कहां छुपा रही है एप्पल अपनी बेशुमार दौलत?
पैरा़डाइडज़ पेपर्स में कई कंपनियों के टैक्स बचाने का खुला है राज़ इसमें एप्पल भी शामिल.
असल में आप से वसूला गया ये टैक्स सरकार आप की भलाई में ही ख़र्च करती है. अस्पताल, स्कूल और सड़कें बनाने में. जनता की मदद के लिए सरकार जो योजनाएं चलाती है, वो इसी टैक्स के पैसे से चलते हैं.
सरकार सिर्फ़ आम जनता से टैक्स नहीं लेती. बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों, कंपनियों से भी टैक्स वसूला जाता है.
लेकिन बहुत से ऐसे लोग, ऐसी कंपनियां हैं, जो तरह-तरह के नुस्खे आज़मा कर, ग़लत-सही काम कर के टैक्स बचाती हैं, टैक्स की चोरी करती हैं. इसके लिए फ़र्ज़ी कंपनियां बनाई जाती हैं. विदेशों में निवेश दिखाया जाता है. कंपनी में घाटा दिखाया जाता है ताकि सरकार को टैक्स न देना पड़े.
पिछले कुछ सालों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए लीक से टैक्स चोरी के ऐसे बड़े राज़ों पर से पर्दा उठा है. पनामा पेपर्स से लेकर पैराडाइज़ पेपर्स तक इन सनसनीख़ेज़ दस्तावेज़ों के सामने आने से बहुत से लोग बेनक़ाब हुए हैं. अमरीका से लेकर हिंदुस्तान और चीन तक, बहुत से सफ़ेदपोशों के गुनाहों से पर्दा हटा है. बहुत-सी कंपनियों के कारनामे सामने आए हैं.
मार्च 2014 में बहुत-सी जगहों पर एक ई-मेल पहुंचा था. ये ई-मेल ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स, द कैमन आइलैंड्स, बरमूडा, मॉरीशस, द आइल ऑफ़ मैन, जर्सी और गर्नसे- जैसे देशों को भेजे गए थे. ये सभी जगहें टैक्स हेवेन, यानी टैक्स से बचत चाहने वालों के लिए जन्नत कही जाती हैं.
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एप्पल का 'चोरी'
14 सवालों वाले ये ई-मेल भेजने वाली कंपनी का नाम था, एप्पल. दुनिया की सबसे मुनाफ़े वाली कंपनी.
एप्पल ने इन देशों से पूछा था कि उनके यहां निवेश करने से उसका कितना टैक्स बचेगा? कितने तरह के फ़ायदे होंगे? यानी एप्पल जैसी अरबों डॉलर का मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनी भी टैक्स बचाने के रास्ते तलाश रही थी.
पूरी दुनिया में ये ख़बर आग की तरह फैल गई थी. सुर्ख़ियां बनी थीं कि एप्पल टैक्स देने से बचती है.
एप्पल कोई पहली कंपनी नहीं जो टैक्स बचाने के तरीक़े तलाश रही थी. बहुत सी बड़ी कंपनियां और बड़े कारोबारी ऐसे तरीक़ों की तलाश में रहते हैं. ये लोग मॉरीशस से लेकर ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स तक तमाम ऐसी जगहों में निवेश दिखाते हैं जहां टैक्स कम है, या नहीं के बराबर है.
यूं तो टैक्स चोरी करने वालों की हमारे प्रति कोई सीधी जवाबदेही नहीं बनती. मगर, जब ये टैक्स चोरी करते हैं, तो उसका असर जनता के ऊपर पड़ता है. देश की तरक़्क़ी में ख़र्च करने के लिए पैसे कम आते हैं. सरकार को आमदनी बढ़ाने के लिए जनता पर टैक्स लगाना पड़ता है.
आख़िर क्या वजह है कि एप्पल जैसी कंपनियां कम टैक्स भरती हैं? आख़िर क्यों बड़े उद्योगपति और कंपनियां, अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का फ़ायदा उठाकर आमदनी पर टैक्स देने से बच जाते हैं?
क्या मदद के नाम पर दुकान चला रही हैं गूगल जैसी कंपनियां
बीबीसी की रेडियो सिरीज़ 'द इन्क्वायरी' में रूथ एलेक्ज़ेंडर ने इस बार इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की. रूथ ने इस सिलसिले में दुनिया भर के कई एक्सपर्ट्स से बात की.
