चीन को अमरीका अपने लिए ख़तरा क्यों मानता है? जानिए पाँच महत्वपूर्ण कारण
अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी एफ़बीआई के निदेशक ने कहा है कि चीन अमरीका के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है. अमरीका चीन को अपने लिए कितना बड़ा ख़तरा समझता है.
पूरी ख़बर पढ़ने से पहले एक नज़र डालते हैं हाल ही में अमरीका के कुछ अहम फ़ैसलों पर -
7 जुलाई : मंगलवार को अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से ख़ुद को बाहर करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. एक साल के अंदर ये प्रक्रिया पूरी हो जाएगी.
7 जुलाई : दूसरा फ़ैसला लिया उन चीनी अधिकारियों पर वीज़ा प्रतिबंध लगाने का, जो पत्रकार, सैलानी, राजनयिक और दूसरे अमरीकी अधिकारियों को तिब्बत जाने से रोकने के लिए ज़िम्मेदार हैं. हालाँकि अमरीका ने ये स्पष्ट नहीं किया है कि ऐसे अधिकारियों की तादाद कितनी है.
7 जुलाई: भारत की तरह ही अमरीका भी टिकटॉक पर बैन लगाने की बात कर रहा है.
5 जुलाई: भारत-चीन सीमा तनाव पर भी अमरीका के विदेश मंत्री ने भारत का साथ देने की बात खुलकर कही.
4 जुलाई : अमरीका ने एक बार फिर तीन जहाज़ दक्षिण चीन सागर इलाक़े में भेजे थे, जिस पर चीन अपना दावा करता आया है और चीन की सेना ड्रिल कर रही है.
2 जुलाई: उससे पहले हॉन्गकॉन्ग में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लागू करने के चीन के फ़ैसले के बाद भी अमरीका की प्रतिनिधि सभा ने हॉन्गकॉन्ग से संबंधित नए प्रतिबंधों को मंज़ूरी दी है. प्रतिनिधि सभा में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव में कहा गया है कि चीन के अधिकारियों के साथ जो भी बैंक बिज़नेस करेंगे, उन पर जुर्माना लगाया जाएगा.
30 जून: अमरीका के फ़ेडरल कम्युनिकेशंस कमिशन (एफसीसी) ने 30 जून को ख़्वावे टेक्नोलॉजीज़ कंपनी और ज़ेडटीई कॉरपोरेशन को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बताते हुए बयान जारी किया है. 5G के क्षेत्र में इन कंपनियों का वर्चस्व पूरी दुनिया मानती है.
27 जून: इसके अलावा अमरीका ने जर्मनी से सैनिकों को कम कर इंडो- पैसिफ़िक क्षेत्र में तैनाती का फ़ैसला भी जून के अंत में किया.
23 जून: उससे पहले अमरीका ने H-1B वीज़ा पर इस साल के अंत तक रोक लगाने का फ़ैसला किया, जिसका सबसे अधिक असर चीन और उसके बाद भारत के नागरिकों पर पड़ेगा.
पिछले 15 दिनों में अमरीका की तरफ़ से आए ये तमाम बयान और फ़ैसलों का वास्ता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चीन से है.
अमरीका और चीन के बीच की तकरार वैसे तो नई बात नहीं है, लेकिन कोविड-19 महामारी के दौर में पिछले छह महीनों में खुलकर सामने आई है.
कोविड-19 पूरे विश्व में और ख़ासतौर पर अमरीका में जिस स्तर पर तबाही मचाई है उसके लिए अमरीकी राष्ट्रपति कई बार चीन को सीधे दोषी करार दे चुके हैं. उन्होंने चीन पर इस बीमारी को लंबे समय तक छिपाए रखने का आरोप लगाया.
राष्ट्रपति ट्रंप ने तो विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी नहीं बख़्शा और संगठन पर चीन को बचाने का आरोप भी लगाया. कोरोना वायरस को अक्सर अपने ट्वीट में वो 'चाइना वायरस' कहकर ही संबोधित करते हैं.
