अफ़्रीकी देशों में चीन को लेकर क्यों बढ़ रहा 'डर'
जर्मी स्टीवन्स का कहना है, ''अफ़्रीका की सरकारें आधारभूत ढांचे के निर्माण में काफ़ी कम खर्च कर रही हैं. इसकी एक वजह तो ये है कि लागत ज़्यादा है और पैसे का पर्याप्त अभाव है. ऐसे में आशंका बढ़ रही है कि ये देश क़र्ज़ हासिल करने की योग्यता ना खो दें.''
अफ़्रीका में चीनी कंपनियों की वकालत करने वाले कई हाई प्रोफ़ाइल लोग हैं. इसमें अफ़्रीकी डिवेलपमेंट बैंक (एडीबी) के प्रमुख अकिनवुमी अडेसिना और नाइजीरिया के पूर्व कृषि मंत्री भी शामिल हैं.
अफ़्रीकी देश चीन से मिलने वाले क़र्ज़ को लेकर काफ़ी उत्साह दिखा रहे हैं, लेकिन कुछ विशेषज्ञों ने इस महाद्वीप पर बढ़ते क़र्ज़ के बोझ को लेकर चिंता जताई है.
इन विशेषज्ञों का कहना है कि जल्द ही इसकी हक़ीक़त सामने आ सकती है.
युगांडा के लोगों के लिए अब भी एंतेबे-कंपाला एक्सप्रेस-वे आकर्षण का केंद्र बना हुआ है जबकि इसे खुले तीन महीने हो गए हैं.
यह 51 किलोमीटर का फ़ोर लेन हाइवे है जो देश की राजधानी को एंतेबे इंटरनेशनल एयरपोर्ट से जोड़ता है. इसे चीनी कंपनी ने 47.6 करोड़ डॉलर में बनाया है और पूरी रक़म को चीन के एग्ज़िम बैंक ने क़र्ज़ के रूप में दिया है.
अफ़्रीका के सबसे बुरे ट्रैफ़िक में शुमार 51 किलोमीटर की इसी दूरी को तय करने में पहले पसीने छूट जाते थे और दो घंटे का वक़्त लगता था. अब पूर्वी अफ़्रीकी देश युगांडा की राजधानी से एंतेबे एयरपोर्ट जाने में महज 45 मिनट का वक़्त लगेगा.
युगांडा ने तीन अरब डॉलर का चीनी क़र्ज़ लिया है. कंपाला स्थित अर्थशास्त्री रामादान जीगूबी का कहना है कि अफ़्रीका में बिना शर्त पूंजी लेने की ग़ज़ब की चाहत दिख रही है.
चीनी क़र्ज़ का बोझ कितना बड़ा
मेकरेरे यूनिवर्सिटी बिज़नेस स्कूल के एक लेक्चरर ने बीबीसी से कहा, ''यह क़र्ज़ चीन से आ रहा है और साथ में चीनी कंपनियों का बड़ा कारोबार भी आ रहा है. ख़ासकर चीन की कंस्ट्रक्शन कंपनियां पूरे अफ़्रीका में रेल, रोड, पनबिजली के बांध, स्टेडियम और व्यावसायिक इमारतें बना रही हैं.''
अफ़्रीकी देश जिस तरह से चीन से क़र्ज़ ले रहे हैं उससे उनके नहीं चुका पाने का ख़तरा भी बढ़ता जा रहा है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अप्रैल में कहा था कि इस इलाक़े में कम आय वाले 40 फ़ीसदी देश क़र्ज़ के बोझ तले दबे हुए हैं या इसके बेहद क़रीब हैं.
चाड, इरिट्रिया, मोज़ाम्बिक, कांगो रिपब्लिक, दक्षिणी सूडान और ज़िम्बॉब्वे के बारे में कहा जा रहा है कि ये देश क़र्ज़ के बोझ तले दबे हुए हैं.
