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नेपाल में क्यों बढ़ रही है भारत विरोधी भावना? चीन में बढ़ी दिलचस्पी

नेपाल और भारत के रिश्ते हाल के वर्षों में विवादों में रहे हैं, लेकिन इसकी ज़मीन कई वर्षों से तैयार हो रही है. क्या चीन भी इसमें कोई फ़ैक्टर है?

By रजनीश कुमार
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ईश्वरी बराल नेपाल की राजधानी काठमांडू में ऑनलाइन पत्रकार हैं. पिछले कुछ सालों से ईश्वरी भारत से बहुत नाराज़ हैं. वे बताती हैं कि इसी नाराज़गी के कारण वो पाकिस्तानी क्रिकेट टीम का समर्थन करती हैं. ईश्वरी नेपाल में पहाड़ी इलाक़े लामजुंग की हैं.

राजकिशोर यादव मधेसी इलाक़े के सिराहा ज़िले के हैं. वो बाबूराम भट्टराई की जनता समाजवादी पार्टी के नेता हैं. राजकिशोर यादव कहते हैं कि ईश्वरी रिएक्शन में ऐसा कर रही हैं.

राजकिशोर कहते हैं, ''नेपाल में पहाड़ियों के बीच एक नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की गई है कि भारत विस्तारवादी शक्ति है और उससे सतर्क रहने की ज़रूरत है. ऐसा कम्युनिस्ट पार्टियों ने सत्ता के लालच में किया है. मुझे नहीं लगता है कि क्रिकेट मैच पाकिस्तान और भारत के बीच हो और मधेस में कोई पाकिस्तान का समर्थन करेगा. ये भी सच नहीं है कि पहाड़ में केवल भारत विरोधी भावना है. गोरखा तो पहाड़ी ही हैं और भारतीय सेना में बहादुरी के साथ सरहद की रक्षा में लगे हुए हैं. लेकिन इतना ज़रूर है कि अभी भारत को लेकर पहाड़ और मधेस में सोच एक जैसी नहीं है.''

नेपाली गोरखा ब्रिटिश इंडिया से ही भारतीय सेना में हैं. गोरखाओं ने गोरखा-सिख, एंग्लो-सिख और अफ़ग़ान युद्ध में अहम भूमिका निभाई थी.

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इसके अलावा 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी गोरखाओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा. भारतीय सेना में गोरखाओं की एंट्री 1816 में एंग्लो-नेपाली वॉर के बाद हुई सुगौली संधि से जुड़ी है. तब भारत अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था और गोरखाओं ने ब्रिटिश हुकूमत को कड़ी चुनौती दी थी.

जब भारत आज़ाद हुआ, तो नेपाल, भारत और ब्रिटेन के त्रिपक्षीय क़रार में छह गोरखा रेजिमेंट्स भारतीय सेना के हवाले किए गए. सातवाँ रेजिमेंट आज़ादी के बाद शामिल हुआ. वर्तमान में सात गोरखा रेजिमेंट के 40 बटालियन में क़रीब 32 हज़ार गोरखा हैं.

राजकिशोर कहते हैं कि मधेसियों के लिए काठमांडू दूर है, लेकिन दिल्ली ज़्यादा क़रीब है. युवराज चौंलगाईं नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (प्रचंड गुट) के केंद्रीय सदस्य हैं और नेपाली प्रवास समन्वय समिति के अध्यक्ष हैं. युवराज कहते हैं कि भारत को लेकर नाराज़गी केवल प्रतिक्रियावश नहीं है.

वे कहते हैं कि इसके ठोस कारण हैं. युवराज कहते हैं, ''भारत की सरकार को यह स्वीकार करना होगा कि नेपाल एक संप्रभु देश है. नेपाल जब संविधान लागू कर रहा था, तो भारत के वर्तमान विदेश मंत्री तब विदेश सचिव थे और वे बिना बुलाए नेपाल आकर संविधान नहीं लागू करने की ज़िद करने लगे. उन्हें इस बात पर आपत्ति थी कि नेपाल हिंदू राष्ट्र से सेक्युलर स्टेट ना बने और मधेसियों को लेकर कुछ चिंताएँ थीं.''

