जब पाकिस्तान ने अरब के शाही परिवारों को शिकार के लिए बाँटे बलूचिस्तान के कई इलाक़े
पाकिस्तान में बस्टर्ड पक्षी के शिकार की नियमित शुरुआत 1973 में हुई. 1970 के दशक से, खाड़ी देशों से अरब शेख़ और शाही परिवार बस्टर्ड के शिकार के लिए नियमित रूप से पाकिस्तान आने लगे थे.
वर्ष 1983 में पसनी शहर में एक ट्रांसपोर्टर की दुकान पर दो सैनिक आकर रुके. उनमें से एक ने दुकान के मालिक से पूछा, "एक अरब शेख़ को पंजगूर ले कर जाना है? क्या आपके पास कोई अच्छी सी गाड़ी है?"
इसके जवाब में दुकान के मालिक, जिन्हें कुछ साल बाद बड़े हाजी के नाम से जाना जाने लगा, ने कहा, "हाँ, मेरी गाड़ी अच्छी है."
दुकान के मालिक ने अपने 31 वर्षीय बेटे हनीफ़ को गाड़ी लेकर अरब शेख़ को पंजगूर ले जाने के लिए भेज दिया.
आज इस घटना के लगभग 37 साल बाद, स्थानीय लोग 'बड़े हाजी' के उस बेटे को हाजी हनीफ़ के नाम से जानते हैं. वह पसनी में संयुक्त अरब अमीरात से आने वाले शेख़ों के रहने का पूरा प्रबंध भी करते हैं.
जिस शेख़ के लिए गाड़ी चाहिए थी, उनका नाम शेख़ सुरूर बिन अल-नहयान था. वह अबू धाबी के हैं, उनका संबंध संयुक्त अरब अमीरात के छह शाही परिवारों में से एक अल-नहयान परिवार से है.
इस परिवार के बारे में कहा जाता है कि यह परिवार 'बनी यास' के वंशज हैं, जो 1793 से शासन करता आ रहा है. उस समय बस्टर्ड पक्षी के शिकार के लिए शेख़ सुरूर पसनी गए थे.
बस्टर्ड के बारे में पहले भी कई लेख लिखे जा चुके हैं, और ये सवाल भी उठाए जाते रहे हैं, कि आख़िर पाकिस्तान इसके शिकार के लिए अपने तीन प्रांतों, सिंध, बलूचिस्तान और पंजाब में अलग-अलग जगह क्यों आबंटित करता है? इससे पाकिस्तान को क्या फायदा होता है? और यह सवाल भी कि क्या यह सिलसिला कभी ख़त्म होगा?
लेकिन इससे पहले कि हम इस सवाल का जवाब जानें, हम पसनी शहर के हाजी हनीफ़ की बात करते हैं. हाजी हनीफ़ इस साल फरवरी में शेख़ सुरूर के पसनी आगमन से पहले की सभी तैयारियों को पूरा करने में व्यस्त हैं.
उनका पूरा जीवन हर साल केवल एक सप्ताह या 10 दिनों के लिए पसनी आने वाले शेख़ों पर निर्भर होता है. इसी एक सप्ताह की यात्रा से पसनी के 30 और परिवार भी जुड़े हैं.
पसनी का अबू धाबी
बलूचिस्तान के तटीय क्षेत्र ग्वादर से लगभग एक घंटे की दूरी पर पसनी के पुराने एयरपोर्ट से पहले एक लंबी सड़क आती है, जिसके एक तरफ़ पानी है और दूसरी तरफ रेतीली ज़मीन है.
इस सड़क पर लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद, संयुक्त अरब अमीरात की नंबर प्लेट वाली एक जीप हमारे सामने आ कर रुकी और उसमें मौजूद ड्राइवर ने पूछा कि क्या हम हाजी हनीफ़ से मिलने आए हैं.