ये देश 2017 के आख़िर में ही इस श्रेणी में आ गए थे. ज़ाम्बिया और इथियोपिया के बारे में कहा जा रहा है कि ये भी क़र्ज़ के जाल में फँसने के क़रीब हैं.
स्टैंडर्ड बैंक ऑफ़ चाइना के अर्थशास्त्री जर्मी स्टीवन्स ने एक नोट में लिखा है, ''केवल 2017 में अफ़्रीका में चीनी कंपनियों ने 76.5 अरब डॉलर की परियोजनाओं पर हस्ताक्षर किए हैं.''
जर्मी स्टीवन्स का कहना है, ''अफ़्रीका की सरकारें आधारभूत ढांचे के निर्माण में काफ़ी कम खर्च कर रही हैं. इसकी एक वजह तो ये है कि लागत ज़्यादा है और पैसे का पर्याप्त अभाव है. ऐसे में आशंका बढ़ रही है कि ये देश क़र्ज़ हासिल करने की योग्यता ना खो दें.''
अफ़्रीका में चीनी कंपनियों की वकालत करने वाले कई हाई प्रोफ़ाइल लोग हैं. इसमें अफ़्रीकी डिवेलपमेंट बैंक (एडीबी) के प्रमुख अकिनवुमी अडेसिना और नाइजीरिया के पूर्व कृषि मंत्री भी शामिल हैं. इन्होंने बीबीसी से कहा, ''बड़ी संख्या में लोग चीन को लेकर डरे हुए हैं, लेकिन मैं नहीं हूं. मेरा मानना है कि चीन अफ़्रीका का दोस्त है.''
चीन अफ़्रीका के आधारभूत ढांचे में बड़ा द्विपक्षीय निवेशक के तौर पर उभरा है. चीन जिस आकार में अफ़्रीका में पूंजी लगा रहा है उस कसौटी पर एडीबी, यूरोपियन कमीशन, द यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक, द इंटरनेशनल फ़ाइनेंस कॉरपोरेशन, वर्ल्ड बैंक और जी-8 के देश भी पीछे छूट गए हैं.
चीन सबसे 'बड़ा विजेता'
चीनी पैसे का असर भी पूरे अफ़्रीका में स्पष्ट तौर पर दिख रहा है. चमकते नए हवाई अड्डे, नई सड़कें, बंदरगाह और ऊंची इमारतें ख़ूब बन रहे हैं और इन सबसे नौकरियां भी पैदा हो रही हैं.
मैकेंजी एंड कंपनी की रिपोर्ट के अनुसार 2012 के बाद अफ़्रीका पर क़र्ज़ की रक़म तीन गुनी हो गई है. 2015-16 में तो केवल अंगोला पर ही 19 अरब डॉलर का क़र्ज़ हो गया था. अंगोला और ज़ाम्बिया अफ़्रीका में चीन के सबसे असंतुलित साझेदार हैं.
मैकेंजी एंड कंपनी का कहना है, ''अंगोला को देखा जाए तो वहां की सरकार चीनी निवेश और परियोजनाओं के बदले तेल की आपूर्ति करती है, लेकिन बाज़ार प्रेरित चीन की निजी कंपनियों के लिए बाक़ी के अफ़्रीकी देशों में इस तरह के सीमित विकल्प हैं.''
घाना के इन्वेस्टमेंट एनलिस्ट माइकल कोटोह का कहना है कि अफ़्रीका ने चीन के साथ मिलकर व्यापार, निवेश और वित्तीय प्रबंधन पर व्यापक समझौते किए हैं.
माइकल कहते हैं, ''अगर ऐतिहासिक रूप से अफ़्रीका में पश्चिमी देशों के कारोबार से तुलना करें तो चीन के साथ अफ़्रीका के जो समझौते हैं या जो परियोजनाएं चल रही हैं वो पारस्परिक फ़ायदे के हैं.''
हालांकि इस बात को हर कोई जानता है कि चीन के दोनों हाथों में लड्डू है. ऐसा इसलिए कि चीन ने जो समझौते किए हैं उनमें अपने हितों का ख़्याल पूरी बारीकी से रखा है.
