जब दो अमरीकी महिलाओं के टैक्सी ड्राइवर बने ख़ुशवंत
ख़ुशवंत सिंह के जीवन के वे पहलू जो आम जनता नहीं जानती, उनके 103वें जन्मदिवस पर याद कर रहे हैं रेहान फ़ज़ल
ख़ुशवंत सिंह से मेरी पहली मुलाक़ात सन 2002 में एक तपती हुई दोपहर में हुई थी. उन्होंने अपने सुजान सिंह पार्क वाले फ़्लैट में चार बजे का वक़्त दिया था.
जब मैं उनके दरवाज़े पहुंचा, तो वहाँ लिखा हुआ था, 'अगर आपने समय नहीं लिया है तो कृपया घंटी नहीं बजाएं.' तीन बजकर पचास मिनट ही हुए थे, इसलिए मैंने बाहर रह कर ही दस मिनट इंतज़ार करना मुनासिब समझा. घंटी बजते ही ख़ुद ख़ुशवंत ने दरवाज़ा खोला. मुझे अपनी स्टडी में लेकर गए. मोंढ़े को बेड़ा लिटाकर उस पर अपना पैर रखा. अपनी बिल्ली को गोद में बैठा कर सहलाया और आँखों में आँखें डाल कर बोले, "फ़ायर कीजिए... आपके पास पूरे पचास मिनट हैं..."
पूरी दुनिया ख़ुशवंत के दो रूपों को जानती है. एक वो ख़ुशवंत सिंह जो शराब और सेक्स के शौक़ीन हैं. हमेशा हसीन लड़कियों से घिरे रहते हैं. ग़ज़ब के हंसोड़ हैं. बात-बात पर चुटकुले सुनाते और ठहाके लगाते हैं. और दूसरा वो ख़ुशवंत जो गंभीर लेखक है, निहायत विनम्र और ख़ुशदिल है, चीज़ों की गहराइयों में जाता है.
एक चीज़ आपको तुरंत अपनी तरफ़ खींचती है और वो है उनकी अपने आप की खिल्ली उड़ाने की कला. उनके बारे में एक क़िस्सा मशहूर है. जब वो 'हिंदुस्तान टाइम्स' के संपादक हुआ करते थे तो वो हमेशा मुड़े-तुड़े, पान की पीक से सने पठान सूट में दफ़्तर आया करते थे. उनके पास एक फटीचर एंबेसडर कार होती थी जिसे वो ख़ुद चलाते थे.
एक बार जब वो 'हिंदुस्तान टाइम्स' बिल्डिंग से अपनी कार में बाहर निकल रहे थे तो दो हसीन अमरीकी युवतियों ने आवाज़ लगाई, ' टैक्सी! टैक्सी! ताज होटल.' इससे पहले कि ख़ुशवंत कुछ कह पाते, उन्होंने कार का पिछला दरवाज़ा खोला और उसमें बैठ गईं. ख़ुशवंत ने बिना किसी हील-हुज्जत के उन्हें ताज होटल पहुंचाया. उनसे सात रुपए वसूल किए. दो रुपए की टिप भी ली और फिर अपने घर रवाना हो गए. असली मज़ा तब होता जब ख़ुशवंत सिंह ये क़िस्सा ख़ुद आपको सुनाते और मेरा यक़ीन है कि आपके पेट में हंसते-हंसते बल पड़ जाते.
क़लम चोरी करने के शौक़ीन
जब 1998 में उन्हें 'ऑनेस्ट मैन ऑफ़ द ईयर' का पुरस्कार मिला तो वो बोले, "मैं ईमानदारी का दावा नहीं कर सकता. ईमानदारी में दो चीज़ें होनी चाहिए. एक तो किसी पराए का माल नहीं लेना और दूसरा कभी झूठ नहीं बोलना. मैंने ये दोनों ही काम किए हैं. मुझे क़लम चुराने की बीमारी है. यूँ तो मेरे पास क़लमों का अच्छा संग्रह है लेकिन जो बात चोरी के क़लम में है वो ख़रीदने में नहीं.''
''जब भी मैं किसी सम्मेलन में जाता हूँ, कोशिश करता हूँ कि सबसे पहले पहुंचु ताकि वहाँ रखे फ़ोल्डरों में लगे क़लमों पर अपना हाथ साफ़ कर सकूँ. जहाँ तक झूठ की बात है मैंने बड़ा झूठ कभी नहीं बोला. हाँ छोटे-मोटे झूठ कई बार बोले हैं. मसलन किसी लड़की के हुस्न की तारीफ़ कर दी, चाहे वो ख़ूबसूरत न भी हो. ताकि उसका दिल ख़ुश हो जाए."
