चीन और भारत की नज़र श्रीलंका के चुनाव पर क्यों टिकी है?
देश की सुरक्षा चिंताओं और भावी आर्थिक नीति मॉडल पर प्रचार के बाद अब श्रीलंका में शनिवार को (16 अक्तूबर को) राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान किया जा रहा है. चुनावी मैदान में रिकॉर्ड 35 प्रत्याशी उतरे हैं लेकिन पूर्व गृह सचिव गोतबया राजपक्षे और आवास मंत्री सजित प्रेमदासा वो दो प्रत्याशी हैं जिनके बीच कड़ी स्पर्धा मानी जा रही है.
देश की सुरक्षा चिंताओं और भावी आर्थिक नीति मॉडल पर प्रचार के बाद अब श्रीलंका में शनिवार को (16 अक्तूबर को) राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान किया जा रहा है.
चुनावी मैदान में रिकॉर्ड 35 प्रत्याशी उतरे हैं लेकिन पूर्व गृह सचिव गोतबया राजपक्षे और आवास मंत्री सजित प्रेमदासा वो दो प्रत्याशी हैं जिनके बीच कड़ी स्पर्धा मानी जा रही है.
नए राष्ट्रपति को तेज़ी से कई काम निबटाने होंगे क्योंकि 2020 में संसदीय चुनाव होने हैं और देश की अर्थव्यवस्था सुस्ती की चपेट में है, भ्रष्टाचार चरम पर है और साथ ही जातीय तनाव भी कहीं व्याप्त है.
अप्रैल में इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने श्रीलंका में ईस्टर संडे के मौके पर चर्च और होटलों को निशाना बनाते हुए आठ धमाके किए थे जिसमें 250 से अधिक लोगों की जानें गई थीं.
जिससे इस द्वीप की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम पर्यटन उद्योग पर बड़ी मार पड़ी.
जीत के लिए 50 फ़ीसदी वोट हासिल करने पड़ेंगे?
लगभग 2.1 करोड़ की आबादी वाले श्रीलंका में मतदाताओं की संख्या क़रीब 1.6 करोड़ है. मतदान के वक्त उन्हें अपने शीर्ष तीन नेताओं को चुनना होगा.
जिस उम्मीदवार को 50 फ़ीसदी से अधिक वोट पड़ेंगे वह ही राष्ट्रपति चुने जाएंगे.
अगर कोई भी प्रत्याशी 50 फ़ीसदी वोट हासिल नहीं कर पाता तो दूसरी और तीसरी वरीयता के मत से विजेता का चयन किया जाता है.
राष्ट्रपति की दौड़ में कौन आगे?
चुनाव में अब तक दो बड़े नेताओं गोतबया राजपक्षे और सजित प्रेमदासा के बीच सीधी टक्कर देखी जा रही है.
वर्तमान राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने इस बार चुनाव में नहीं खड़े होने का फ़ैसला किया है. उनकी श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफ़पी) ने राजपक्षे के समर्थन की बात कही है.
राजपक्षे अपने बड़े भाई महिंदा राजपक्षे की सरकार के अहम सदस्य रह चुके हैं. इन दोनों को 2009 में दशकों पुराने गृह युद्ध को समाप्त करने का श्रेय जाता है, लेकिन छोटे भाई पर युद्ध अपराधों के आरोप लगे. लेकिन वह किसी भी ऐसे ग़लत काम से इनकार करते रहे हैं.
लोकप्रियता के बावजूद, गोतबया राजपक्षे और उनकी श्रीलंका पोदुजना पेरमुना (एसएलपीपी) पार्टी अल्पसंख्यकों के प्रति अपनी कठोर नीतियों को लेकर विवादास्पद रही है.
जानकार आशंका जताते हैं कि अगर राजपक्षे चुने गए तो देश में धार्मिक और जातीय तनाव उभर सकता है.
भारतीय रणनीतिक मामलों के जानकार ब्रह्म चेलानी ने दैनिक मिंट में लिखा, "फ़ैसले से पहले एक कथित युद्ध अपराध अभियुक्त के राष्ट्रपति बनने की संभावनाओं को लेकर निश्चित ही अल्पसंख्यकों, मीडिया और नागरिक अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वालों के बीच भय हैं."
प्रेमदासा नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (एनडीएफ़) का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो दक्षिणपंथी झुकाव वाले सत्तारूढ़ यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के साथ गठबंधन का सदस्य है.
पूर्व राष्ट्रपति के बेटे प्रेमदासा अभी यूएनपी के डिप्टी लीडर और सरकार में आवास, निर्माण और सांस्कृतिक मामलों के मंत्री हैं.
इनके अलावा चुनावी मैदान में सांसद अनुरा दिसानायके और सेना में कमांडर रह चुके महेश सेनानायके दो अन्य बड़े नाम है, लेकिन इन दोनों से गंभीर चुनौती मिलने की किसी को उम्मीद नहीं है.