वहाँ से हम हाजी हनीफ़ के परिसर तक पहुँचे, जो आधुनिक शैली में बने हुए थे. ऐसा लग रहा था जैसे हम पसनी के रास्ते अबू धाबी पहुँच गए हैं.
एक साधारण से गेट से गुज़रने के बाद, बाएँ हाथ की तरफ़, कई नई और पुरानी गाड़ियाँ, ट्रक और पजेरो गाड़ियाँ खड़ी दिखाई दीं. दूसरी तरफ, ऊपर देखने पर एक सीढ़ी दिखाई दी, जहाँ से एक आदमी दो कबूतर ले कर नीचे आ रहा था.
हमें एक गेस्ट हाउस में बिठा दिया गया, जहाँ टीवी पर संयुक्त अरब अमीरात का चैनल लगा हुआ था. उस पर बाज़ की रेस दिखाई जा रही थी और एक बाज़ के जीतने पर शायद अरबी में उसकी तारीफ़ की जा रही थी.
हाजी हनीफ़ के आते ही कमरे में इत्र की ख़ुशबू फैल गई. बैठते ही उन्होंने मुझे 1988 से ले कर 1990 के दशक में होने वाले शिकार अभियानों की तस्वीरें थमा दीं.
उनके मुताबिक, "1983 में, हमारा ट्रांसपोर्ट का काम, स्पेयर पार्ट्स की दुकान और एक पान का स्टॉल था. शेख़ साहब को गाड़ी किराए पर देने के बाद, वह फिर दोबारा हमारे ही पास आए. फिर मैं और मेरा परिवार उनसे (शेख़) जुड़ गए. हमारे अलावा, 10 या 11 लोग और हैं, जो बलूचिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में उनके रहने की व्यवस्था और देखभाल करते हैं."
अगर हम इतिहास पर नज़र डालें तो, ज़्यादातर शोधकर्ताओं के मुताबिक़ पाकिस्तान में बस्टर्ड के शिकार की नियमित शुरुआत 1973 में हुई. 1970 के दशक से, खाड़ी देशों से अरब शेख़ और शाही परिवार, बस्टर्ड के शिकार के लिए नियमित रूप से पाकिस्तान आने लगे थे.
इन दौरों को निजी दौरों का नाम दिया दिया गया, जिसका पाकिस्तान ने इन देशों के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए भी उपयोग किया. उसी दशक में खाड़ी देशों में तेल उत्पादन की वजह से धन आया था और फिर देखते ही देखते सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से शेख़ निजी दौरों के लिए अधिक से अधिक पाकिस्तान आने लगे.
1983 में ही शेख़ सुरूर दोबारा आए और इस बार उन्होंने ख़ुद हाजी हनीफ़ को बुलाया. धीरे-धीरे उनकी हाजी हनीफ़ से दोस्ती हो गई.
पसनी में शेख ने बनाया घर
हाजी हनीफ़ कहते हैं, "फिर शेख़ ने मेरे घर में अपनी लगभग 20 गाड़ियाँ खड़ी कर दीं. ताकि वाहनों की सुरक्षा हो सके. हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई. शिकार के बाद वे अपनी गाड़ियों को वापस लेकर चले जाते थे. लेकिन अब कुछ गाड़ियाँ यहीं रहती हैं."
1984 में हाजी हनीफ़ ने उन्हें उसी शहर पसनी में अपना घर बनाने की सलाह दी.
"उस समय, ये लोग जंगलों में तंबू लगाते थे. धीरे-धीरे बलूचिस्तान की सरकार ने यह जगह आबंटित कर दी. शिकार करने के लिए भी और रहने के लिए भी. और फिर यह भी तय हुआ कि उनके आने पर उनका ख़्याल मैं रखूँगा."