ख़ुशवंत की दोस्त और उनके साथ किताब लिखने वाली हुमरा क़ुरैशी कहती हैं, "बहुत ही साधारण जीवन जीते थे ख़ुशवंत सिंह. एक चीज़ पकती थी.. दाल या एक सब्ज़ी. दोपहर में सिर्फ़ सूप. मोबाइल उन्होंने कभी नहीं ख़रीदा और न ही वो कंप्यूटर इस्तेमाल करते थे.''
''कभी-कभी हम दोनों लोदी गार्डेन वॉक करने जाते थे लेकिन वो आधा राउंड लगा कर गुंबद की सीढ़ियों के पास बैठ जाते थे और हमसे कहते थे तुम्हारा जितना जी चाहे घूमो. चालीस मिनट बाद जब मैं वापिस आती थी तो उनके चारों तरफ़ बीस पच्चीस लोग बैठे मिलते थे और वो उनसे बाते कर रहे होते थे."
समय के पाबंद
उनकी बड़बोली, दुस्साहसी, सेक्स व स्कॉच के रसिया की छवि के पीछे एक निहायत ही ख़ुशदिल इंसान था जिसके जीवन में अनुशासन का काफ़ी महत्व था.
ख़ुशवंत के बेटे और मशहूर लेखक राहुल सिंह याद करते हैं, "वो सुबह चार बजे उठ जाते थे. अपनी चाय ख़ुद बनाते थे. फिर दूरदर्शन पर हरमंदिर साहब से आ रहे कीर्तन सुना करते थे. उसके बाद वो अपना काम शुरू करते थे. फिर ठीक बारह बजे वो बहुत हल्का लंच लेते थे. फिर वो एक डेढ़ घंटे के लिए सोते थे.''
''जो लोग शराब पीना चाहते थे वो सात बजे आते थे, लेकिन पहले से अपॉएंटमेंट लेकर. बिना बताए आने पर वो मिलने से इनकार कर देते थे. स्वराज पॉल कहते थे कि अगर कभी वो वक़्त से पहले मिलने पहुंच जाते थे तो बाहर चहलक़दमी करके अपना समय बिताते थे और ठीक सात बजे उनके घर की घंटी बजाते थे. आठ बजे सबको वहाँ से चले जाना होता था. आठ बजे वो खाना खाते थे और नौ बजे सो जाते थे. उनका ये रूटीन उनके जीवन के अंत तक रहा."
उनकी एक और दोस्त कामना प्रसाद कहती हैं कि एक बार वो मेरे घर पर खाने पर आए तो पहले से कह दिया कि दाल और एक सालन से ज़्यादा कुछ नहीं बनाना. उनके घर आठ बजे महफ़िल बर्ख़ास्त होने के नियम का सिर्फ़ एक बार उल्लंघन हुआ था जब 'पंजाब केसरी' के संपादक रात दस बजे तक उनके घर पर मेहमानों का लतीफ़ों से दिल बहलाते रहे. कामना कहती है, "एक बार तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह उनके यहाँ खाने पर आए हुए थे और आठ बजने के बाद भी वो बातों में मशग़ूल थे तो ख़ुशवंत की पत्नी कंवल ने उनसे साफ़ कह दिया, ज्ञानी जी, हुण टैम हो गया."
टीशर्ट पहनने के शौक़ीन
एमजे अकबर को सबसे पहले ख़ुशवंत ने इलिस्ट्रेटेड वीकली में ब्रेक दिया था. वो याद करते हैं, "सत्तर के दशक में ख़ुशवंत सिंह के बदन पर एक टी शर्ट होती थी और चेहरे पर मुस्कान. वे जितने फक्कड़ लगते थे बातें भी उनकी फक्कड़पने की होती थीं. उन्हें भद्दे मज़ाक़ से लोगों को झटका देने में मज़ा आता था.''
''हम उस ज़माने में ट्रेनीज़ थे टाइम्स ऑफ़ इंडिया में और ट्रेनीज़ को हर विभाग में एलॉट किया जाता था. मेरा एलॉटमेंट इलस्ट्रेटेड वीकली में नहीं हुआ था लेकिन उन्होंने क़ानून बदलवा कर दो लोगों की मांग की थी और रमेश के साथ मुझे लिया था. वहाँ से फिर जितनी दूर मुझे आगे जाना था, गए."
