कोई पाकिस्तान का वज़ीर-ए-आज़म आख़िर क्यों बनना चाहता है
साल 1999 की बात है. मियां नवाज़ शरीफ ताक़तवर वज़ीर-ए-आज़म थे. उन्होंने कई जनरलों को दरकिनार करके मुशर्रफ़ को जनरल बनाया जो पंजाबी नहीं थे.
जब नवाज़ शरीफ़ ने अपने ही बनाए हुए जनरल मुशर्रफ़ की छुट्टी करने की कोशिश की तो पता चला कि वे इतने भी ताक़तवर नहीं हैं जितना समझते हैं.
साल 1999 की बात है. मियां नवाज़ शरीफ ताक़तवर वज़ीर-ए-आज़म थे. उन्होंने कई जनरलों को दरकिनार करके मुशर्रफ़ को जनरल बनाया जो पंजाबी नहीं थे.
जब नवाज़ शरीफ़ ने अपने ही बनाए हुए जनरल मुशर्रफ़ की छुट्टी करने की कोशिश की तो पता चला कि वे इतने भी ताक़तवर नहीं हैं जितना समझते हैं.
नवाज़ शरीफ़ विमान में थे, हवा में ही थे कि जनरल मुशर्रफ़ ने मार्शल लॉ लागू कर दिया और अपने आप को चीफ़ एग्ज़िक्यूटिव कहलवाने लगे.
जब नवाज़ को छोड़ना पड़ा पाकिस्तान
दिल्ली में पैदा हुए मुशर्रफ़ दिलवाले थे. उन्होंने पहले नवाज़ शरीफ को जेल में डाला, अमरीकी यारों ने बीच-बचाव करके नवाज़ शरीफ़ को माफ़ी दिलाई और सऊदी अरब जाने का इंतज़ाम हुआ.
एक पत्र पर दस्तखत हुए, देश निकाला मिला और सऊदी अरब के बादशाह ने थोड़ी ढील दी तो मियां जी लंदन पहुंच गए.
कुछ दिनों तक सूट-बूट पहन कर लंदन घूमते रहे और फिर कहा कि 'मैं इस्लामाबाद जा रहा हूँ'. उन्होंने अपने हिमायतियों को हुक्म दिया कि 'मैं आ रहा हूँ और आप भी एयरपोर्ट पहुंचें.'
कई दूसरे पत्रकारों की तरह मैं भी उसी जहाज में बैठ कर इस्लामाबाद गया. जहाज़ में दुआ करवाई गई, मियां जी के नारे लगे. मियां जी ने छोटी-सी तकरीर भी की. एक लड़के ने थोड़ा जज़्बाती हो कर गाना गाया, 'सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है.'
इस्लामाबाद उतरे तो पता चला कि मुशर्रफ़ के बाज़ुओं में कुछ ज़्यादा ही दम है. उसने ऐसा डंडा चलाया कि एयरपोर्ट पर न कोई बंदा न बंदे की ज़ात. हर तरफ़ फ़ौज ही फ़ौज, पुलिस ही पुलिस.
मियांजी का एक भी हिमायती एयरपोर्ट पर नहीं पहुंच सका. मियांजी को जहाज़ से उतारा गया और कैमरे वालों को ज़रा इधर-उधर करके, डंडा-सेवा करके जहाज़ में ठूँस कर वापस सऊदी अरब भेज दिया गया.
नवाज़ शरीफ़ के कर्म अच्छे थे कि उनकी क़िस्मत ने पलटी खाई और फिर से वज़ीर-ए-आज़म बने पर पुराने ज़ोरावरों को रास नहीं आए.
पाकिस्तान के बहादुर जरनैलों और मुँहज़ोर जजों ने उन्हें निकाल कर बाहर कर दिया और अब सज़ा भी सुना दी है.
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वज़ीरे आज़मों को आखिर क्या हासिल हुआ
मियांजी एक बार फिर जहाज़ में बैठ कर लंदन से लाहौर पहुंचने वाले हैं. अपने समर्थकों को भी बोल दिया गया है कि वे भी पहुंचें.
अब तक यह समझ नहीं आया कि कोई वज़ीर-ऐ-आज़म बनना क्यों चाहता है?
हमारे पहले वज़ीर-ए-आज़म लियाकत अली थे. उन्हें गोली मार दी गई और फिर गोली मारने वाले को भी गोली मार दी गई.
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फिर भुट्टो आए जिनके बारे में 'फ़क्र-ए-एशिया' के नारे लगते थे. उन्हें फांसी लगी. उनकी बेटी दो बार वज़ीर-ए-आज़म बनीं. वह इस तरह खो गईं कि सड़क से उनका लहू इतनी जल्दी साफ़ किया गया कि आज तक उनके क़ातिल का कुछ पता नहीं चला.
जिस मुशर्रफ़ ने नवाज़ शरीफ़ की डंडा-सेवा करवाई थी, वह दुबई में बैठा हँस रहा होगा. अभी सुना है कि वो लंदन जा रहे हैं, उसी लंदन से मियां जी लाहौर की तरफ़ चलने वाले हैं. जेल तो जाना ही है, बस इतनी दुआ करो कि अपने पैरों पर चल कर जाएं और उनकी डंडा-सेवा ना हो.
फिर भी समझ में नहीं आया कि पाकिस्तान का वज़ीर-ए-आज़म बनकर क्या हासिल होगा.