मूर्तियों को हटाया जाना आख़िर क्यों जरूरी है?
वो मूर्तियां जो दशकों से अपनी जगह पर खड़ीं थीं, वे अब ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के तहत नीचे उतारी जा रही हैं.
वो मूर्तियां जो दशकों से अपनी जगह पर खड़ीं थीं, वे अब ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के तहत नीचे उतारी जा रही हैं.
इससे एक नयी बहस खड़ी हुई है कि ये मूर्तियां हमारे इतिहास को समझने की प्रक्रिया में क्या भूमिका अदा करती हैं.
इस हफ़्ते की शुरुआत में 17वीं शताब्दी के दास व्यापारी एडवर्ड कॉल्सटन की मूर्ति को ब्रिसॉल हार्बर में गिरा दिया गया था.
इसके साथ ही क्रिस्टोफ़र कोलंबस जैसी शख्सियतों और अमरीकी गृह युद्ध में दास प्रथा के समर्थन में लड़ने वाले सैनिकों की मूर्तियों को भी हटा दिया गया है या प्रदर्शनकारियों की ओर से नुक़सान पहुंचाया गया है.
कई लोगों के लिए, ये घटनाएं उनके इतिहास को पाने की लड़ाई है.
दासों को रखने वाले पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति थॉमस जेफ़ेरसन के क्षेत्र मॉन्टिसेला में अफ़्रीकी अमरीकी इतिहास संस्थान की निदेशिका निया बेट्स कहती हैं, "सार्वजनिक जगहों पर लगे ये स्मारक काफ़ी शक्तिशाली है. अगर आप किसी कथानक या कहानी को एक ख़ास जगह देते हैं और अपनी रोज़ाना की ज़िंदगी का हिस्सा बनने देते हैं. उन मूर्तियों को स्कूल या कॉफ़ी पीने के लिए जाते हुए देखते हैं. तब ये हमारी उस पहचान को बताती है जो कि हम हैं. हमें कहानी को बदलना होगा. हमें हाशिए पर रहे लोगों के इतिहास को देखना होगा. और इतिहास के उन पहलुओं को देखना होगा जिन्हें जानबूझकर या बिना जाने नज़रअदांज़ कर दिया गया है. हमें इन कहानियों के लिए भी जगह बनानी होगी."
"मैं हर उस प्रयास की समर्थक हूं जिसके तहत सार्वजनिक जगहों के लिए इतिहास के मायनों को दोबारा समझने की कोशिश की जा रही है. अमरीका और विदेशों के कई समुदायों में, इस तरह की ज़्यादातर मूर्तियां उस जगह की जनता का प्रतिनिधित्व करने की जगह उन लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्होंने इन मूर्तियों को लगाया होता है."
अमरीकी प्रांत वर्जीनिया के चारलोट्सविले में रहने वालीं निया कहती हैं, "अमरीका में ऐतिहासिक जगहों में से सिर्फ़ 1 फ़ीसद जगहें अफ़्रीकी अमरीकी समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं. लेकिन हमने बीते 401 साल अपना योगदान दिया है. और एक देश को बनाने के लिए काम किया है. ऐसे में स्मारकों, संग्रहालय और किताबों जैसी जगहों पर इसका ज़िक्र होना चाहिए."
बुरे लोगों का महिमा मंडन
प्रदर्शनकारियों का कहना है कि इस तरह की मूर्तियां इतिहास में बुरे काम करने वालों का महिमामंडन करती हैं और इतिहास के एक झूठे अहसास को जन्म देती हैं.
लेकिन अन्य लोगों का तर्क है कि मूर्तियों को गिराना इतिहास मिटाने जैसा है.