वर्ष 1989 में, बलूचिस्तान सरकार ने बलूचिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में आबंटन शुरू कर दिया. इस आबंटन के बाद, पसनी, पंजगूर और ग्वादर में संयुक्त अरब अमीरात से शेख़ आने लगे. झल झाओ (अवारान के पास के क्षेत्रों) को क़तर के शेख़ों को आबंटित किया गया और चाग़ी के क्षेत्र सऊदी अरब के शाही परिवार के लिए आबंटित हुए.
हाजी हनीफ़ ने कहा, "हमने यहाँ पैसे इकट्ठे किए. यहाँ से ग्वादर, तुर्बत और फिर क्वेटा दस्तावेज़ भेजे और मंज़ूरी मिल गई. उस समय नवाब अकबर बुगती बलूचिस्तान के मुख्यमंत्री थे. वहाँ से आबंटन का आदेश लिया. इसके बाद घरों का यानी शेख़ के निवास स्थान का निर्माण शुरू हुआ. फिर हमने पेड़ लगाए. शेख़ नींबू और चीकू खाना बहुत पसंद करते हैं, इसलिए यहाँ वो पेड़ लगाए गए हैं."
इसी तरह, पंजगूर में हाजी ज़ाहिद, ग्वादर में शाय सिद्दीक़ और लाला नज़र के परिवार संयुक्त अरब अमीरात से आने वाले अन्य अरब शेख़ों की सुरक्षा और उनके रहने की व्यवस्था करते हैं. जिसके बदले उन्हें भुगतान किया जाता है और इस मेहमान नवाज़ी के बदले में शेख़ों ने क्षेत्र के निवासियों के लिए कुआं, पानी की सप्लाई के लिए पाइप, डिस्पेंसरी और स्कूल बनाए हैं.
पसनी में उस परिसर के बारे में जहाँ हम इंटरव्यू कर रहे थे, हाजी हनीफ़ ने कहा, कि सबसे पहले इस घर की दीवार बनाई गई थी. फिर उनकी गाड़ियों के लिए एक गैरेज बनाया गया. गैरैज के बाद हमने शेख़ से पूछा, कि क्या आपको कमरे चाहिए? उनकी सहमति से यहाँ पाँच से छह कमरे बनाए गए.
कई लोगों को मिला रोज़गार
केवल इस परिसर में अभी 25 लोग काम करते हैं, लेकिन जब शेख़ आते हैं, तो 35 लोग काम करते हैं. इस परिसर के बाहर, सभी को अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ सौंपी जाती हैं.
एक कर्मचारी को केवल बस्टर्ड खोजने के लिए 35 हज़ार रुपए दिए जाते हैं. बाक़ी 35 अन्य लोगों को शेख़ के आने पर 50 हज़ार रुपए प्रति व्यक्ति तक, मछली लाने, नींबू के बाग़ की देखभाल करने, बाज़ की ट्रेनिंग करने और बाथरूम की सफ़ाई करने के लिए दिए जाते हैं.
हाजी हनीफ़ कहते हैं, "मेरे तीनों बेटे मेरी मदद करते हैं. एक बेटा गैराज की रखवाली करता है, एक बस्टर्ड ढूँढता है और तीसरा शेख़ के बॉडी गॉर्ड के तौर पर सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभालता है. मैं घर का इंचार्ज हूँ. उनके आवास का ज़िम्मेदार हूँ और मूल रूप से उनका कर्मचारी हूँ."
हाजी हनीफ़ ने अपने सबसे छोटे बेटे से खजूर की प्लेट ले कर उन्हें हमारे सामने रखते हुए कहा, "यह सारी गतिविधि एक सप्ताह या 10 दिन चलती है और इस दौरान कई घर आबाद हो जाते हैं."
टेंट की तस्वीरें दिखाते हुए, हाजी हनीफ़ ने कहा, "1980 और 1990 के दशक में, हम सभी शिकार करने के लिए सुबह जल्दी निकल जाते थे. इसके बाद बाज़ को एक स्थान पर हवा में छोड़ा जाता. ज़्यादातर उनके लोग पहले ही यह पता लगा चुके होते हैं, कि बस्टर्ड किस जगह कितनी देर के लिए आता है.