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नेताओं ने क्या क्या चुनावी वादे किए?
यह मतदान उस वक्त हो रहा है जब देश में धार्मिक और जातीय विभाजन यकीनन अपने चरम पर है- और यह राजपक्षे के पक्ष में एक राजनीतिक हवा की वजह हो सकती है.
डेली न्यूज़ अख़बार ने अपनी वेबसाइट पर बताया कि इस साल अप्रैल में बम धमाकों में 250 से अधिक लोगों की मौत के बाद जब इस्लामिक चरमपंथियों के मारे जान की पुष्टि हुई तो इसके तुरंत बाद ही उन्होंने अपनी उम्मीदवारी का एलान करते हुए कहा था कि वो श्रीलंका को अपने नेतृत्व में सुरक्षित देश बनाएंगे. एसएलपीपी 'द टेन प्रिंसिपल्स ऑफ़ इन्क्लुसिव गवर्नेंस' के शीर्षक से अपना चुनावी घोषणा पत्र लाया जिसमं राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोच्च वरीयता दी गई और अप्रैल 2019 के चरमपंथी हमले में आगे की जांच का वादा किया.
सिंहली भाषा के एक दैनिक अख़बार दिवाइना के एक संपादकीय में तर्क दिया गया कि, "एक देश को केवल उसी राजनीतिक प्रणाली के जरिए ही विकसित किया जा सकता है जो राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देता है. इस राजनीतिक यथार्थ को समझने में नाकाम रहे देश के राजनेता की वजह से श्रीलंका को भयानक स्थिति का सामना करना पड़ा."
कुछ लोगों को चिंता है कि राजपक्षे राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में धार्मिक और जातीय रूप से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देंगे. तमिल विद्रोहियों से लड़न में उनकी भागीदारी और मुसलमान विरोधी विचारों के लिए जाने जाने वाले कट्टर बौद्ध समूह बोदू बाला सीन के साथ उनका दोस्ताना रिश्ता इस अवधारणा को आधार प्रदान करते हैं.
राजपक्षे का चुनावी धोषणापत्र भ्रष्टाचार के ख़ात्मे, अर्थव्यवस्था की मजबूती और निष्पक्ष सोसाइटी बनाने का वादा भी करता है लेकिन उनकी मजबूत छवि अभी भी मतदाताओं के बीच सबसे बड़ा आकर्षण साबित हो सकता है.
वहीं डेली न्यूज़ के मुताबिक प्रेमदासा ग़रीबी उन्मूलन और सामाजिक कल्याण का कार्ड खेलते हुए अपने पिता की ही तरह चुनावी सफलता को दोहराने की उम्मीद कर रहे हैं.
कोलंबो गज़ट के मुताबिक उन्होंने अपने घोषणापत्र में अर्थव्यवस्था को मजबूत करने, बुनियादी ढांचे में सुधार करने और सार्वजनिक सेवाओं को डिजिटल बनाने का वादा किया है.
राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के अलावा विदेश नीति, शिक्षा, पर्यावरण और महिला कल्याण उनके चुनावी अभियान के अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं.
अंतरराष्ट्रीय पहलू कितना मजबूत?
श्रीलंका कितना अहम है इसका सबूत इससे ही मिलता है कि भारत और चीन दोनों ही वहां के चुनावी नतीजों पर अपनी पैनी निगाहें जमाए रखेंगे. यह इन दोनों देशों के लिए रणनीतिक और कूटनीतिक नज़रिये से अहम है. इसकी वजह है हिंद महासागर में श्रीलंका की स्थित. जो कि व्यापारिक दृष्टि से यह इन दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.
कुछ जानकारों का मानना है कि राजपक्षे की चुनावी सफलता चीन के लिए एक बड़ी जीत होगी.
महिंदा राजपक्षे के सत्ता में रहते हुए यहां 10 वर्षों के दौरान चीन ने अपने निवेश में लगातार बढोतरी की है. राजपक्षे 2015 तक यहां सत्ता में रहे.
भारत की झुंझलाहट के बीच महिंदा राजपक्षे ने चीन से अरबों डॉलर का उधार लिया और अपने मुख्य बंदरगाह के द्वार चीनी पनडुब्बियों के लिए खोल दिए. उन्होंने चीन के साथ मिलकर एक विशाल बंदरगाह का निर्माण किया, इसकी वजह से चीन के कर्ज़ तले दबने की आशंका भी जाहिर की गई.
भारत के सामरिक मामलों के जानकार ब्रह्म चेलानी का मानना है कि युवा राजपक्षे के राष्ट्रपति बनने के बाद कमोबेश यही रुझाना जारी रहेगा.
कोलंबो गज़ट के मुताबिक, दूसरी तरफ प्रेमदासा ने 'तर्कसंगत व्यापार नीति' के साथ मैत्रीपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संबंध विकसित करने का वादा किया है.