अकबर कहते हैं कि उस ज़माने में अगर सह-संपादक लंदन या कैंब्रिज से पास नहीं होता था तो उसे टाइम्स ऑफ़ इंडिया में घुसने नहीं दिया जाता था. उस ज़माने में वो टी शर्ट पहने कोलाबा से पैदल चल कर आते थे. मेरा ख़्याल है संपादक रहते उन्होंने कभी भी कमीज़ नहीं पहनी.
ख़ुशवंत के एक और साथी जिग्स कालरा कहते हैं कि ख़ुशवंत उन्हें बड़े जतन से चुटीले वाक्य लिखने की कला सिखाते थे. उनके पास एक सरल सा मंत्र था, "जहाँ तक हो आठ अक्षरों से बड़ा शब्द न लिखो, आठ शब्दों से बड़ा वाक्य न लिखो और आठ वाक्यों से बड़ा पैरा न लिखो."
ख़ुशवंत की दोस्त हुमरा कुरैशी कहती हैं, "मुझमें और उनमें कोई चीज़ समान नहीं थी. मैं टी टोटलर थी. उनकी तरह सोशल भी नहीं थी लेकिन ये शख़्स मेरा हमेशा ध्यान रखता था. गुड़गाँव शिफ़्ट होने के बाद जब मैं एक हफ़्ते तक उनके यहाँ नहीं जाती थी तो उनका फ़ोन आ जाता था कि सब ठीक तो है न. उन्हें पता था कि मेरे यहाँ कोई नौकर या रसोइया नहीं था. जब भी मैं उनके यहाँ जाती थी तो वो अपने रसोइए से कहते थे कि हुमरा के लिए खाना पैक करो. मैं उनके साथ किसी भी विषय पर बात कर सकती थी."
दिल से दकियानूसी
ख़ुशवंत के बेटे राहुल सिंह कहते हैं कि ऊपर से ख़ुशवंत जितना भी आधुनिक दिखने की कोशिश करे, अंदर से वो दकियानूसी और रूढ़िवादी थे.
वो कहते हैं, "हमारे घर की ऊपर की मंज़िल पर एक बहुत ही ख़ूबसूरत लड़की रहती थी. वो एक अफ़ग़ान डिप्लोमैट की लड़की थी. हम दोनों एक दूसरे की तरफ़ आकर्षित थे. जब भी उसके माता-पिता बाहर जाते वो मुझे फ़ोन कर देती और मैं उसके घर पहुंच जाता. वो भी कभी-कभी मेरे घर आती थी. उसका इस तरह से आना-जाना मेरे पिता से छिपा नहीं रहा और उन्होंने मुझे डांट पिलाई कि किसी दिन पकड़े गए तो उस लड़की का बाप तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ेगा."
राहुल कहते हैं, "ईश्वर में विश्वास न होने के बावजूद उन्हें अपनी सिख पहचान पर बहुत गर्व था. जब मैंने अपने केश कटवा दिए तो वो मुझसे बहुत नाराज़ हो गए थे. लेकिन इस सबके बावजूद उन्हें किसी रस्म या पूजा पाठ में विश्वास नहीं था और वो ज्योतिष को बेकार की बात समझते थे."
बदमाश आँखें
बहुत सारे शेड्स थे ख़ुशवंत के व्यक्तित्व के. उर्दू शायरी, इतिहास और क़ुदरत के मिजाज़ के प्रति उनकी रुचि, उनके लतीफ़े और उनकी हाज़िरजवाबी और उनकी असाधारण ऊर्जा उन्हें भीड़ से अलग करती थी.
अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वो जवाँदिल बने रहे. जब वो 90 साल के हुए तो बीबीसी ने उनसे पूछा था कि क्या अब भी कुछ करने की तमन्ना है, तो उनका जवाब था, "तमन्ना तो बहुत रहती है दिल में. कहाँ ख़त्म होती है. जिस्म से बूढ़ा ज़रूर हो गया हूँ लेकिन आँख अब भी बदमाश है. दिल अब भी जवान है. दिल में ख़्वाहिशें तो रहती हैं.. आख़िरी दम तक रहेंगी.. पूरी नहीं कर पाऊँगा, ये भी मुझे मालूम है."