इनमें से पहले थे, अमरीका के अल्बर्ट मेयर. मेयर एक फोरेंसिक एकाउंटेंट हैं. उनकी पड़ताल से कई लोग जेल जा चुके हैं. मेयर ने जब एप्पल के बही-खातों की जांच की तो पता चला कि कंपनी कोई फ़र्ज़ीवाड़ा नहीं कर रही है. वो क़ानूनन जितना टैक्स बनता है, वो चुका रही थी. मेयर के काम से ख़ुद एप्पल कंपनी इतनी मुतासिर है कि उनके लेख कंपनी की तरफ़ से अपनी सफ़ाई में पत्रकारों को भेजे जाते हैं.
अल्बर्ट मेयर कहते हैं कि अमरीका में एप्पल पर जितना टैक्स बनता है, कंपनी उसे पूरी ईमानदारी से भरती है.
मेयर के मुताबिक़ एप्पल की कुल आमदनी का तीस फ़ीसद हिस्सा अमरीका से आता है. अमरीकी टैक्स क़ानूनों के मुताबिक़ किसी कंपनी को अपने मुनाफ़े पर क़रीब 35 फ़ीसद टैक्स देना पड़ता है. हालांकि अगर कंपनी रिसर्च और विकास के काम में कुछ ख़ास रक़म ख़र्च करती है, तो उसे टैक्स में छूट भी मिलती है.
मेयर के मुताबिक़, अमरीका में कंपनियों को औसतन क़रीब 31.9 प्रतिशत टैक्स भरना पड़ता है. एप्पल ये रक़म पूरी ईमानदारी से सरकार के ख़ज़ाने को देती है.
एप्पल की कमाई का सत्तर फ़ीसद हिस्सा दूसरे देशों से आता है. जिन देशों से एप्पल को ये कमाई होती है, वहां के नियमों के मुताबिक़ कंपनी टैक्स भरती है. बची हुई रक़म मुनाफ़े के तौर पर एप्पल के खाते में दर्ज होती है.
फिर आख़िर एप्पल कंपनी कम टैक्स क्यों देती है? अल्बर्ट मेयर कहते हैं कि क़ानूनन कंपनी को ज़्यादा टैक्स देने की ज़रूरत ही नहीं.
क्या ये वाक़ई पूरा सच है? अगर ये सच है, तो फिर एप्पल आख़िर टैक्स बचाने के तरीक़े क्यों तलाश रही है?
कैसे करती थी एप्पल ये सब
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए बीबीसी ने ईमर हंट से बात की. हंट आयरलैंड की राजधानी डब्लिन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय टैक्स क़ानूनों की लेक्चरर हैं.
एप्पल कंपनी, लंबे वक़्त से आयरलैंड में निवेश करती आई है. वजह ये है कि आयरलैंड में टैक्स की दरें बहुत कम हैं. अमरीका के मुक़ाबले क़रीब एक तिहाई. इसी वजह से एप्पल ने 1980 में ही आयरलैंड में कारोबार शुरू किया था. आज आयरलैंड में छह हज़ार लोग एप्पल के लिए काम करते हैं.
आयरलैंड ने विदेशी निवेश लुभाने के लिए 1950 के दशक में ही अपने टैक्स क़ानूनों को सरल कर दिया था. एप्पल सीधे निवेश के अलावा, आयरलैंड के रास्ते अपनी दूसरे देशो की आमदनी पर भी टैक्स बचाती है.
ईमर हंट बताती हैं कि 1990 के दशक में एप्पल ने अपनी दो सहायक कंपनियां बनाई थीं. इन कंपनियों का कारोबार तो आयरलैंड में दिखाया गया था. मगर, इनका रजिस्ट्रेशन किसी भी देश में नहीं हुआ था. इन दोनों सहायक कंपनियों के पास ही एप्पल के बौद्धिक संपदा के अधिकार हैं. मतलब ये कि एप्पल की दो सहायक कंपनियां एप्पल की सबसे क़ीमती चीज़ की मालिक हैं. वो आयरलैंड में काम करती हैं. मगर कोई टैक्स नहीं भरतीं.
आयरलैंड के टैक्स क़ानून में एक तरीक़ा है जिसका नाम है-डबल आयरिश. यानी कोई कंपनी आयरलैंड में रजिस्टर्ड होकर, बाहर कारोबार कर सकती है. इस तरह से आयरलैंड में रजिस्टर्ड कंपनी को किसी और देश में कमाई करने पर आयरलैंड में कोई टैक्स नहीं भरना होगा. आयरलैंड के इस क़ानून का एप्पल ने जमकर फ़ायदा उठाया था.
आयरलैंड में रजिस्टर्ड सहायक कंपनियों के ज़रिए एप्पल मोटा मुनाफ़ा कमा रही थी. दूसरे देशों से हो रही कमाई भी कंपनी इन्हीं सहायक कंपनियों की आमदनी में दिखा रही थी. लेकिन, टैक्स क़ानून में झोल की वजह से उसे कोई टैक्स नहीं भरना पड़ रहा था.