कभी तिब्बत, कभी हॉन्गकॉन्ग, कभी साउथ चाइन सी और कभी भारत के बहाने चीन के ख़िलाफ़ ऐसी कई कोशिशें अमरीका ने की है.
और अब तो खुलकर अमरीका के एफ़बीआई निदेशक ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है.
एफ़बीआई के डायरेक्टर क्रिस्टोफ़र रे ने वॉशिंगटन के हडसन इंस्टीच्यूट में चीन सरकार की जासूसी और सूचनाओं की चोरी को अमरीका के भविष्य के लिए "अब तक का सबसे बड़ा दीर्घकालीन ख़तरा" बताया.
लेकिन अमरीका चीन को अपने लिए ख़तरा क्यों मानता है? इस सवाल के जवाब जानने के लिए थोड़ा इतिहास में जाना पड़ेगा.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में दो देश बड़ी महाशक्ति बनकर उभरे. एक अमरीका और दूसरा सोवियत संघ. फिर इन दोनों देशों के बीच शीत युद्ध की शुरुआत हुई, जो 1990 तक चला.
उसके बाद सोवियत संघ में बिखराव आ गया, उसका अंत हुआ और एक शक्ति के रूप में रूस ही आगे आ पाया. सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका ख़ुद को अकेला सुपरपावर मानने लगा. लेकिन 1990 से 2020 तक अब परिस्थितियों में काफ़ी बदलाव आया है.
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आर्थिक महाशक्ति
बीबीसी ने अमरीका के चीन से डर या ख़तरे को समझने के लिए बात की सुधींद्र कुलकर्णी से. सुधींद्र कुलकर्णी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सलाहकार रह चुके हैं. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि अमरीका अब एक ऐसा सुपरपावर बन कर रह गया है, जिसकी हैसियत दिन प्रतिदिन गिरती जा रही है.
इस पूरी प्रक्रिया को सुधींद्र अंग्रेजी में कहते हैं - "डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट एंड राइज़ ऑफ द रेस्ट " यानी पश्चिम का दबदबा ख़त्म हो रहा है और पूरे विश्व के बाक़ी देशों का वर्चस्व बढ़ रह है. और इन बाक़ी देशों की श्रेणी में चीन सबसे आगे है. अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से चीन विश्व की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था तो है ही.
सुधींद्र कुलकर्णी मानते हैं कि अगले 10 साल में अमरीका को डर है कि अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से चीन उसे पीछे ना छोड़ दे. और यही है अमरीका को चीन से ख़तरे की सबसे बड़ी वजह.
जानकारों की राय में अमरीका आज की तारीख़ में 17 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है. और चीन उससे थोड़ा ही पीछे है 12-13 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ. अर्थव्यवस्था का यही घटता गैप अमरीका की बढ़ती चिंता का सबब है.
पिछले दो साल से अमरीका ने चीन के साथ ट्रेड वॉर चल रहा है. उसका आरोप है कि चीन व्यापार में ग़लत हथकंडे अपनाता है. अमरीका के एफबीआई डायरेक्टर का ताज़ा बयान भी इस ओर इशारा करता है.
भारत के विदेश मंत्रालय के पूर्व प्रवक्ता नवतेज सरना कहते हैं कि अमरीका ने अब चीन की असलियत जान ली है. और यही वजह है कि अमरीका चीन से सचेत हो गया है. उनके मुताबिक़ अमरीका मानता है कि चीन की खुफ़िया जानकारी उपलब्ध कराने की जो पॉलिसी है, डेटा चोरी की जो पॉलिसी है और अमरीका के रिसर्च चोरी करने की पॉलिसी है, उसके विरुद्ध कड़ी कार्यवाई करने का वक़्त आ गया है. अब तक अमरीका और चीन के रिश्ते थे, उसका फ़ायदा उठा कर, चीन उस रिश्ते की आड़ में इस तरह की सेंधमारी कर रहा है. कोरोना संकट के दौर में चीन अमरीका की फ़ार्मा कंपनियों और वैक्सीन संबंधित रिसर्च को बिगाड़ने की कोशिश में लगा हुआ है. चीन ना केवल दूसरे मोर्चों पर आक्रामक हो रहा है, बल्कि अमरीका के साथ अपने रिश्तों को खुद़ के फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा है. चीन ये सब ग्लोबल पॉवर बनने के लिए कर रहा है.
