डूबने की कगार पर खड़ा मालदीव सुलग क्यों रहा है?
मालदीव में निरंकुश शासन, तख़्तापलट और न्यायपालिका से टकराव का लंबा इतिहास रहा है.
हिंद महासागर में श्रीलंका के पास मूंगे से बने 1200 ख़ूबसूरत द्वीपों से बना है छोटा सा देश- मालदीव.
नीले समंदर से घिरे सफ़ेद रेत के किनारों वाले द्वीप पूरी दुनिया के पर्यटकों को अपनी ओर खींचते रहे हैं. लेकिन आज पूरी दुनिया की निगाहें यहां जारी राजनीतिक उठापटक पर टिकी हुई हैं.
पहले तो 30 साल तक मोमून अब्दुल गयूम विपक्ष की ग़ैरमौजूदगी के ही यहां राज करते रहे. फिर 2008 में नया संविधान बना तो उम्मीद जगी थी कि प्रजातंत्र की स्थापना होगी.
लेकिन 10 साल बीत जाने के बाद भी यहां लोकतंत्र अपनी जड़ें नहीं जमा पाया है. राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने आपातकाल लगा दिया है.
ऐसे पैदा हुए ताज़ा संकट
दरअसल मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया, जिसमें विपक्ष के नेताओं पर चले मुक़दमों को अवैध बताते हुए उन्हें रिहा करने के लिए कहा गया था.
ऑपरेशन कैक्टसः जब मालदीव पहुंची थी भारतीय सेना
'भारत मालदीव मामले में दखल दे'
तेज़ी से बदलते घटनाक्रम के बीच यामीन प्रशासन ने न सिर्फ़ आपातकाल की घोषणा कर दी, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी गिरफ़्तार कर लिया. मगर उन्हें ऐसा करने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
इंस्टिट्युट फ़ॉर डिफ़ेंस स्टडीज़ एंड एनालिसिस के प्रोफ़ेसर एसडी मुनि बताते हैं, "संसद में यामीन के पास पर्याप्त बहुमत नहीं है. इसी कारण उन्होंने 10-15 सांसदों को हटा दिया था. मगर अदालत के फ़ैसले के बाद इन्हें बहाल कर दिया जाए तो यामीन के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाएगा."
अस्थिरता का इतिहास
अभी तो यामीन अपनी सत्ता बचाना चाहते हैं, लेकिन मालदीव में राजनीतिक अस्थिरता का लंबा इतिहास है. 1965 में ब्रिटेन से आज़ादी मिलने के बाद शुरू में यहां राजशाही रही और नवंबर 1968 में इसे गणतंत्र घोषित कर दिया गया.
इब्राहिम नासिर देश के पहले राष्ट्रपति बने थे. 1972 में अहमद ज़की को प्रधानमंत्री चुना गया था लेकिन 1975 में तख़्तापलट हुआ और उन्हें एक द्वीप पर भेज दिया गया.
बाद में देश की आर्थिक हालत ख़राब हुई तो राष्ट्रपति नासिर 1978 में सरकारी खज़ाने के लाखों डॉलर्स के साथ सिंगापुर चले गए.
इसके बाद सत्ता मिली मोमून अब्दुल गयूम को जो अगले 30 सालों तक सत्ता में बने रहे. उनके ख़िलाफ़ भी तख्तापलट की तीन कोशिशें हुईं, जिनमें से एक को भारत ने अपने सैनिक भेजकर नाकाम किया था.
गयूम बिना विपक्ष के ही शासन करते रहे मगर उनके शासनकाल के आख़िरी हिस्से में राजनीतिक आंदोलनों ने रफ़्तार पकड़ ली. 2003 में एक पत्रकार मोहम्मद नशीद ने मालदीवियन डेमोक्रैटिक पार्टी का गठन किया और गयूम प्रशासन पर राजनीतिक सुधारों के लिए दबाव बनाया.
2008 में मालदीव में नया संविधान बना और पहली बार सीधे राष्ट्रपति के लिए चुनाव हुए. इस चुनाव में मोहम्मद नशीद की जीत हुई और गयूम सत्ता से बाहर हो गए. प्रोफ़ेसर एसडी मुनि बताते हैं कि यहीं सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो गया.
पर्यटन उद्योग पर वर्चस्व की जंग
प्रोफ़ेसर एसडी मुनि बताते हैं कि मालदीव के संकट को समझना है तो वहां के आर्थिक और राजनीतिक हालात को समझना पड़ेगा.
वह कहते हैं, "नशीद के आने के बाद उन्हें हटाने की कोशिश शुरू हो गई. यह आंतरिक सत्ता संघर्ष यहां के पर्यटन उद्योग पर आधारित है. नशीद ने पर्यटन क्षेत्र की नीतियों में बदलाव लाने की कोशिश की थी. पुराने राष्ट्रपति (गयूम) को लगा कि इससे उनके और उनके क़रीबियों के हित प्रभावित होंगे. वहीं से नशीद को हटाने की कोशिशें शुरू हो गईं."