युवराज पूछते हैं, ''हमें हिंदू राष्ट्र रहना है या सेक्युलर स्टेट, ये भारत की सरकार तय करेगी या नेपाल की चुनी हुई सरकार? नेपाल की राजनीति में भारत माइक्रोमैनेजमेंट करता आया है और भारत की वर्तमान सरकार भी वही कर रही है. एस जयशंकर विदेश सचिव रहते हुए संविधान को लेकर नेपाल के नेतृत्व के सामने अजीब तरीक़े से पेश आए थे. भारत को नेपाल की राजनीति में माइक्रोमैनेजमेंट की रणनीति से बाज आने की ज़रूरत है.''

26 मई 2006 को बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था, ''नेपाल की मौलिक पहचान एक हिंदू राष्ट्र की है और इस पहचान को मिटने नहीं देना चाहिए. बीजेपी इस बात से ख़ुश नहीं होगी कि नेपाल अपनी मौलिक पहचान माओवादियों के दबाव में खो दे.''

युवराज कहते हैं, ''आप इस क्रोनोलॉजी को समझिए. पिछले साल अक्तूबर महीने में भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ (रिसर्च एनलिसिस विंग) के प्रमुख सामंत कुमार गोयल पीएम ओली से मिले. फिर भारत के सेना प्रमुख जनरल नरवणे मिले. इसके बाद विदेश सचिव आए. इसके बाद बीजेपी के विदेशी मामलों के प्रभारी विजय चौथाईवाले ने ओली से मुलाक़ात की. ये सारी मुलाक़ातें गोपनीय हुईं. कुछ डिटेल नहीं दी गई. फिर अचानक से 20 दिसबंर को पीएम ओली ने संसद को भंग कर दिया. अभी उनके पास बहुमत नहीं है, लेकिन संविधान का उल्लंघन करते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं. ज़ाहिर सी बात है कि ओली बिना विदेशी समर्थन के इतनी अकड़ के साथ नहीं रह सकते.''

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भारत में नेपाल के राजदूत रहे लोकराज बराल कहते हैं कि 2015 में भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर नेपाली नेतृत्व के सामने जिस तेवर से पेश आए थे, वो ठीक नहीं था.

लोकराज बराल कहते हैं, ''नेपाल में भारत विरोधी भावना के ठोस कारण हैं. नेपाल पहली बार लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपना संविधान लागू कर रहा था. संभव है कि संविधान में कुछ कमियाँ हों, लेकिन वक़्त के साथ ये कमियाँ दूर हो जातीं. मधेसियों को लेकर चिंताएँ जायज़ थीं, लेकिन आप ये नहीं कह सकते कि संविधान रोक दीजिए.''

बराल कहते हैं कि एस जयशंकर के रुख़ के कारण ही नेपाल की सारी राजनीतिक पार्टियाँ एकजुट हो गई थीं और संविधान को लेकर आम सहमति बन गई.

बराल कहते हैं, ''इसकी प्रतिक्रिया में भारत ने नाकेबंदी लगा दी. भारत को पता था कि नाकेबंदी के कारण नेपाल में ज़रूरी सामानों की किल्लत हो जाती है और मानवीय संकट खड़ा हो जाता है. इसके बावजूद भारत ने ऐसा किया. ऐसे में नेपाल में अगर भारत विरोधी भावना मज़बूत होती है, तो भारत की सरकार को सोचना चाहिए कि ग़लती किसकी है.''

डॉ संदुक रुइत नेपाल के विश्व विख्यात आइ सर्जन हैं. संदुक ने भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों में ग़रीबों का मुफ़्त में इलाज किया है. उन्हें रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड भी मिला है.

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संदुक 2015 में भारत की अघोषित नाकेबंदी को याद करते हुए कहते हैं, ''बहुत ही डरावना था. काठमांडू की सड़कों पर दिन में सन्नाटा पसरा रहता था. पेट्रोल और डीजल लेने के लिए कई किलोमीटर की लंबी लाइन लगती थी. रसोई गैस की लाइन देख इंसान ख़ून के आँसू रो जाता था. भारत को पता है कि नेपाल का जनजीवन उसी पर निर्भर है और उसकी नाकेबंदी मानवीय संकट पैदा करती है.''

रूस में नेपाल के राजदूत रहे हिरण्य लाल श्रेष्ठ कहते हैं कि भारत नेपाल को परेशान भी करता है और चाहता है कि नेपाल उससे अपनी निर्भरता भी कम ना करे.

