हिसाब किताब भी नहीं है.
उस दौर में अमरीका से मिलने वाली अधिकतर सैन्य मदद में पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान समेत कई उच्च तकनीक के सैन्य साज़ो सामान आसानी से मिलते रहे.
फिर आया कश्मीर का मसला
लेकिन 1990 में सोवियत फ़ौज के अफ़ग़ानिस्तान से निकलने के बाद पाकिस्तान को मिलने वाली अमरीकी मदद में भारी कटौती की गई.
1990 और 2000 के बीच में अमरीका ने पाकिस्तान को सैन्य मदद के तौर पर सिर्फ़ 52 लाख डॉलर दिए और आर्थिक मदद के तौर पर करीब 40 करोड़ डॉलर दिए गए.
पाकिस्तान उस दौरान अमरीका के पल्ला झाड़ लेने से काफ़ी नाराज़ हुआ था, कि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं.
लेकिन 1990 के आसपास ही भारत-प्रशासित कशमीर में भी हिंसा का दौर शुरू हो गया.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं, "जिस तरह पाकिस्तान ने अफ़ग़ान लोगों को सोवियत के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए तैयार किया था, अब उसी तकनीक का प्रयोग कर पाकिस्तान ने भारत-प्रशासित कशमीर में भी चरंपंथियों की मदद शुरू कर दी."
इसी दौर में तालिबान ने पाकिस्तान की मदद से अफ़ग़ानिस्तान में अपनी हुकूमत कायम की. और अब वही लोग जो पहले सोवियत फ़ौज के ख़िलाफ़ मुजाहिदीन के तौर पर अमरीकी विदेश नीति के लिए फ़ायदेमंद थे, अब अमरीका को खटकने लगे.
9/11 के बाद फिर बदले हालात लेकिन...
फिर 2001 में अमरीका के ख़िलाफ़ 11 सितंबर के आतंकी हमलों के बाद दुनिया बदल गई. अब आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में पाकिस्तान अमरीका का सहयोगी बन गया.
2001 और 2009 के बीच अमरीका ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए पाकिस्तान को 9 अरब डॉलर की सैन्य मदद दी और आर्थिक मदद के तौर पर करीब साढ़े 3 अरब डॉलर अलग दिए.
लेकिन पाकिस्तान ने अमरीका की मदद तो ले ली उसके बदले में उस तरह काम नहीं किया जैसे अमरीका चाहता था. बल्कि यह भी आरोप लगे कि पाकिस्तान ने अमरीकी आर्थिक मदद की इसी रकम में से तालिबान और अन्य चरमपंथी गुटों को भी मदद पहुंचाई.
हुसैन हक्कानी कहते हैं, "2001 के बाद से जो अमरीकी आर्थिक और सैन्य मदद पाकिस्तान को मिली उसके बदले में कुछ वर्षों तक परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में तो तालिबान के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई लेकिन जब तालिबान पाकिस्तान में मसला बनना शुरू हुए तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई रोक दी गई."
2008 में ऐसी खबरें भी आईं कि अमरीका ने पाकिस्तान को 5 अरब डॉलर से अधिक जो सैन्य मदद दी उसका 70 प्रतिशत तो ग़लत तरीके से खर्च किया गया.
कहा जाता है कि इसमें फ़ौज के अधिकारियों द्वारा 3 अरब डॉलर से अधिक की सैन्य मदद को ग़लत तरीके से खर्च किया गया.