तकनीक के क्षेत्र में चीन सुपरपावर
2015 में चीन सरकार ने 10 साल का एक विज़न रखा था, जिसका मक़सद है चीन को उद्योग और तकनीक के क्षेत्र में ताक़तवर बनाना. इस मिशन को उन्होंने नाम दिया 'मेड इन चाइना 2025' .
चीन खुले तौर पर कह चुका है कि वो सस्ते जूते, कपड़े और खिलौने सप्लाई करने वाली अपनी छवि को बदलना चाहता है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी अपनी मंशा स्पष्ट कर चुके हैं कि वो चीन को साइबर पावर बनाना चाहते हैं.
चीन की स्टार्टअप कंपनियों को टैक्स में छूट मिलती है, सरकारी कॉन्ट्रैक्ट मिलते हैं, दफ़्तर के लिए जगह मिलती है. चीन की सरकार बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर काम कर रही है जैसे बाइडू, अलीबाबा, टेनसेंट. इसी तरह चीन आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस स्टार्टअप्स के लिए सबसे बड़ा कैपिटल मार्केट बन गया है. चीन के पास फ़ायदा है डेटा का और सस्ते श्रम का.
दूसरा चीन पूरी दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण सप्लाई चेन है. इसके शेनज़ेन और गुआंगज़ोऊ शहर में लगभग हर चीज़ का कंपोनेंट बनता है. लगभग सभी स्मार्टफ़ोन्स की चिप चीन में बनती है. इस वजह से दुनिया भर की तकनीक में चीन का एक्सेस है. ड्रोन तकनीक को ही लीजिए.
अमरीका ने अपनी ड्रोन तकनीक किसी भी देश को देने से इनकार किया है. तो चीन ने इसके उलट एलान कर डाला कि वो अपनी ड्रोन तकनीक को दूसरे देशों को निर्यात करेगा.
चीन दुनिया भर में ड्रोन के एक मुख्य सप्लायर के रूप में उभरा है. इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ के मुताबिक़ चीन ने मिस्र, नाइजीरिया, पाकिस्तान, सऊदी अरब और बर्मा को ड्रोन बेचे हैं.
द इकॉनोमिस्ट के मुताबिक़ चीन ने पिछले 20 सालों में किसी भी देश से ज़्यादा तेज़ी से न्यूक्लियर प्लांट बनाए हैं. चीन में 43 जीगावाट कैपेसिटी के न्यूक्लियर प्लांट हैं और वो सिर्फ़ अमरीका और फ्रांस से पीछे हैं.
अब अमरीका चीन पर आर्थिक जासूसी करने का आरोप भी लगा रहा है. एफ़बीआई के डायरेक्टर क्रिस्टोफ़र रे ने मंगलवार को कहा कि चीन अवैध राजनीतिक गतिविधियों में जुटा है जिनके तहत वो रिश्वत और ब्लैकमेल के सहारे अमरीकी नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है.
अमरीका के चीन को ख़तरनाक मानने की ये है दूसरी वजह. अमरीका तकनीक के मामले में भले ही अभी चीन से आगे हो लेकिन चीन ने उस गैप को भरने की कोशिशें काफ़ी तेज़ कर दी है.
अमरीका की अंदरूनी राजनीति
चीन से ख़तरे की तीसरी वजह है अमरीका की अंदरूनी राजनीति.
सुपरपावर होने के बावजूद कोरोना संक्रमण के मामले में अमरीका दुनिया का नंबर एक देश है.