वे कहते हैं, ''अगर आप अचानक से नाकाबंदी करेंगे और हम खाने-पीने के सामान से भी महरूम हो जाएँ, तो हमें कोई दूसरा विकल्प देखना होगा. हमें देखना होगा कि चीन से ट्रांजिट रूट को कैसे मज़बूत किया जाए. हम भारत पर निर्भर रहकर अपना स्वाभिमान गिरवी नहीं रख सकते. नेपालियों को भी स्वाभिमान से जीने का हक़ है.''

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नेपाल में कितना चीन

नेपाल के एक पूर्व डिप्लोमेट ने अनौपचारिक बातचीत के दौरान कहा कि भारत अपने यहाँ तो चीन को रोक ही नहीं पा रहा है, नेपाल में क्या ख़ाक रोकेगा. उन्होंने कहा, ''लद्दाख़ में चीनी फ़ौज घुसी हुई है और अरुणाचल में गाँव बसा लिया है. इसलिए नेपाल की चिंता छोड़ भारत पहले अपनी चिंता करे.''

नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री रमेशनाथ पांडे ने बीबीसी हिंदी से कहा कि उन्होंने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से पूछा था कि वो नेपाल दौरे पर अपने भाषणों में हिमालय का इतना ज़िक्र क्यों करते हैं? रमेशनाथ पांडे ने नेहरू से पूछा था कि वो हिमालय की ख़ूबसूरती से प्रभावित हैं या उसके पार के पड़ोसी देश से डरे रहते हैं. पांडे के अनुसार, नेहरू ने जवाब में कहा था कि दोनों बातें हैं.

नेहरू से लेकर अब तक नेपाल में चीन को लेकर भारत की आशंका बनी रही है. लेकिन नेपाल को लगता है कि भारत उसकी निर्भरता का फ़ायदा उठाता है, इसलिए चीन के साथ ट्रांजिट रूट को और मज़बूत करने की ज़रूरत है.

नेपाल और चीन के बीच एक अगस्त 1955 को राजनयिक रिश्ते की बुनियाद रखी गई. दोनों देशों के बीच 1,414 किलोमीटर लंबी सीमा है. नेपाल और चीन के बीच की यह सीमा ऊँचे और बर्फ़ीले पहाड़ों से घिरी हुई है. हिमालय की इस लाइन में नेपाल के 16.39 फ़ीसदी इलाक़े आते हैं.

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यह सीमा नेपाल के उत्तरी हिस्से के हिमालयन रेंज में है. हालाँकि यह सीमा नेपाल और तिब्बत के बीच थी, लेकिन चीन ने तिब्बत को भी अपना हिस्सा बना लिया था. नेपाल हमेशा से चीन को लेकर संवेदनशील रहा. वन चाइना पॉलिसी का नेपाल ने हर हाल में पालन किया है और चीन के हिसाब से क़दम भी उठाया है.

21 जनवरी 2005 को नेपाल की सरकार ने दलाई लामा के प्रतिनिधि ऑफिस, जिसे तिब्बती शरणार्थी कल्याण कार्यालय के नाम से जाना जाता था, उसे बंद कर दिया. काठमांडू स्थित अमेरिकी दूतावास ने इसे लेकर कड़ी आपत्ति जताई थी, लेकिन नेपाल अपने फ़ैसले पर अडिग रहा. चीन ने नेपाल के इस फ़ैसले का स्वागत किया था.

1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेपाल ने ख़ुद को तटस्थ रखा. नेपाल ने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर दिया. नेपाली डिप्लोमैट हिरण्य लाल श्रेष्ठ कहते हैं कि भारत का पूरा दबाव था कि इस जंग में भारत के साथ नेपाल खुलकर आए.

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हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने अपनी किताब '60 इयर्स ऑफ़ डायनेमिक पार्टनर्शिप' में लिखा है, ''नेपाल ने चीन के साथ 15 अक्तूबर 1961 को दोनों देशों के बीच रोड लिंक बनाने के लिए एक समझौता किया. इसके तहत काठमांडू से खासा तक एरानिको हाइवे बनाने की बात हुई. इस समझौते का भारत समेत कई पश्चिमी देशों ने भी विरोध किया. समझौते के हिसाब से चीन ने एरानिको हाइवे बनाया और इसे 1967 में खोला गया. कहा जाता है कि इस सड़क का निर्माण चीनी सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने किया. यह भारत से निर्भरता कम करने की शुरुआत थी.''