कई बरस बाद यूरोपीय यूनियन को एप्पल की ये चालाकी समझ में आ गई. यूनियन ने इसके ख़िलाफ़ जांच की. पता ये चला कि एप्पल तो अपनी आमदनी पर आयरलैंड को एक फ़ीसद से भी कम टैक्स दे रही थी. यानी एप्पल ने कम टैक्स देने के लिए आयरलैंड में अपना ठिकाना बनाया. मगर, हद तो ये हो गई कि आयरलैंड में भी कंपनी कोई टैक्स नहीं दे रही थी. इस तरह एप्पल ने क़रीब 13 अरब यूरो का टैक्स बचाया था. अब ये मामला यूरोपीय अदालतों में चल रहा है.
एप्पल की 'चालाकी'
एप्पल की चालाकी से सबक़ लेते हुए आयरलैंड ने 'डबल आयरिश' नियम को ख़त्म कर दिया है.
आयरलैंड के इस क़दम के बाद से ही एप्पल ने टैक्स बचाने के लिए नए ठिकाने तलाशने शुरू कर दिए. इसीलिए कंपनी ने वो ई-मेल तमाम देशों को भेजे थे, जिनका ज़िक्र हमने शुरुआत में किया था.
एप्पल का कहना है कि वो अपनी आमदनी पर क़रीब 21 प्रतिशत की दर से टैक्स देती है, हालांकि जानकार कहते हैं कि कंपनी महज़ 5 फ़ीसद की दर से टैक्स दे रही है. ईमर हंट कहती हैं कि अमरीकी क़ानून के मुताबिक़ एप्पल ने अमरीका में टैक्स भरने के लिए कुछ रक़म बचाकर रखी है. इसे ही वो ज़्यादा टैक्स भरने के हवाले के सबूत के तौर पर पेश करती है.
मगर, यहां भी झोल है. कंपनी, विदेश में होने वाला मुनाफ़ा अमरीका लाती ही नहीं. जब पैसे अमरीका आएंगे ही नहीं, तो उन पर एप्पल को टैक्स भी नहीं देना पड़ेगा.
पत्रकार ली शेपार्ड साप्ताहिक मैग़ज़ीन टैक्स नोट इंटरनेशनल के लिए काम करती हैं. शेपार्ड पूरा मामला समझाती हैं. शेपार्ड कहती हैं कि एप्पल के पास विदेशों से हुए मुनाफ़े के क़रीब 250 अरब डॉलर की रक़म है. ये रक़म कहीं और नहीं बल्कि अमरीका के नेवादा में ही है. ये रक़म एप्पल के हेज फंड में निवेश कर के रखी गई है.
ली शेपार्ड कहती हैं कि बड़ी कंपनियों से लेकर अरबपति कारोबारी तक कोई भी टैक्स हेवेन यानी टैक्स बचाने के लिए जन्नत कही जाने वाली जगहों पर अपना पैसा नहीं रखते.
मिसाल के तौर पर एप्पल ने अपनी विदेशों से हुई कमाई को अमरीका में अपने ही फंड के ज़रिए लगा रखा है. फिर भी अमरीकी सरकार उस रक़म को छू तक नहीं सकती क्योंकि ये एप्पल की विदेशी सहयोगी कंपनियों का पैसा है.
शेपार्ड बताती हैं कि एप्पल बस अमरीकी टैक्स क़ानूनों में झोल का फ़ायदा उठा रही है. अमरीका के टैक्स क़ानून वहां की कंपनियों को इस बात की इजाज़त देते हैं कि वो जब तक चाहे विदेशों में अपनी आमदनी को स्वदेश वापस लाना टाल सकती है. एप्पल जैसी बहुत सी कंपनियां इस मुनाफ़े को अमरीका लाने का फ़ैसला अनंतकाल के लिए टाल देती हैं.
अगर ये कंपनियां इस आमदनी को अमरीका लाने की औपचारिक घोषणा करती हैं तो उन्हें इस रक़म पर 35 फ़ीसद की दर से टैक्स भरना होगा. मगर, विदेशी आमदनी को स्वदेश लाने का फ़ैसला टालकर ये कंपनियां टैक्स में अरबों डॉलर बचा रही हैं.
ट्रंप प्रशासन
इन कंपनियों को उम्मीद है कि डोनल्ड ट्रंप की सरकार जल्द ही अमरीका के टैक्स क़ानूनों में रियायत देगी. इससे उनकी टैक्स की देनदारी कम हो जाएगी. ट्रंप की सरकार अमरीका के टैक्स क़ानूनों में बड़े पैमाने पर बदलाव करने की तैयारी में है. कंपनियों के लिए टैक्स की दरें 35 प्रतिशत से घटाकर 20 फ़ीसद तक लाने की तैयारी है. इससे एप्पल पर टैक्स का बोझ कम होगा.