"नशीद के कुछ ब्रितानी सलाहकर थे. नशीद ने अमरीका और ब्रिटेन को भी हिंद महासागार में प्रवेश देने की कोशिश की. इससे मालदीव के कुछ वर्ग नाराज़ हो गए. तभी से यह उठापटक चल रही है."
नशीद को सत्ता से हटाना
नशीद को राष्ट्रपति बने तीन साल ही हुए थे कि 2011 में विपक्ष ने अभियान छेड़ दिया. फ़रवरी 2012 में पुलिस और सेना के बड़े हिस्से में विद्रोह के बाद मोहम्मद नशीद को प्रतिकूल हालात में इस्तीफ़ा देना पड़ा.
एसडी मुनि बताते हैं, "जजों ने कुछ फ़ैसले दिए जो नशीद को पसंद नहीं आए. उन्होंने जजों के ख़िलाफ़ उंगली उठाई तो गयूम और उनके साथियों ने जजों का समर्थन किया. फिर न्यायपालिका की बात करते हुए मुद्दा बनाया. बाद में नशीद को एक कमरे में सुरक्षा बलों ने घेर लिया और उनसे कहा गया कि आप इस्तीफ़ा दे दीजिए. यह प्रदर्शन ऐसा नहीं था कि जनता उनके ख़िलाफ़ उठ गई हो और इसलिए नशीद को हटना पड़ा हो."
इसके बाद 2013 में चुनाव हुए तो पहले दौर में नशीद को ज़्यादा वोट मिले, मगर अदालत ने उन्हें अवैध घोषित कर दिया. दूसरे दौर में पूर्व राष्ट्पति गयूम के सौतेले भाई अब्दुल्ला यामीन को जीत मिली जो आज भी राष्ट्रपति हैं.
यामीन के विवादास्पद क़दम
प्रोफ़ेसर एसडी मुनि बताते हैं कि यामीन के सत्ता में आने के बाद नशीद पर कई मुक़दमे चलाए गए और सज़ा भी सुनाई गई.
"नशीद के ऊपर यामीन के सत्ता में आने के बाद कई गंभीर आरोप लगाए गए. उनके ऊपर आतंकवाद औऱ न्यायपालिका के काम में दख़ल के आरोप लगा गए और जेल भेजा गया. किसी तरह मेडिकल ट्रिप के लिए वह लंदन निकले, तभी से निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं क्योंकि उनके ख़िलाफ़ अभी भी मालदीव में कई मुकदमे हैं."
धीरे-धीरे अब्दुल्ला यामीन सत्ता पर पकड़ मजबूत करते गए और इसी कोशिश में वह निरंकुशता की तरफ बढ़ गए. जेएनयू के सेंटर फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़ की प्रोफ़ेसर सविता पांडे बताती हैं कि मालदीव में अस्थिरता का दौर तो तभी शुरू हो गया था जब मोहम्मद नशीद को हटाने के लिए लोकतंत्र को ताक पर रख दिया गया था.
वह बताती हैं, "यामीन ने वक्त के साथ-साथ उप-राष्ट्रपति और रक्षा मंत्री तक को हटा दिया. अंतरराष्ट्रीय जगत से कड़ी प्रतिक्रिया आने के बावजूद इन्होंने ऐसा किया. न्यायपालिका से भी इन्होंने टक्कर ली."
अब यामीन ख़ुद संकट में कैसे?
क्या अभी मालदीव में चल रहा राजनीतिक गतिरोध वैसा ही सत्ता संघर्ष है जैसा नशीद को हटाने के समय हुआ था? ऐसा कहा जाता है कि उस समय नशीद को हटाकर यामीन को सत्ता में लाने में पूर्व राष्ट्रपति गयूम की भी भूमिका रही थी. तो अब यामीन के लिए मुश्किलें क्यों खड़ी हो रही हैं?
एसडी मुनि बताते हैं, "मालदीव की पॉलिटिकल इकॉमनी को समझना ज़रूरी है, अगर यहां की राजनीतिक अस्थिरता को समझना है. यामीन को लाने में गयूम का हाथ रहा है. मगर अब यामीन ने गयूम के बेटे पर आरोप लगाए हैं. गयूम अब यामीन की पार्टी से अलग धड़े में हैं. तो एक तरह से यह परिवार का भी झगड़ा है. यामीन और गयूम में विवाद पैदा हो गया है."
