दुनिया का तीसरा सबसे रईस आदमी भारत में पैसा क्यों नहीं लगाता?
शेयरों से मुनाफ़ा कैसे कमाया जाता है? इसका सही और सटीक फॉर्मूला अगर किसी के पास है तो वो हैं वॉरेन बफ़े.
जी हां, वॉरेन बफ़े, जो दुनिया के सबसे अमीर निवेशक हैं.
वॉरेन बफ़े के पास ख़रबों रुपये के शेयर्स हैं और फ़ोर्ब्स मैगजीन के अरबपतियों की ताज़ा सूची में वो 87 अरब 70 करोड़ डॉलर की निजी संपत्ति के साथ दुनिया के तीसरे सबसे अधिक अमीर हैं.
- वॉरेन बफ़े की होल्डिंग कंपनी बर्कशायर हैथवे के पास 116 अरब डॉलर का कैश
- भारत की सबसे बड़ी बाज़ार पूंजी टीसीएस को ख़रीदने के लिए पर्याप्त कैश
- बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज यानी बीएसडी में सूचीबद्ध 5 फ़ीसदी कंपनियों को ख़रीदने की क्षमता
- बर्कशायर हैथवे की बाज़ार पूंजी थाईलैंड, ईरान, ऑस्ट्रिया, नॉर्वे की जीडीपी से अधिक
शेयरों से मुनाफ़ा कैसे कमाया जाता है? इसका सही और सटीक फॉर्मूला अगर किसी के पास है तो वो हैं वॉरेन बफ़े.
जी हां, वॉरेन बफ़े, जो दुनिया के सबसे अमीर निवेशक हैं.
वॉरेन बफ़े के पास ख़रबों रुपये के शेयर्स हैं और फ़ोर्ब्स मैगजीन के अरबपतियों की ताज़ा सूची में वो 87 अरब 70 करोड़ डॉलर की निजी संपत्ति के साथ दुनिया के तीसरे सबसे अधिक अमीर हैं.
हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बफ़े की होल्डिंग कंपनी बर्कशायर हैथवे के पास अभी 116 अरब डॉलर यानी करीब 7.65 लाख करोड़ रुपये की नकदी है. यानी ये रकम भारत के घरेलू बैंकों के करीब 9 लाख करोड़ रुपये के डूबे हुए कर्ज़ (एनपीए) से कुछ ही कम है.
बफ़े की होल्डिंग कंपनी के पास इतनी नकदी है कि वो भारत की सबसे अधिक बाज़ार पूंजी वाली कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ यानी टीसीएस को आसानी से ख़रीद सकती है. टीसीएस की बाज़ार पूंजी हाल ही में 100 अरब डॉलर के पार पहुंची है और इस क्लब में शामिल होने वाली वो इकलौती भारतीय कंपनी है.
31 दिसंबर 2017 को बर्कशायर हैथवे के घोषित पोर्टफोलियो के मुताबिक बफ़े की अमरीकन एयरलाइंस में करीब 10 फ़ीसदी हिस्सेदारी है, तो एप्पल में पौने पांच फ़ीसदी, अमरीकन एक्सप्रेस में उनका साढ़े 17 फ़ीसदी से अधिक हिस्सा है और एक्साल्टा कोटिंग सिस्टम में करीब साढ़े 9 फ़ीसदी की हिस्सेदारी है.
भारत में निवेश न करने की वजह?
लेकिन सवाल ये है कि निवेश की अपनी सटीक रणनीति से दुनियाभर में अपना लोहा मनवा चुके वॉरेन बफ़े भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में निवेश क्यों नहीं करते.
वो भी तब जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ़ और वर्ल्ड बैंक जैसी नामचीन संस्थाएं भारत और चीन को सबसे तेज़ अर्थव्यवस्थाओं में गिन रही हैं.
क्या वजह है कि वॉरेन बफ़े अपनी रणनीति में बदलाव करने को तैयार नहीं हैं और सिर्फ़ और सिर्फ़ विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ही निवेश करते हैं.
बाज़ार के जानकारों से इस सवाल का जवाब ढूंढने से पहले ये जान लेते हैं कि आख़िर वॉरेन बफे शेयर बाज़ार के बेताज बादशाह बने कैसे?
कौन हैं वॉरेन बफ़े
वॉरेन बफ़े का जन्म 30 अगस्त 1930 को ओमाहा के नेब्रास्का कस्बे में हुआ था. ओमाहा का होने के कारण ही उन्हें ऑरेकल ऑफ़ ओमाहा भी कहा जाता है.
उनका एप्पल में निवेश है, लेकिन उनके पास आईफ़ोन नहीं है. आईफ़ोन क्या, उनके पास कोई भी स्मार्टफ़ोन नहीं है और वो अभी तक पुराना फ्लिप फ़ोन इस्तेमाल करते हैं.
साल 2013 में एक टेलीविजन इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "मैं कुछ भी नहीं फेंकता, जबतक कि उसे 20-25 साल अपने पास नहीं रख लेता." फिर उन्होंने अपना फोन दिखाते हुए कहा था, "ये अलेक्जेंडर ग्राहम बेल ने मुझे दिया था."
87 साल के बफ़े ने 11 साल की उम्र में अपना पहला शेयर ख़रीदा था और दो साल बाद ही उन्होंने पहली बार टैक्स भी फ़ाइल कर दिया.
निजी जेट है लेकिन चलते पुराने कार से
आज भले ही पूरी दुनिया बफ़े की व्यापार समझ और निवेश रणनीति का लोहा मानती हो, लेकिन नामचीन हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल ने उन्हें दाखिला देने से इनकार कर दिया था. इसके बाद बफ़े ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की डिग्री हासिल की.