हालाँकि इस हाइवे को दुनिया का सबसे ख़तरनाक रोड कहा जाता है. भूस्खलन यहाँ लगातार होता है और अक्सर यह सड़क बंद रहती है. नेपाल इसी रूट के ज़रिए चीन से कारोबार करता है, लेकिन ये बहुत ही मुश्किल है. यहाँ भारी बारिश होती है जिससे, भूस्खलन यहाँ आम बात है. 144 किलोमीटर लंबी यह सड़क एकदम खड़ी ढाल में है और कहा जाता है कि इस पर गाड़ी चलाना जान जोखिम में डालने की तरह है.

चीन नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है. हालाँकि इसके बावजूद कारोबार का आकार बहुत छोटा है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2017-18 में नेपाल ने चीन से कुल 2.3 करोड़ डॉलर का निर्यात किया. इसी अवधि में नेपाल ने चीन से डेढ़ अरब डॉलर का आयात किया. नेपाल का चीन से कारोबार घाटा लगातार बढ़ रहा है.

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हालाँकि चीन 2009 से 8,000 नेपाली उत्पादों को बिना कोई शुल्क के आने देता है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार नेपाल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफ़डीआई का सबसे बड़ा स्रोत चीन है.

मार्च 2017 में काठमांडू में आयोजित नेपाल इन्वेस्टमेंट समिट में चीनी निवेशकों ने 8.3 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया था. नेपाल में विदेशी पयर्टकों का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत चीन है. 2018 में 164,694 चीनी पर्यटक नेपाल आए. एक जनवरी, 2016 से नेपाल की सरकार ने चीनी पर्यटकों के लिए वीज़ा शुल्क ख़त्म कर दिया था.

1989 में राजीव गाँधी की सरकार ने नेपाल और चीन ट्रांजिट संधि और बढ़ती क़रीबी की प्रतिक्रिया में आर्थिक नाकेबंदी लगा दी थी.

हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने अपनी किताब '60 इयर्स ऑफ डायनेमिक पार्टनर्शिप' में लिखा है, ''नवंबर 1989 में चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग नेपाल के दौरे पर आए. तब भारत ने नेपाल आर्थिक नाकेबंदी लगा दी थी और दोनों देशों में तनाव था. नेपाल ने चीन से हथियार आयात करने का फ़ैसला किया था, इसीलिए राजीव गाँधी की सरकार ने नाकेबंदी लगा दी थी. मुश्किल भरे दिनों में चीनी प्रीमियर ली नेपाल आए और उन्होंने सहानुभूति के साथ हर संभव मदद देने की घोषणा की. 21 नवंबर, 1989 को ली पेंग ने काठमांडू में प्रेस कॉन्फ़्रेंस की और कहा कि चीन ने अपने दोस्त राष्ट्रों को सैन्य उपकरण मुहैया कराया है. हम उन देशों को मज़बूत करना चाहते हैं जिनकी सुरक्षा चिंताएँ हैं. सुरक्षा उपकरणों को भेजना बिल्कुल उचित फ़ैसला है और यह किसी भी देश के ख़िलाफ़ नहीं है. भारत को समझना चाहिए कि नाकेबंदी से नेपाल के आम लोग प्रभावित हो रहे हैं.''

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इस दौरे को लेकर नेपाल राइजिंग ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा था, ''नेपाल में चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग का 19 से 21 नवंबर तक का तीन दिवसीय दौरा ऐतिहासिक रहा. ली पेंग नेपाली प्रधानमंत्री मरिचमान सिंह श्रेष्ठ के आमंत्रण पर आए और यह दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में मील का पत्थर साबित हुआ.''

चीन से नेपाल का संबंध राणाशाही से लेकर आज की लोकतांत्रिक सरकार तक से अच्छा रहा. किंग वीरेंद्र तो 1966 से 2001 तक 10 बार चीन गए. हालाँकि ओली और प्रचंड के नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में अलग होने को चीन के लिए झटके के तौर पर देखा जा रहा है.

चीन ने दोनों गुटों को एक करने की कोशिश की, लेकिन ओली नहीं माने. काठमांडू में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना एक प्रतिनिधिमंडल भी भेजा और चीन की राजदूत भी काफ़ी सक्रिय रहीं, लेकिन ओली नहीं माने.

नेपाल में कितना भारत?

नेपाल के साथ भारत के पाँच राज्यों- सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की 1850 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है. दोनों देशों के बीत बिना वीज़ा के आवाजाही है. तराई के इलाक़े के लोगों का रोज़ी-रोटी का संबंध काठमांडू की तुलना में भारत से कहीं ज़्यादा है.

