सऊदी अरब और ईरान में कौन है ताक़तवर?
दोनों देशों में जारी तनाव के बीच युद्ध हुआ तो किसकी सेना किस पर पड़ेगी भारी.
मध्य पूर्व में एक तरफ़ इसराइल और मुस्लिम देशों का टकराव है तो दूसरी तरफ़ शिया बहुल ईरान और सुन्नी बहुल सऊदी अरब की भी दुश्मनी है.
इसी दुश्मनी की बुनियाद पर कहा है जा रहा है कि इसराइल और सऊदी अरब के बीच दोस्ती बढ़ रही है.
इधर के सालों में सऊदी अरब और ईरान के बीच दुश्मनी बढ़ी है. यमन इन दोनों देशों के लिए युद्ध का मैदान बना हुआ है. यमन में सऊदी की नेतृत्व वाली सेना है और दूसरी तरफ़ हूथी विद्रोही हैं.
ईरान पर आरोप है कि वो यमन में हूथी विद्रोहियों की मदद कर रहा है.
क्या दोनों देश यमन से आगे बढ़ ख़ुद सीधे तौर पर भविष्य में आमने-सामने होंगे? अगर ऐसा होता है तो जीत किसकी होगी?
सऊदी अरब और ईरान के बीच अगर युद्ध हुआ तो क्या होगा?
सऊदी और इसराइल की दोस्ती से ईरान का क्या बिगड़ेगा?
यमन के अखाड़े में ईरान और सऊदी का मुक़ाबला
ज़ाहिर है जीत केवल अपनी सैन्य शक्ति पर निर्भर नहीं करती है बल्कि दुनिया के शक्तिशाली देश किस पाले में हैं ये ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं. इस मामले में भी दुनिया की ताक़तें बंटी हुई हैं. जहां दुनिया के सबसे ताक़तवर देश अमरीका सऊदी के साथ है तो रूस ईरान के साथ.
सीरिया में अमरीकी नेतृत्व वाले खेमे की हार और रूसी खेमे वाली सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की सेना की जीत के बाद मध्य-पूर्व में शक्ति का स्वरूप बदला है. अमरीका और सऊदी बशर अल-असद को हटाने में लगे रहे लेकिन रूस और ईरान इन पर भारी पड़े.
ऐसे में सवाल उठता है कि युद्ध के मैदान में सऊदी पर ईरान भारी पड़ेगा या ईरान पर सऊदी? इसे हम दोनों देशों की सैन्य सामर्थ्य के आधार पर भी समझ सकते हैं.
क्या कहते हैं तथ्य
- ईरान के पास पांच लाख 63 हज़ार सशस्त्र बल हैं जबकि सऊदी के पास दो लाख 51 हज़ार 500 हैं.
- ईरान के पास एक हज़ार 513 युद्धक टैंक हैं जबकि सऊदी के पास 900.
- ईरान के पास 6 हज़ार 798 तोपख़ाने हैं जबकि सऊदी के पास महज 761.
- ईरान के पास 336 लड़ाकू विमान हैं, हालांकि ये पुराने हैं और इनकी मरम्मत की ज़रूरत है.
- सऊदी के पास 338 आधुनिक लड़ाकू विमान हैं.
- ईरान के पास 194 गश्ती नाव हैं और सऊदी के पास 11 ही हैं.
- ईरान के पास 21 युद्धपोत हैं जबकि सऊदी के पास एक भी नहीं है.
- ईरान के पास कोई युद्धपोत विनाशक नहीं है जबकि सऊदी के पास 7 हैं.
क्या ईरान और सऊदी अरब के बीच युद्ध छिड़ सकता है
अभी तक तेहरान और रियाद प्रॉक्सी वॉर करते आए हैं, दोनों में से कोई भी सीधी लड़ाई के लिए तैयार नहीं है. सऊदी अरब की राजधानी पर यमन से एक और रॉकेट गिरने के बाद समीकरण बदला है.
खाड़ी के पानी में दोनों देशों में सीधा संघर्ष हो सकता है. लेकिन यहां भी ख़तरा हो सकता है क्योंकि अमरीका और अन्य पश्चिमी शक्तियों के लिए, खाड़ी में नेविगेशन की आज़ादी आवश्यक है.
लंबे समय से अमरीका और उसके सहयोगियों ने ईरान को मध्य पूर्व में एक अस्थिरता फैलाने वाले देश की तरह देखा है. सऊदी अरब भी ईरान को एक ख़तरे की तरह देख रहा है और क्राउन प्रिंस जो भी कार्रवाई ज़रूरी हो, वो लेना चाहते हैं.
इनके क्षेत्रीय समर्थक कौन हैं.
सऊदी अरब के कैंप में सुन्नी देश हैं जैसे कि यूएई, कुवैत और बहरीन. मिस्र और जॉर्डन भी इसके साथ खड़े हैं.
ईरान के समर्थन में सीरिया की सरकार है जिसे ईरान के अलावा शिया लड़ाकू गुटों का भी समर्थन हासिल है, इसमें हिज़्बुल्ला भी शामिल है जो सुन्नी विद्रोहियों से लड़ते आए हैं.
शिया आबादी वाली इराक़ सरकार भी ईरान के साथ है. लेकिन उसका अमरीका से भी ख़ास रिश्ता है जिसकी मदद से उसने आईएस से लड़ाई की है.
सऊदी को क्यों लग रहा है कि वो मध्य-पूर्व में हार रहा है?
कई मायनों में ईरान ये क्षेत्रीय लड़ाई जीत रहा है. सीरिया में ईरान और रूस ने राष्ट्रपति बशर-अल-असद को समर्थन दिया जिससे सऊदी के समर्थन वाले विद्रोही गुटों को हटाने में कामयाबी मिली है.
सऊदी अरब अपने देश में ईरान के प्रभाव को कम करने की पूरी कोशिश कर रहा है. सऊदी अरब के क्राऊन प्रिंस यमन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी है ताकि ईरान का प्रभाव कम हो सके लेकिन ये तीन साल के बाद ये उन्हें बहुत महंगा पड़ रहा है.
उधर लेबनान में कई लोगों का मानना है कि वहां के प्रधानमंत्री ने सऊदी अरब के दबाव में इस्तीफ़ा दिया है ताकि देश अस्थिरता आ सके जहां शिया हिज़्बुल्ला एक बड़े राजनीतिक ब्लॉक की अगुवाई करता है और एक उसके पास हथियारों से लैस एक बड़ी सेना है.
कुछ बाहरी ताक़तों का भी इसमें योगदान है. सऊदी अरब को डोनल्ड ट्रंप का समर्थन है. इसराइल, जो ईरान को ख़तरे के रूप में देखता है, वो ईरान को रोकने के लिए सऊदी के प्रयासों का समर्थन कर रहा है.
इसराइल को सीरिया बार्डर के पास कब्ज़ा जमाए हुए ईरान समर्थक लड़ाकों से डर है. इसराइल और सऊदी अरब दोनों देशों ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने वाले 2015 अंतर्राष्ट्रीय समझौते का विरोध किया था और कहा था कि यह ईरान को बम प्राप्त करने से रोकने के लिए क़दम पर्याप्त नहीं थे.
इधर अमरीका ने यरुशलम को इसराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता दे दी है. ऐसे में अमरीका को लेकर मध्य-पूर्व के मुस्लिम देशों में आशंका और बढ़ी है. डोनल्ड ट्रंप के आने के बाद से मध्य-पूर्व में शक्ति का अब कोई एक केंद्र नहीं है.