अमरीकी मदद का उपयोग भारत के ख़िलाफ़
2009 और 2014 के बीच अमरीका ने पाकिस्तान को 8 अरब डॉलर की मदद दी लेकिन यह शर्त भी रख दी कि अगर आतंकियों के ख़िलाफ़ पाकिस्तान ने कार्रवाई नहीं की तो यह सहायता रोक दी जाएगी.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान मानते हैं कि पाकिस्तान ने अमरीकी सहायता का बड़ा हिस्सा भारत के ख़िलाफ़ सैन्य तैयारी में भी लगाया.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं,"पिछले 17 साल में पाकिस्तान ने आतंकवाद से लड़ने के बजाए अधिकतर अमरीकी सैन्य सहायता को भारत के ख़िलाफ़ सैन्य तैयारी में लगा दिया. इसलिए अमरीका का पाकिस्तान को वह आर्थिक और सैन्य मदद देना बेकार ही गया. और इसका अंदाज़ा अमरीका को तब हुआ जब अलक़ायदा का सरगना पाकिस्तान के ऐबटाबाद में ही छुपा पाया गया."
हुसैन हक्कानी कहते हैं कि पाकिस्तान तो हमेशा से अमरीकी मदद का उपयोग भारत के ख़िलाफ़ ही करता रहा, "चाहे वह 1965 की जंग हो, 71 की जंग हो, चाहे वह करगिल हो या उसके बाद, भारत की सीमा पर पाकिस्तान की जितनी भी सैन्य तैयारी है वह बड़ी हद तक उसी साज़ो सामान से होती है जो उसे मदद के तौर पर अमरीकी से मिलता है."
2001 के बाद से ही अमरीका इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि पाकिस्तान को चरंपंथी गुटों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी होगी लेकिन अब लगता है अमरीका के लिए सर से पानी ऊपर हो चुका है. और इस बारे में राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप कोई लाग लपेट रखे बगैर पाकिस्तान को खरी खोटी सुनाते रहे हैं.
अमरीका से कितनी आर्थिक मदद मिली?
हुसैन हक्कानी कहते हैं कि अमरीका अब पाकिस्तान के साथ धीरज खोता जा रहा है, "पाकिस्तान ने अब तक अफ़ग़ान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के ख़िलाफ़ कोई कदम नहीं उठाए. लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे चरमपंथी संगठन जो भारत में कार्रवाईयां करते हैं उन गुटों को भी नहीं बंद किया गया. इसके अलावा अब दक्षिण एशिया में अमरीका की प्राथमिक्ताएं भी बदल चुकी हैं."
"अमरीका अब भारत को असल सहयोगी समझता है. और पाकिस्तान के बारे में इतनी बार शक पैदा हो चुका है कि अब अमरीका उस पुराने दौर की तरफ़ जाने को तैयार नहीं है जिसमें अमरीका पाकिस्तान की नीतियों के फ़र्क को नज़रआंदाज़ करके आर्थिक मदद जारी रखता था."
पाकिस्तान को अमरीका से अब तक कुल 80 अरब डॉलर की आर्थिक मदद मिली है.
2001 से 2017 तक अमरीका ने पाकिस्तान को 33 अरब डॉलर की सैन्य और आर्थिक मदद दी जिनमें आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में खर्चा भी शामिल है.
अमरीकी मदद रुकने से क्या परेशानी होगी?
मगर अब अमरीका से आर्थिक और सैन्य मदद रुक जाने के बाद पाकिस्तान को किस प्रकार की मुश्किलें पेश आ सकती हैं?
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि पाकिस्तान को पहले से ही नकदी की कमी की बड़ी समस्या का सामना है, और ऐसे में अमरीकी मदद न मिलने से उसके पास सिवाय चीन और दूसरे दोस्त देशों से आर्थिक सहायता लेने के कोई और चारा नहीं होगा.
पूर्व पाकिस्तानी दूत हुसैन हक्कानी का मानना है कि अमरीकी मदद के बगैर पाकिस्तान की सेना और हुकूमत दोनों को मुश्किल होगी.