मैकेंजी का अनुमान है कि 2025 तक चीन का अफ़्रीका में राजस्व 440 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है. यहां तक कि इस बात से अडसिना भी सहमत हैं.
वो कहते हैं, ''समझौते एकतरफ़ा हैं. आप किसी देश को खनन का अधिकार इसलिए दे रहे हैं कि आप सुपरहाइवे बनाना चाहते हैं. आप केवल एक देश से समझौते कर रहे हैं. ऐसे में कैसे दावा किया जा सकता है कि यह बेहतरीन समझौता है?''
'अंगूर खट्टे हैं''
अमरीका की तरह चीन में फ़ॉरेन करप्ट प्रैक्टिस जैसा कोई क़ानून नहीं है. अमरीका की तरह के क़ानून बाक़ी के पश्चिमी देशों में हैं जिनके तहत अनुबंध को हासिल करने में अगर रिश्वत दी जाती है तो कार्रवाई होती है.
हालांकि नोबेल सम्मान से सम्मानित अर्थशास्त्री जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ चीनी निवेश पर पश्चिमी देशों की आलोचना को 'अंगूर खट्टे हैं' की तर्ज पर देखते हैं.
वो भ्रष्टाचार की चिंता को स्वीकार करते हैं. वो कहते हैं, ''परियोजना चाहे चीन से आए या पश्चिम के देशों से, सबका मूल्यांकन लागत और फ़ायदे की कसौटी पर होना चाहिए.''
जीगूबी का कहना है कि चीनी निवेश से अफ़्रीका में पर्यावरण के जुड़ी चिंताएं भी काफ़ी अहम हैं. वो कहते है कि अफ़्रीका में नियामक संस्थानों की स्थिति बहुत ख़राब है, इसलिए किसी भी तरह की जवाबदेही तय नहीं हो पाती है.
2015 में जॉन हॉपकिन्स स्कूल ऑफ़ अडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज़ में चाइना अफ़्रीका रिसर्च इनिशिएटिव ने चीनी निवेश को लेकर चेतावनी दी थी.
इस रिसर्च का कहना है, ''संभव है कि अफ़्रीकी देश चीन का क़र्ज़ चुकाने में नाकाम रहें. ऐसा इसलिए क्योंकि वस्तुओं क़ीमत अस्थिर रहती है और अफ़्रीकी सरकारें इन परियोजनाओं से बहुत फ़ायदा भी नहीं उठा पाएंगी. चीन भले इस इलाक़े में सबसे ज़्यादा क़र्ज़ दे रहा है, लेकिन अफ़्रीकी देश अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से भी क़र्ज़ ले रहे हैं. ऐसे में इस मामले में केवल चीन पर ही उंगली नहीं उठाई जानी चाहिए.''
इसी हफ़्ते बीजिंग में चाइना अफ़्रीका कॉरपोरेशन की सातवीं बैठक होनी है. इससे पहले जोहान्सबर्ग में बैठक हुई थी और चीन ने 35 अरब डॉलर रिआयती विदेशी मदद के तौर पर देने का वादा किया था.
जीगूबी चाहते हैं कि चीन अफ़्रीका में इंस्टीट्यूशन की क्षमता के निर्माण में मदद करे. वो चाहते हैं स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन और इंडस्ट्रीयल पार्क बने जिससे निर्यात को बढ़ावा मिले.
जिबुती ने पिछले महीने चीन निर्मित फ़्री ट्रेड ज़ोन का उद्घाटन किया था. चीन व्यापार के पुराने मार्गों को अपनी महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट वन रोड के तहत ज़िंदा कर रहा है.
इन सबके बावजूद अफ़्रीका में एक डर को पर्याप्त तवज्जो मिल रही है कि कहीं क़र्ज़ का बोझ इतना न बढ़ जाए कि निकलने का कोई रास्त ही ना बचे.