निया कहती हैं, "एक काली महिला इतिहासकार होने के नाते, मैं हमेशा अन्य काली महिलाओं की कहानियों और इतिहास में उनके योगदान के बारे में बताने के लिए तैयार रहूंगी. मैं इस क्षेत्र में अपनी दादी की वजह से ही आ सकी हूं. मैंने बड़े होते हुए उनके साथ बहुत सारा समय गुज़ारा है. मैं उनसे ऐसी कई कहानियां सुनी हैं जिनमें उनके जीवन में आई दिक्कतों का ज़िक्र था. और अवसरों की कमी से लेकर सेवकों जैसी भूमिकाओं का ज़िक्र था."
निया के लिए इतिहास को जानना एक निजी घटना बन गई जब वे काफ़ी छोटी थीं.
निया कहती हैं, "मुझे याद है कि मैं एक स्कूल ट्रिप पर चारलोटेसविले के बाहर एक प्लांटेशन में गई थी. वहां पर मेरे घरवालों की तस्वीर लगी थी क्योंकि वहां उन्होंने काम किया था. ये बहुत अजीब था कि मुझे उस वक़्त ये नहीं समझ आया. ऐसे में ये मेरे लिए काफ़ी निजी है."
मूर्तियों क्यों गिरनी चाहिए
लेकिन सिज़वे पोफू वाल्श के लिए, इन मूर्तियों को हटाया जाना भी इतिहास बन चुका है.
वह कहते हैं, "वर्तमान भी इतिहास का अंग है. मुझे लगता है कि इन मूर्तियों में उस इतिहास का संरक्षित होना है जो कि गोरे पुरुषों का महिमामंडन करता है, काफ़ी अजीब है."
सिज़वे ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में रोह्डस मस्ट फॉल कैंपेन के संस्थापक सदस्य हैं जो कि सेसिल रोह्ड के स्मारक को हटाने की मांग कर रहा है.
प्रदर्शनकारियों के मुताबिक़, 19वीं शताब्दी के दक्षिण अफ़्रीकी व्यापारी और राजनेता रोह्डेस की विरासत औपनिवेशकवाद और नस्लभेद से भरी पड़ी है और वह गोरे लोगों के प्रभुत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं.
सिज़वे कहते हैं, "मैं किसी भी व्यक्ति को इस बात की चुनौती दे सकता हूँ कि उन्होंने सेसिल रोहेड्स की मूर्ति से गुज़रते हुए दक्षिण अफ़्रीका के इतिहास के बारे में कैसे सीखा."
"मुझे लगता है कि जो रोह्डेस के साथ हुआ, वो आज भी हो रहा है. अमीर लोग अपराध करते हैं, और भविष्य को रिश्वत देकर नए इतिहास ख़रीद लेते हैं और इस तरह इतिहास को बर्बाद करते हैं. अगर ऐसा नहीं है तो कम से कम उसे छिपा ही देते हैं."
सिज़वे के मुताबिक़, जब आप दक्षिण अफ़्रीका में एक मिश्रित नस्ल के व्यक्ति के रूप में अपना जीवन जीते हैं तो इतिहास सिर्फ इतिहास में नहीं रहता है, वह आपके वर्तमान और आपकी पहचान से बात करता है."
वह कहते हैं, "मेरे पिता एक होज़ा थे. वह एक काले दक्षिण अफ़्रीकी व्यक्ति थे. लेकिन मेरी माँ एक गोरी ब्रितानी महिला थीं. ऐसे में ये दोनों ही विरासतें मुझमे समाए हुई हैं."
"मैंने रोह्डेस की विरासत को अपने पिता के परिवार में देखा है. बेहद ग़रीबी की वो विरासतें जो कि अपार्टहिड और अलगाववाद से जुड़ी हुई थीं. रोह्डेस को ये विरासतें बेहद पसंद थीं."
"लेकिन मैंने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी आकर उस विरासत की लूटपाट भी देखी है. ऐसे में मुझे लगता है कि यही वो वजह जिसके कारण ये आंदोलन मेरे दिल के इतना क़रीब है."