हुसैन हक्कानी कहते हैं, "अमरीकी आर्थिक और सैन्य मदद बंद हो जाने के बाद पाकिस्तान को दो प्रकार की मुश्किलें होंगी. एक तो उसकी सैन्य क्षेत्र में महंगे साज़ो सामान नकद ख़रीदने में मुश्किल के कारण उसकी सेना के रखरखाव में मुश्किल होगी, और दूसरा यह भी कि पाकिस्तान में करेंसी रिज़र्व पहले ही कम हैं अब उसके लिए इस करेंसी रिज़र्व को बहाल रखना आसान नहीं होगा."
लेकिन हुसैन हक्कानी और प्रोफ़ेसर ख़ान यह भी कहते हैं कि आने वाले महीनों में अमरीका और पाकिस्तान के बीच रिश्तों में बेहतरी आने की भी कोई उम्मीद नज़र नहीं आती.
पाकिस्तान गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है और ऐसे में अमरीकी आर्थिक मदद का रुक जाना उसके लिए और मुश्किलें पैदा कर सकता है.
इमरान के पश्चिम विरोधी बयान
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने तो हाल ही में अमरीकी मदद रुकने के बारे में यह कहा कि अच्छा है कि अमरीका की आर्थिक मदद से अब पाकिस्तान का पीछा छूट गया.
लेकिन जानकार मानते हैं कि बगैर अमरीकी मदद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से पाकिस्तान को एक भी एक ढेला नहीं मिलेगा.
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि इमरान ख़ान की चुनावी जीत के बाद से अमरीका में पाकिस्तान के प्रति रुख अधिक सख़्त हुआ है.
"अमरीका में सरकारी सतह पर और बुद्धिजीवियों में बहुत से लोग इमरान ख़ान को अमरीका विरोधी मानते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि एक तो इमरान ख़ान के पश्चिम विरोधी बयान और उसके साथ लश्कर का हाफ़िज़ सईद हो या हक्कानी नेटवर्क के साथ आईएसआई के संबंध हों इन सबके कारण भी अब तो पाकिस्तान की सेना के साथ अमरीकी सेना के भी संबंध अच्छे नहीं रह गए."
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि अब अमरीका को लगता है कि पाकिस्तान को आर्थिक मदद दिए जाने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि अमरीका को उसके बदले में पाकिस्तान से कुछ हासिल नहीं होता है.
अमरीका का पाकिस्तानी सेना से लगाव
वैसे अमरीकी सेना की अब भी यह कोशिश है कि पाकिस्तानी सेना के साथ संबंध बेहतर बने रहें. जानकार कहते हैं कि इसके दो कारण हैं.
एक तो अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी फ़ौजियों के लिए रसद और दूसरी सप्लाई पाकिस्तान से ही होकर जाती है.
दूसरा पाकिस्तान के परमाणु हशियारों के प्रसार के बारे में भी अमरीकी सेना को चिंता है.
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को हाल में ही एक पत्र लिखकर अफ़ग़ानिस्तान में शांति कायम करने के लिए पाकिस्तान से मदद की अपील की है.
आखिर क्या चाहता है अमरीका?
अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के अनुसार 2015 से अब तक 28 हज़ार अफ़ग़ान फ़ौजी और पुलिसकर्मी मारे गए हैं. और 2001 से अब तक 2200 अमरीकी फ़ौजी भी मारे जा चुके हैं.
अमरीका पाकिस्तान से यह उम्मीद करता है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान पर यह दबाव भी डाले कि वह अफ़ग़ान सरकार के साथ बातचीत की मेज़ पर आए.
अमरीका का कहना है कि पाकिस्तान के अंदर से काम करने वाले चरंपंथी और आतंकी गुटों से अमरीका को लगातार ख़तरा बना हुआ है.
और अमरीका यह कहता रहा है कि पाकिस्तान आतंकी गुटों को पनाह देना बंद करे.
राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप से पहले भी कई अमरीकी राष्ट्रपति पाकिस्तान के साथ इस तरह की कोशिशें कर चुके हैं, मगर अभी तक इस सिलसिले में कामयाबी मिलती नहीं दिखी है.