1950 में भारत और नेपाल के बीच हुई शांति और मैत्री संधि को भी दोनों देशों के रिश्तों में अहम माना जाता है. हालाँकि नेपाल दशकों से इस संधि की समीक्षा चाहता है लेकिन भारत तैयार नहीं है. नेपाल का कहना है कि भारत ने ये संधि तब की थी, जब नेपाल में राणाशाही थी. नेपाल का तर्क है कि अब नेपाल एक लोकतांत्रिक गणतंत्र है और सारी संधियाँ गणतंत्र के हिसाब से ही होंगी.

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नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने बीबीसी हिंदी से इस संधि को लेकर कहा कि ये नेपाल और भारत के रिश्तों में रोड़ा है और इन्हें दूर करने की ज़रूरत है. भट्टराई ने कहा कि भारत को समझना होगा कि नेपाल ऐतिहासिक बोझों को हमेशा के लिए नहीं ढो सकता.

1950 की मैत्री संधि के अनुच्छेद दो के अनुसार नेपाल और भारत दोनों किसी पड़ोसी देश से टकराव और ग़लतफ़हमी की सूरत में एक दूसरे को सूचित करेंगे. नेपाल का कहना है कि भारत ने इस उपबंध का कभी पालन नहीं किया. नेपाल का तर्क है कि भारत का चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ, तो उसने नेपाल को इसे लेकर कोई सूचना नहीं दी.

इस संधि के अनुच्छेद पाँच के अनुसार नेपाल भारत या भारत के बाहर से हथियार, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री ख़रीद सकता है. नेपाल का कहना है कि भारत इसका पालन नहीं करता है. नेपाल का कहना है कि उसने 1989 में चीन से एंटी-एयरक्राफ़्ट गन ख़रीदने का फ़ैसला किया, तो भारत ने इसकी प्रतिक्रिया में नाकेबंदी लगा दी.

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इस संधि के अनुच्छेद छह से नेपाल और भारत के नागरिकों को दोनों देशों में औद्योगिक और आर्थिक गतिविधि की अनुमति मिली हुई है. नेपाल इस उपबंध की समीक्षा चाहता है. नेपाल का तर्क है कि इस उपबंध के चलते नेपाली अपनी ही ज़मीन पर भारतीयों से पिछड़ जा रहे हैं.

1950 की मैत्री संधि के अनुच्छेद सात में नेपाल और भारत के लोगों को दोनों देशों में संपत्ति की ख़रीद और कारोबार की अनुमति मिली हुई है. नेपाल चाहता है कि भारत जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के नागरिकों को इस तरह का अधिकार नहीं मिलना चाहिए. लेकिन नेपाल ये चाहता है कि नेपालियों को भारत में संपत्ति की ख़रीद का अधिकार मिलना चाहिए.

भारत का कहना है कि इस संधि से नेपालियों को फ़ायदा है. भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार भारत में 80 लाख नेपाली भारतीयों की तरह रहते हैं और काम करते हैं और क़रीब छह लाख भारतीय नेपाल में रहते हैं. नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री रमेशनाथ पांडे कहते हैं कि भारत को चाहिए कि वो नेपाल को ऐतिहासिक और एकतरफ़ा बोझों से मुक्त करे.

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वे कहते हैं, ''बात केवल 1950 की संधि की ही नहीं है. नेपाल के पानी से भारत को बिजली और सिंचाई ज़्यादा मिल रही है, जबकि नेपालियों को कम. नेपाल एक संप्रभु देश है और उस पर भारत का पहरा नहीं हो सकता. सीमा विवाद भी कोई आज की समस्या नहीं है. ये ऐतिहासिक विवाद हैं और इन्हें हल करने की ज़रूरत है. भारत में जब भी मज़बूत सरकार रही है, तब नेपाल को लेकर भारत की नीति एक जैसी रही है. मज़बूत सरकार से मतलब सरकार और पार्टी दोनों पर जिस प्रधानमंत्री का नियंत्रण रहा है, उनका छोटे पड़ोसी देशों के साथ व्यवहार एक जैसा रहा है. नरेंद्र मोदी, राजीव गाँधी, इंदिरा गाँधी और नेहरू तक की सरकार का छोटे पड़ोसी देशों के साथ एक जैसी नीति रही.''