विजेताओं का लिखा इतिहास
जॉर्ज फ़्लॉएड की मौत से शुरू हुए ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के विरोध प्रदर्शनों ने कई लोगों की औपनिवेशिक और इंपीरियल इतिहास, नस्लवाद और काले लोगों के उत्पीड़न के प्रति लोगों की धारणाओं को चुनौती दी है.
प्रदर्शनकारी कहते हैं कि नस्लवाद इतिहास में पेश किए गए उस नज़रिए की जड़ में समाया हुआ है जिसके केंद्र में यूरोप और गोरे लोग हैं और जो दुनिया को सिर्फ एक रंग से देखता है.
चिचेस्टर यूनिवर्सिटी में अफ़्रीका पर विशेषज्ञता रखने वाले इतिहासकार प्रोफेसर हाक़िम अदि कहते हैं, "किसी ने लिखा है - 'इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है.' इतिहास हमें ये समझने में मदद करता है कि दुनिया जैसी है, वैसी क्यों हैं. जो लोग ताकतवार होते हैं वे अपने पक्ष को दमदार ढंग से पेश करना चाहते हैं. जबकि बाकि लोग कुछ और चाहते हैं. हम सच चाहते हैं. हम इस पूरी दुनिया जहां हम रहते हैं, उसे पूरा समझना चाहते हैं."
अदि मानते हैं कि ये सोचना एक ग़लती होगी कि इतिहास कोई पत्थर की लकीर जैसा है.
वह कहते हैं, "इतिहास हमें बदलाव को समझने में मदद करता है और ये बताता है कि बदलाव आख़िर क्यों हुआ. इतिहास ये भी बताता है कि हम सभी बदलाव करने वालों में शामिल हैं. और ये दुनिया रुकी हुई नहीं है, हम जिसे इतिहास कहते हैं, वो भी रुका हुआ नहीं है. वह गतिशील है. और इसे गति देने वाले लोग हम ही हैं. अलग शब्दों में कहते हैं इतिहास पत्थर में लिखी कोई बात नहीं हैं. अगर ऐसा होता तो हम आज भी पाषाण युग में ही होते. लेकिन ऐसा नहीं है."
'असली विरासत'
हालिया विरोध प्रदर्शनों में मूर्तियों को इतिहास के प्रतीक के रूप में देखा गया है. लेकिन इसके अलावा कई चीज़ें ऐसी होती हैं जिनके तहत इतिहास हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगियों में संरक्षित रहता है.
भारतीय पत्रकार आकांक्षा सिंह मूलत: मुंबई से हैं.
ब्रिटिश राज के दौरान मुंबई शहर को बॉम्बे कहा जाता था. इसके बाद एक क्षेत्रीय पार्टी शिव सेना के सत्ता में आने के बाद इस नाम को बदल दिया गया. क्योंकि इस पार्टी को ये नाम ब्रिटिश राज की विरासत लगता था.
आकांक्षा कहती हैं, "मुझे लगता है कि ज़्यादातर इमारतें और स्मारक हमारी पहचान का हिस्सा बन गए हैं जो कि एक औपनिवेशिक पहचान है. लेकिन कई मूर्तियां हटा ली गई हैं. मगर हम आज भी उपनिवेशवाद का असर देख रहे हैं. और (भारतीय) सीमाओं के बाहर हमारी सुनवाई नहीं है."
मूर्तियों को हटाए जाने के साथ साथ कई इमारतों और गलियों के नाम बदल दिए गए थे.
लेकिन आकाँक्षा कहती हैं कि भारत को आज़ाद हुए सत्तर सालों से ज़्यादा वक़्त बीत चुका है. लेकिन उपनिवेशवाद का असर बना हुआ है.
वह कहती हैं, "मुझे मूर्तियां परेशान नहीं करती हैं. लेकिन मुझे वर्गवाद, रंगभेद, भाषा भेद और क्वीर फोबियो परेशान करता है. जो कि ब्रिटिश राज की असली विरासत है."
