ब्रिटेन में क्यों बढ़ रहा है इस्लाम का खौफ?
लंदन हमलों के बाद संदिग्धों की पहचान मुसलमान के तौर पर होने से बढ़े सवाल और संदेह.
लंदन। हाल की घटनाओं ने दुनिया के मुसलमानों में ये एहसास ताजा कर दिया है कि इस्लाम का डर बढ़ चुका है. ये मसला महज नस्लपरस्तों और अल्पसंख्यकों का ही नहीं बल्कि समाज की एक तल्ख हकीकत भी है.
ब्रिटेन में जून से पहले तीन चरमपंथी हमलों में शामिल सारे लोग मुसलमान थे. अलबत्ता शायद मुसलमान होने से ज्यादा ये तमाम लोग भटके हुए नौजवान थे जिन्हें अपने गुस्से और मायूसी के लिए एक मकसद चाहिए था और जिन्होंने जिहादी इस्लाम का हवाला देकर लोगों का मजहब के नाम पर कत्ल किया.
अब आखिर में अधिकांश मुसलमानों और धार्मिक नेताओं ने इन जिहादियों के बारे में साफ तौर पर स्टैंड लेना शुरू कर दिया है, लेकिन शायद इसमें बहुत देर हो गई है.
हममें से ज्यादातर लोग वर्षों से ये सोचते आए हैं कि शायद जिहादी कुछ सही काम कर रहे थे क्योंकि पश्चिम और खासकर अमरीका ने दुनिया के मुसलमानों के साथ ज्यादतियां की हैं. अफगानिस्तान और इराक पर हमला किया है. मुसलमानों को मार डाला है और उनके मुल्क बर्बाद किए हैं.
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इस्लामोफोबिया
लेकिन धर्म के नाम पर होने वाले इस चरमपंथ के बारे में साफ रुख न अपनाकर हमने अपना बड़ा नुकसान किया है क्योंकि हत्यारों की हमने सही तरीके से निंदा नहीं की.
तो कुछ मुसलमानों ने जानबूझकर साफ स्टैंड नहीं अपनाया और कुछ पश्चिमी देशों के नेताओं ने बेहद गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया और इस गैर जिम्मेदारी के कारण पश्चिमी देशों में इस्लामोफोबिया या इस्लाम का डर अब खुलकर सामने आ गया है.
11 सितंबर, 2001 के हमलों को 15 साल से अधिक हो गए हैं, लेकिन सही मायने में पश्चिमी समाज में इस्लामोफोबिया अब फलफूल रहा है. पिछले दो साल की राजनीतिक घटनाओं ने इन सबमें बड़ी भूमिका निभाई है.
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प तो पिछले साल से ही इस्लाम विरोधी बातें और काम कर रहे हैं लेकिन ब्रिटेन की राजनीति में यह स्थिति हालिया सालों में बिगड़ रही है.
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दो बड़ी घटनाएं
ब्रिटेन में दो राजनीतिक घटनाएं महत्वपूर्ण हैं, जो दोनों साल 2016 में हुईं. लंदन के मेयर का चुनाव और यूरोप से निकलने के सवाल पर ब्रिटेन में जनमत संग्रह.
लंदन के मेयर के चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवार (लेबर पार्टी) के खिलाफ जिस तरह से ब्रिटिश प्रधानमंत्री तक ने 'इस्लामोफोबिया' का इस्तेमाल किया है, उसकी शायद ही कोई और मिसाल मिलती हो.
चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने सदन में सादिक खान का चरमपंथी तत्वों से संबंध जोड़ा और कहा कि 'लेबर पार्टी के उम्मीदवार चरमपंथियों के साथ एक ही मंच पर बैठ चुके हैं और मुझे उनके बारे में बहुत चिंता है.'
ये शब्द किसी अति दक्षिणपंथी या अतिवादी आंदोलन के नेता नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री के थे और उन्हीं की पार्टी के उम्मीदवार जैक गोल्डस्मिथ ने इसी इस्लामोफ़ोबिया को अपनी चुनावी मुहिम का केंद्रबिंदु बनाया.
बार-बार मुस्लिम उम्मीदवार सादिक खान का संबंध इस्लामी चरमपंथियों से जोड़कर मतदाताओं को डराया गया और हिंदू-सिख मतदाताओं को ख़ास तौर से डराते रहे कि मुस्लिम मेयर का होना उनके लिए अच्छा नहीं होगा.