साथ ही ट्रंप सरकार विदेशों में आमदनी पर एक बार टैक्स में छूट देने पर भी विचार कर रही है. इस आमदनी पर 10 फ़ीसद की दर से टैक्स लगाया जाएगा. अगर ट्रंप सरकार ऐसा करती है तो एप्पल जैसी कंपनियों की तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी.
पहले तो उन्हें घरेलू आमदनी पर कम टैक्स देना होगा. फिर उन्हें विदेश में हुई आमदनी पर भी कम टैक्स भरना पड़ेगा. यानी टैक्स चोरी करके भी एप्पल जैसी कंपनियां मुनाफ़े में ही रहेंगी. आगे चलकर तो अमरीकी सरकार विदेशों में होने वाली आमदनी पर कंपनियों को टैक्स से पूरी तरह छूट देने की तैयारी में है.
लेकिन ली शेपार्ड को लगता है कि इससे कंपनियों का टैक्स चोरी करना रुकेगा नहीं. वो और भी नए-नए तरीक़ों से टैक्स बचाने की कोशिश करेंगी क्योंकि उन्हें पता है कि आख़िर में सरकारें तो उन्हें रियायत देंगी ही. इसी उम्मीद में एप्पल और दूसरी कंपनियों ने विदेशों में हुई अपनी कमाई को अमेरिका लाना टाल दिया है.
कंपनियों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस टैक्स चोरी को रोकने का एक ही तरीक़ा है. दुनिया भर के तमाम देश इस बात के लिए एकजुट हों. टैक्स के नियम ऐसे हों कि कोई कंपनी एक देश का मुनाफ़ा दूसरे देश में न दिखा सके.
अमरीकी अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलित्ज़ इसीलिए काम कर रहे हैं. स्टिगलित्ज़ दो बार अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं. स्टिगलित्ज़ कहते हैं कि कंपनियों ने टैक्स बचाने का हुनर सीख लिया है. वो नया प्रोडक्ट बाद में लाती हैं. पहले टैक्स बचाने के तरीक़े तलाशती हैं.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्टिगलित्ज़ जैसे कई अर्थशास्त्रियों ने मिलकर टैक्स चोरी रोकने के लिए एक आयोग बनाया है. वो उन कंपनियों से टैक्स वसूलने का तरीक़ा तलाश रहे हैं, जो एक साथ कई देशों में कारोबार करती हैं.
स्टिगलित्ज़ कहते हैं कि कनाडा और स्विटज़रलैंड जैसे कई देशों ने अपने क़ानून बदलकर कंपनियों को सही तरीक़े से टैक्स भरने पर मजबूर किया है. ख़ुद अमरीका ने इसके लिए अपने यहां क़ानून बदले हैं. हालांकि स्टिगलित्ज़ मानते हैं कि अभी कंपनियों की टैक्स चोरी रोकने के लिए बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है.
लेकिन सवाल ये है कि क्या तमाम देश मिलकर एप्पल जैसी कंपनियों की चालाकी पर लगाम लगाएंगे?
जोसेफ़ स्टिगलित्ज़ मानते हैं कि बात राजनैतिक इच्छाशक्ति पर टिकी है. वो कहते हैं कि एप्पल जैसी कंपनियां मुनाफ़े के लालच में अंधी हो गई हैं. यही वजह है कि आज कंपनियों की मुनाफ़ाख़ोरी के चर्चे आम हैं. उनकी टैक्स चोरी की चालाकी पर से पर्दे उठ रहे हैं. अमरीका हो या भारत, तमाम देशों की सरकारें इनके ख़िलाफ़ एक्शन लेने की बातें कर रही हैं.
पर, कुल मिलाकर सच ये है कि झोल क़ानून में ही है. अपने यहां निवेश बढ़ाने के चक्कर में तमाम देश एप्पल जैसी कंपनियों को खुली बेईमानी का मौक़ा देते हैं. वो टैक्स नहीं भरतीं, क्योंकि उन्हें नियमानुसार टैक्स भरने की ज़रूरत ही नहीं है.
नुक़सान हमारा है. हमारी भलाई के काम में ख़र्च करने के लिए सरकार के पास पैसे ही नहीं होते. आम जनता पर टैक्स का बोझ बढ़ता है. वहीं एप्पल जैसी कंपनियां भारी मुनाफ़ा कमाकर भी टैक्स देने से बच जाती हैं.
जोसेफ़ स्टिगलित्ज़ कहते हैं कि वक़्त आ गया है कि इस पर लगाम लगाई जाए.
(बीबीसी इंक्वायरी पर ये कहानी यहां सुन सकते हैं.)