बिज़नेस मैगजीन फ़ोर्ब्स के मुताबिक, बफ़े ने अपना तीन बेडरूम वाला मकान 1958 में नेब्रास्का में 31 हज़ार 500 डॉलर में खरीदा था और आज भी वो उसी घर में रहते हैं.
साल 2014 तक बफ़े अपनी आठ साल पुरानी कार से ही चलते थे. बाद में जनरल मोटर्स के सीईओ ने किसी तरह उन्हें नई अपग्रेडेड कार लेने के लिए मनाया. हालाँकि बफ़े के पास अपना निजी जेट है, जिसका इस्तेमाल वो बिज़नेस मीटिंग्स के लिए करते हैं.
बफ़े ने जीवनभर पैसा कमाया और जमकर कमाया. लेकिन उन्हें इस कमाई गई दौलत का मोह नहीं है. वो अपनी कमाई गई दौलत का 99 फ़ीसदी दान कर चुके हैं. इसके लिए उन्होंने अपने नाम का फाउंडेशन या ट्रस्ट नहीं बनाया है, बल्कि इसे बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन को दान कर दिया है.
उभरती अर्थव्यवस्थाओं में निवेश न करने की वजह
अब मूल सवाल पर लौटते हैं कि वॉरेन बफ़े भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में निवेश क्यों नहीं करते.
बाज़ार के जानकारों का कहना है कि बफ़े की रणनीति हमेशा जोखिम वाले निवेश से बचने की रही है और वो लंबी अवधि का निवेश ही करते हैं.
विवेक मित्तल बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि बफ़े भारत जैसे बाज़ारों पर दांव लगाना ही नहीं चाहते. उनकी होल्डिंग कंपनी बर्कशायर हैथवे ने 2010-11 में भारत के बीमा कारोबार में उतरने की कोशिश भी की थी. भारत ने बीमा क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के दरवाज़े खोले थे, लेकिन दो साल तक कोशिशें करने के बाद हैथवे ने अपने हाथ खड़े कर दिए.
मित्तल का कहना है कि लालफीताशाही अब भी बरकरार है और बफ़े क्योंकि अमरीका, जापान जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करते हैं, वो यहां काग़जी औपचारिकताओं से निपटने को एक मुश्किल के रूप में देख सकते हैं.
अर्थशास्त्री सुनील सिन्हा का कहना है कि भारत और चीन जैसी अर्थव्यवस्थाओं की ग्रोथ भले ही बहुत तेज़ हो, लेकिन नीतियों और प्रशासनिक ढाँचे के मामले में अब भी काफ़ी दिक्कतें हैं. यहाँ सब कुछ राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है. एक सरकार कोई नीति बनाती है तो चुनावों में दूसरी पार्टी उसे ही मुद्दा बनाकर उसे ख़ारिज कर देती है, ऐसे में बफ़े जैसे बड़े निवेशकों का भरोसा जीत पाना मुश्किल होता है.
एक ब्रोकरेज़ फर्म में बतौर रिसर्च हैड काम कर रहे आसिफ़ इक़बाल बताते हैं कि वॉरेन बफ़े की रणनीति एकदम अलग है. वो दुनिया की सबसे बेहतरीन प्रबंधन वाली कंपनियों पर दांव लगाते हैं, साथ ही उनकी एक और शर्त होती है कि जिस कंपनी में निवेश कर रहे हैं, वो उन्हें अच्छी वैल्युएशन पर मिले.
इक़बाल कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि बफ़े को भारत और चीन जैसी आर्थिक महाशक्तियों की ताक़त का अंदाज़ा नहीं है. लेकिन वो चाइनीज़ या भारतीय कंपनियों में सीधे निवेश न कर उसी क्षेत्र में दुनिया की दिग्गज़ कंपनियों पर दांव लगाते हैं. मसलन बफ़े का निवेश तेल-गैस क्षेत्र की कंपनी एक्जॉन में है और ये दुनिया की सबसे बड़ी तेल-गैस कंपनी है. बफ़े की रणनीति ये होगी कि एक्ज़ॉन ही भारत या चीन की दिग्गज कंपनियों में हिस्सेदारी ख़रीदे, फिर चाहे वो रिलायंस इंडस्ट्रीज़ हो या कोई और?"
इसके अलावा सुनील सिन्हा का ये भी मानना है कि बफ़े अमरीकी कंपनियों की नब्ज बहुत अच्छी तरह जानते हैं.
सिन्हा कहते हैं, "एक और जोखिम है वो है एक्सचेंज रेट का, जो कि उस देश की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करता है. कंपनियों की कॉर्पोरेट गवर्नेंस और पारदर्शिता भी एक पहलू है. भारतीय और चीनी कंपनियों का कॉर्पोरेट गवर्नेंस उस स्तर का नहीं है. किंगफ़िशर, जेपी ग्रुप को ही ले लीजिए. बैंकों से इन्होंने हज़ारों करोड़ रुपये का कर्ज़ लिया और ये डूब गया."
सुनील सिन्हा का कहना है कि रेग्युलेशन भी एक बड़ी वजह हो सकती है, जो बफ़े को भारत और चीन से दूर रखे हुए है.
सिन्हा कहते हैं, "अमरीका जैसे विकसित देशों में क़ायदे-क़ानूनों को लेकर लचर रुख नहीं अपनाया जाता. फिर चाहे तो पर्यावरण क्लीयरेंस का मामला हो या दूसरी रेग्युलेटरी मंज़ूरियां. भारत में अभी इनपर पारदर्शिता की कमी है."
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