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ब्रेग्जिट पर जनमत संग्रह
फिर आई जनमत संग्रह की बारी. मुख्यधारा की राजनीति में मुस्लिम विरोधी भावनाएं आप्रवासी विरोधी भावनाओं के साथ घुलमिल गई और बाहर वालों 'या आप्रवासी लोगों को कोसने या उन्हें बुरा-भुरा कहना एक तरह से स्वीकार्य हो गया.
इसमें भी राजनेताओं और सत्ताधारी दल के लोगों का एक बड़ा और बुरा किरदार था. जैसे यूरोप में होता है, वैसे ही ब्रिटेन की धुर दक्षिणपंथी पार्टियां, जिन्हें हम कम ही चुनते रहे हैं, सालों से ऐसी बातें करती रही हैं.
लेकिन ब्रिटेन में जनमत संग्रह के अवसर पर इस तरह की बातें 'मुख्यधारा' का हिस्सा बन गईं और यह ऐसा जिन्न है जो बोतल से निकलने के बाद वापस कंट्रोल में नहीं आने वाला है.
जनमत संग्रह के बाद 'बाहर वालों के खिलाफ भावनाएं कातिलाना हद तक उभरीं. यूरोपीय आप्रवासियों को निशाना बनाया गया और एक पोलिश नागरिक को मार डाला गया, पोलिश सांस्कृतिक केंद्र पर हमला किया गया और साथ में मुसलमानों और प्रवासियों के साथ 'हेट क्राइम्स' में इजाफा हुआ.
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पश्चिमी समाजों की समस्या
हेट क्राइम के मामलों की जानकारी इकट्ठा करने वाली संस्था 'टेल मामा' के अनुसार जनमत संग्रह के बाद नफरत की वजह से होने वाली घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार कई साल के बाद फिर 'पाकी' को बतौर उपहास इस्तेमाल किया गया और हिजाब पहनने वाली महिलाओं को भी विभिन्न घटनाओं में निशाना बनाया गया.
11 सितंबर के बाद की अवधि में यह सोच तो बढ़ रही थी कि मुसलमान पश्चिमी समाज के लिए एक समस्या है और उनकी सोच और धर्म का पश्चिमी समाज के मूल्यों से तालमेल नहीं है. लेकिन इस ख्याल को मुख्यधारा में लाने से स्थिति और बिगड़ गई है.
लंदन में फिंसबरी पार्क मस्जिद के पास हमले में प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि हमलावर ने मुसलमानों से नफरत का इजहार किया और गाड़ी लोगों पर चढ़ा दी.
इससे पहले वेस्टमिंस्टर, मैनचेस्टर एरीना और लंदन ब्रिज के पास होने वाले हमलों के बाद लोगों ने खुलेआम मुसलमानों को कसूरवार ठहराना शुरू कर दिया.
पुलिस के अनुसार मैनचेस्टर हमले के बाद मुसलमानों के खिलाफ नफरत की वजह से होने वाले हमलों में पांच गुना वृद्धि देखने को मिली.
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नाकाफी कोशिशें
साल 2011 में ब्रिटेन में सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी की चैयरमैन और कैबिनेट की पहली मुस्लिम महिला बैरनीस सईदा वारसी ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि 'ब्रिटेन में मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह समाज में काफी हद तक स्वीकार्य बन चुका है और यह रवैया 'डिनर टेबल टेस्ट पास कर चुका है.'
सईदा वारसी ने इस बात की ओर इशारा किया कि मुसलमानों को केवल या तो इंतेहापसंद या रूढ़िवादी या फिर 'अति आधुनिक' और धर्म से दूर रहने वालों के रूप में देखा जाता है, और इन दोनों विरोधी विचारों के बीच सोच रखने वाले ब्रिटिश मुसलमानों को जान-बूझकर नजरअंदाज किया जाता है.
साल 2014 में सईदा वारसी ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था और इस साल उन्होंने 'मुस्लिम ब्रेटन, द एनिमी विद इन?' नाम से एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने अनुभव बताया है.
मेयर सादिक खान भी अपने आप को मुसलमान से अधिक लंदन का शहरी और टूटिंग का निवासी बताते हैं. लेकिन इन कुछ नेताओं की कोशिश नाकाफी है.
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