क्या भारत को नेपाल में चीन की मौजूदगी से डरने की ज़रूरत है? रमेशनाथ पांडे कहते हैं, ''चीन और भारत में प्रतिस्पर्धा है, थी और रहेगी. अभी कुछ सालों से नेपाल चीन, भारत और अमेरिका के सामरिक हितों का टकराव केंद्र बना हुआ है. चीन और भारत दो ही देश हैं, जिनसे नेपाल ज़मीन से जुड़ा हुआ है. भारत को नेपाल में चीन को लेकर आशंकित होना स्वाभाविक है, लेकिन नेपाल सरकार की ज़िम्मेदारी है कि दोनों देशों के बीच समझदारी बनाए.''

क्या भारत को नेपाल से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वो खुलकर बोले कि अरुणाचल प्रदेश भारत का है और पूरा जम्मू-कश्मीर भी भारत का है? इस पर नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री रमेशनाथ पांडे कहते हैं, ''भारत को ये उम्मीद करनी चाहिए, लेकिन ये भी सोचना चाहिए कि नेपाल ने आज तक ऐसा क्यों नहीं किया. आख़िर भारत की ऐसी कौन सी नीति है, जिसकी वजह से नेपाल इस मामले में खुलकर सामने नहीं आया. इस मामले में नेपाल का स्टैंड ये है कि चीन और भारत का संबंध मधुर रहे और हम इसमें ही योगदान दे सकते हैं.''

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दोनों देशों का कारोबार

नेपाल का भारत सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है. भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2018-19 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 8.27 अरब डॉलर का रहा. हालाँकि भारत के साथ भी नेपाल का द्विपक्षीय कारोबार घाटे का है. इस अवधि में नेपाल ने भारत में महज़ 50.9 लाख डॉलर का निर्यात किया, जबकि भारत से उसका आयात 7.76 अरब डॉलर का रहा.

भारत से नेपाल पेट्रोलियम उत्पाद, मोटर-गाड़ी, स्पेयर पार्ट्स, चावल, दवा, मशीनरी, बिजली उपकरण, सीमेंट, कृषि उपकरण, कोयला और कई तरह के उत्पादों का आयात करता है. नेपाल के साथ चीन की तुलना में भारत का कारोबार आठ गुना ज़्यादा है.

नेपाल में भारत का निवेश भी बहुत बड़ा है. भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार नेपाल में कुल मंज़ूर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारत का हिस्सा 30 फ़ीसदी है. नेपाल में भारत के 150 उपक्रम काम कर रहे हैं. इनमें बैंक से लेकर कई मैन्युफैक्चरिंग कंपनियाँ तक शामिल हैं.

नेपाल अब हर हाल में भारत पर अपनी निर्भरता कम करना चाहता है. नेपाल बेटी-रोटी के संबंध वाले जुमले से अलग कहीं यथार्थ की ज़मीन पर भारत से रिश्ता बनाना चाहता है. नेपाली की चुनावी राजनीति में भारत का मुखर विरोध एक अहम राजनीतिक और चुनावी मुद्दा है.

कहा जाता है कि ओली अगर नेपाल के बड़े नेता बने, तो भारत विरोधी भावना का दोहन करके. 2015 में मोदी सरकार की अघोषित नाकेबंदी ने नेपालियों में भारत विरोधी भावना बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की. छह महीने की लंबी नाकेबंदी ने नेपाली राष्ट्रवाद में भारत विरोधी भावना को अहम कारक बनाकर रख दिया है.

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इसी नाकेबंदी के बाद प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली 20 मार्च 2016 को चीन के दौरे पर गए थे और उन्होंने भारत से निर्भरता कम करने के लिए कई समझौते किए. ओली ने कोशिश की कि चीन के साथ ट्रांजिट रूट का विस्तार व्यापक हो.

लेकिन नेपाल और चीन के संबंधों में भौगौलिक दिक़्क़ते हैं. नेपाल और भारत के बीच 27 बॉर्डर प्वाइंट्स हैं, जबकि चीन और नेपाल के बीच महज़ एक बॉर्डर प्वाइंट तातोपानी है. चीनी पोर्ट गुआंगचोऊ काठमांडू से 2,844 किलोमीटर दूर है, जबकि कोलकाता पोर्ट काठमांडू से महज़ 866 किलोमीटर ही दूर है. ऐसे में दोनों देश चाहकर भी संबंधों को विस्तार नहीं दे पा रहे हैं.

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English summary
Why is anti-India sentiment increasing in Nepal?
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