लोकतंत्र की कमज़ोर बुनियाद
प्रोफ़ेसर सविता पांडे मानती हैं मालदीव में लोकतंत्र की बुनियाद ही कमज़ोर पड़ी है और इसी कारण यहां पर राजनीतिक स्थिरता नहीं आ रही है.
वह कहती हैं, "दिक्क़त है कि इन देशों में लोकतंत्र का चलन नहीं है. गयूम के लंबे राज के बाद जब लोकतांत्रिक सरकार बनी थी, वह इतने कम समय तर रही कि आंतरिक प्रणाली ही कमज़ोर हो गई. लोकतंत्र स्थापित होते ही ऐसी घटनाएं हो जाएं तो प्रजातंत्र की बहाली में मुश्किल आती ही हैं.
सिर्फ़ संविधान या चुनाव से काम नहीं चलता. ऐसा होता तो नेपाल और पाकिस्तान भी स्थिर देश होते हैं. प्रैक्टिस ऑफ डिमॉक्रेसी ज़रूरी है. लोगों को भी आदत होनी चाहिए लोकतंत्र की."
प्रोफ़ेसर एसडी मुनि कहते हैं कि अभी की राजनीति में यामीन ऐसे निरंकुश होकर चलने लगे हैं कि राजनीतिक ढांचा उनके ख़िलाफ़ हो गया है. बहुत से लोग खुलकर सामने नहीं आ रहे क्योंकि राष्ट्रपति के पास बहुत ताक़त और अधिकार होते हैं.
वह कहते हैं, "सेना और पुलिस का एक बड़ा तबका यमीन के साथ है, इसीलिए वह सभी को नज़रअंदाज़ करना चाहते हैं. गयूम को हटाने के बाद मालदीव में जो जनतांत्रिक परिवर्तन आया था, उसकी अवहेलना हो रही है."
विदेशी भूमिका
इस संकट के बीच विपक्षी नेता और पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने भारत से मालदीव में दखल देने की मांग की है. नशीद जहां अमरीका और ब्रिटेन के क़रीब थे, वहीं यामीन ने चीन के साथ क़रीबी बढ़ाई है.
एसडी मुनि कहते हैं, "नशीद अमरीका और ब्रिटेन को अपने कुछ द्वीप देना चाहते थे ताकि यहां नेवल फैसिलिटी बनाने में उन्हें आसानी हो. मुझे लगता है कि भारत सरकार भी इससे नाराज़ थी. यही वजह है कि जब नशीद को हटाया गया तो मनमोहन सरकार ने 24 घंटों के अंदर उसका समर्थन किया जल्दबाज़ी में और बिना परिणाम की चिंता किए. इसीलिए अब भारत को नीति बदलकर वापस नशीद का समर्थन करना पड़ रहा है."
वह कहते हैं, "चीन अब दो-तीन द्वीपों पर होटल और अन्य चीज़ें बना रहा है. आने वाले समय में वह यहां नेवल अड्डा भी बना सकता है. अब तक यामीन चीन की मदद से ही भारत, अमरीका और ब्रिटेन समेत लोकतांत्रिक दुनिया को नज़रअंदाज़ कर सत्ता मे बैठे हुए हैं. चीन के साथ-साथ पाकिस्तान से मालदीव की क़रीबी बढ़ी है."
कैसे आएगी स्थिरता?
मालदीव क्षेत्रफल और आबादी के आधार पर एशिया का सबसे छोटा देश है. पूरी दुनिया से यहां पर्यटक आते हैं, फिर भी यह विदेशी क़र्ज़ में डूबा हुआ है. बजट का बड़ा हिस्सा इस कर्ज़ को चुकाने में ही खर्च हो जाता है.
मालदीव के सामने चुनौती यह भी है कि इस्लाम बहुल इस देश में कट्टरपंथ बढ़ रहा है और आईएस में शामिल होने के लिए यहां से भी काफ़ी लोग गए थे. सबसे बड़ी चुनौती तो यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रहे समुद्र के जलस्तर में इसके द्वीपों के डूबने का ख़तरा बना हुआ है.
इसके किसी भी द्वीप की ऊंचाई छह फुट से ज़्यादा नहीं है. देश के नेता यह वादे करते रहे हैं कि पर्यटन से होने वाली कमाई से वे कहीं और अपने बाशिंदों के लिए ज़मीन ख़रीदेंगे. मगर मौजूदा हालात में लगता नहीं कि इन चुनौतियों से निपटना आसान होगा.
जानकारों का कहना है कि अब बहुत कुछ अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के रुख़ और साथ ही मालदीव की सेना और पुलिस पर भी निर्भर करता है. उम्मीद चुनावों से भी है और यामीन कह भी रहे हैं कि वह जल्द चुनाव करवाएंगे. मगर इन चुनावों की कामयाबी तभी होगी, जब ये स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे.
जब ये देश डूब जाएंगे तो लोगों का क्या होगा?