"ब्रिटेन से पहले भारत पर कई लोगों ने आक्रमण किए. लेकिन ब्रिटिश राज अलग था क्योंकि ये सबसे ज़्यादा शोषक था. इसने भारत को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से बर्बाद कर दिया."
कुछ कहती हैं ये मूर्तियां
अब जो मूर्तियां कई वर्षों से खड़ी हुई थीं, उन पर दोबारा विचार किया जा रहा है.
लोग दुनिया भर में एडवर्ड कॉल्स्टन, सेसिल रोह्डेस, विंस्टन चर्चिल, क्रिस्टोफ़र कोलंबस, और होराशिओ नेल्सन पर बात कर रहे हैं.
कुछ लोग कह रहे हैं जो लोग दास व्यापारियों और अन्य विवादित लोगों की मूर्तियां गिराने की बात कर रहें वे इतिहास को मिटा रहे हैं.
वहीं, दूसरे लोग कह रहे हैं इन मूर्तियों को बना रहना चाहिए लेकिन इनके साथ एक पट्टिका लगनी चाहिए जिनमें इन ऐतिहासिक शख़्सों से जुड़ी जानकारी देनी चाहिए और स्कूलों में विस्तृत ढंग से इतिहास पढ़ाया जाना चाहिए.
जॉर्ज फ़्लॉएड की मौत ने इतिहास की एक बार फिर से पड़ताल करने की मुहिम को बल दिया है. लेकिन प्रोफ़ेसर अदि इसके परिणाम को लेकर सशंकित हैं.
वह कहते हैं, "ब्रिसॉल के लोगों ने निर्णय लेने की अपनी शक्ति को एक बेहद ऐतिहासिक ढंग से इस्तेमाल किया है. अब इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि उस मूर्ति के साथ क्या होता है. इतिहास बन चुका है और अब उसे बदला नहीं जा सकता."
इस मूर्ति को पानी से निकालकर संग्रहालय में रखा जा चुका है.
प्रोफ़ेसर अदि कहते हैं, "लोगों को इन हस्तियों के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए. लेकिन क्या ब्रिसॉल या कहीं और के स्कूलों में ये होता है? मेरा सवाल फिर भी वही है कि निर्णय लेने वाले कौन हैं. क्योंकि आप दोनों ओर के तर्कों में लोग ही मिलेंगे."
इसी तरह निया ने भी मूर्तियों को नया संदर्भ दिए जाने पर अपने विचार बदले हैं.
वह कहती हैं, "पाँच साल पहले, मैं इसके लिए तैयार हो जाती कि इन मूर्तियों को नया संदर्भ दे दिया जाए. लेकिन जब मैंने ये देखा कि कुछ साल पहले यहां चारलोटेसविले में क्या हुआ तब मुझे ये अहसास हुआ कि ये मूर्तियां हिंसा को जन्म देती हैं."
साल 2017 में दक्षिण पंथी राष्ट्रवादियों ने अमरीकी गृह युद्ध के दौरान दास प्रथा के समर्थन में कनफेडरेट स्टेट्स की तरफ़ से लड़ने वाले एक जनरल की मूर्ति को हटाए जाने के अभियान के ख़िलाफ़ रैली निकाली.
इन रैलियों के दौरान गोरों के प्रभुत्व की बात करने वालों और दूसरे पक्ष के लोगों के बीच टकराव हुआ तो एक व्यक्ति की जान चली गई.
निया कहती हैं, "मूर्तियों में ताक़त होती है जब तक इन हस्तियों द्वारा सशक्त बनाए गए लोग मौजूद हैं. क्योंकि इनके विचार गोरे लोगों के प्रभुत्व से मिलेते हैं. और ये हमारे समाज को बांटने वाली चीज़ है. जब तक हम इन मूर्तियों को ये बताने देंगे कि हम कौन हैं तब तक हम एकजुट नहीं हो सकते."