चीन जहाँ से कोरोना संक्रमण के मरीज़ सबसे पहले पाए गए, वहाँ मामले कम निकले. एक लाख से भी कम. यही वजह है कि चीन ये दावा करता रहा है कि हमने अपने यहाँ कोरोना महामारी को कंट्रोल में रखने में सफलता हासिल की है.
अमरीका की ट्रंप सरकार को समझ नहीं आ रहा कि अपनी ज़िम्मेदारी से कैसे पल्ला झाड़े?
यही वजह है कि कोरोना पर प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान कई बार राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चीन पर भड़के. इस वजह से अमरीका को आर्थिक मोर्चे पर बहुत नुक़सान उठाना पड़ा है.
नवंबर में अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं जिसमें वर्तमान सरकार ने इस संकट को कैसे संभाला है - ये एक अहम मुद्दा बनने वाला है.
सुधींद्र कुलकर्णी के मुताबिक़ पिछले दिनों अमरीका में #blacklivesmatter की जो मुहिम चली उससे एक बात स्पष्ट हो गई कि अमरीका की जनता में एकजुटता भी नहीं है.
इसलिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चारों तरफ़ से घिरते नज़र आ रहे हैं.
जनसंख्या
अंग्रेज़ी में एक कहावत है- 'डेमोग्रेफी इज़ डेस्टिनी' यानी जिस देश के पास मनुष्यबल अधिक है उस देश कि शक्ति आज या कल या परसों बढ़ेगी ही.
इस लिहाज़ से देखें तो अमरीका की जनसंख्या 40 करोड़ के आस-पास है. वहीं चीन की आबादी 140 करोड़ है.
सुधींद्र कुलकर्णी मानते हैं कि कोई भी देश हमेशा के लिए सुपरपावर तो बनकर नहीं रह सकता. चीन ने अपनी जनसंख्या के बूते काफ़ी कुछ ऐसा हासिल किया है जिसके लिए अमरीका को दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है.
इस बात को बहुत से जानकार खुलकर स्वीकार नहीं करते. लेकिन सुधींद्र कुलकर्णी चीन के सुपरपावर होने की दिशा में जनसंख्या को भी एक अहम कारण मानते हैं.
सैन्य महाशक्ति
भारत-चीन सीमा तनाव के बीच अमरीका ने एलान किया कि चीन से भारत और दक्षिण-पूर्वी एशिया में बढ़ते ख़तरों को देखते हुए अमरीका जर्मनी से अपनी सेना की संख्या कम करने जा रहा है.
अमरीका का इतिहास ग़ौर से देखें तो दुनिया भर में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए उसने कई जगहों पर सैनिक भेजे हैं.
सुधींद्र कुलकर्णी कहते हैं कि पिछले तीन दशकों में अमरीका ने एक बड़े युद्ध में हिस्सा लिया ही है. फिर चाहे वियतनाम युद्ध की बात हो, इराक़ की बात हो अफ़ग़ानिस्तान की बात हो. अमरीका अपनी सैन्य शक्ति पर जीडीपी का सबसे बड़ा हिस्सा ख़र्च करता है.
दुनिया में सबसे ज़्यादा डिफ़ेंस पर ख़र्च करने वाले नीचे के 10 देशों को एक साथ मिला भी दें, उससे अधिक अमरीका अपनी सेना पर अकेले ख़र्च करता है.
इस ख़र्च की वजह से भी अमरीका की ताक़त कम हो रही और अमरीका ने हाल के दिनों में इसमें कटौती के कई एलान भी किए हैं.
जर्मनी से सैनिकों को कम करने के एलान को भी इससे जोड़ कर ही देखा जा रहा है. अफग़ानिस्तान में इसी साल फ़रवरी में शांति समझौते के पीछे जानकार इसे महत्वपूर्ण मानते हैं.
फ़िलहाल चीन की तरफ़ से अमरीका को इस क्षेत्र में भी चुनौती मिलती दिख रही है. चीन भी अपने क्षेत्र और प्रभुत्व के विस्तार की नीति में लगा है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल की अपने लेह दौरे में चीन का नाम लिए बिना इस ओर इशारा किया था.