"जैसे ही बाज को छोड़ा जाता, हमारी गाड़ियाँ उसके पीछे दौड़ती. अब सामने चाहे रेत हो या झाड़ियाँ, हमें गाड़ी उसी बाज़ के पीछे दौड़ानी होती हैं. और जैसे ही बाज़ बस्टर्ड को पकड़ लेता है, हम लोग भी उतर जाते हैं. टेंट में बैठ कर उसे पका कर खा लेते हैं."
अभी की स्थिति बताते हुए उन्होंने कहा, "अब हम पहले से ही बस्टर्ड पकड़ कर रख लेते हैं, क्योंकि अब उनकी संख्या बहुत कम हो गई है."
उन्होंने ये भी बताया कि इसके लिए शेख़ रूस में पैसे लगा कर इस पक्षी की देखभाल और ब्रीडिंग (प्रजनन) की व्यवस्था भी कर रहे हैं. यह कहते हुए, हाजी हनीफ़ हमें पूरे परिसर का दौरा कराने के लिए खड़े हो गए.
"यहाँ हर काम करने के पैसे मिलते हैं'
जब हम रसोई में दाखिल हुए, तो वहाँ सफाई का काम चल रहा था और एक आदमी अपने सामने छह बड़े स्टोव की गैस की जाँच और सफ़ाई में व्यस्त था.
रसोई से निकल कर, हम बाईं ओर मुड़ गए, जहाँ एक पंक्ति से कमरे और उसके ठीक बगल में एक पिंजरा बना हुआ था, चार कमरों में कपड़े धोने के लिए वॉशिंग मशीन लगाई गई थी, दूसरी तरफ बड़े पिंजरे में दो आदमी एक बाज़ को पकड़े खड़ा था.
बाज़ की आँखों के ऊपर एक छोटा सा खोल चढ़ाया हुआ था और उसके सामने से एक कबूतर को हटाया जा रहा था.
दो ट्रेनर्स की ओर इशारा करते हुए, हाजी हनीफ़ ने कहा, "उनको केवल इस बाज़ के प्रशिक्षण के लिए, एक महीने के लिए यहाँ रखा जाता है. कबूतर को इस बाज़ के सामने उड़ा कर देखा जाता है, कि वह कबूतर को कितनी तेज़ी से दबोच सकता है. अगर बाज़ ऐसा करने में विफल रहता है, तो प्रशिक्षण जारी रहता है या फिर नए बाज़ को लाया जाता है. यहाँ हर काम के लिए भुगतान किया जाता है और हम स्थानीय लोगों को काम दिलाने की कोशिश करते हैं."
वहाँ से सामने ही एक बड़े से नारंगी कपड़े पर नींबू साफ़ किए जा रहे थे. और उसकी दूसरी तरफ बाग़ में एक माली पानी दे रहा था.
इसी बीच, हाजी हनीफ़ ने बताया कि अक्सर आस-पास तैनात सैनिकों की पत्नियाँ भी हमारा घर देखने आती हैं. अब हम लगभग 20 एकड़ के प्लाट के बीच में खड़े थे ,जब हाजी हनीफ़ ने पूछा, "हालाँकि यहाँ देखने के लिए क्या है?"
क्या यहाँ के लोगों पर इस शिकार और इसके बदले पैसे देने का कोई असर पड़ा है?
इस सवाल पर, हाजी हनीफ़ ने विभिन्न परियोजनाओं और उनके तहत बनने वाली चीज़ों को गिनवाना शुरू कर दिया.
"पसनी में कोई डिस्पेंसरी नहीं थी, तो शेख़ ने इसे बनवाया. उन्होंने कॉलेज के लिए बस की व्यवस्था की, गाँव में एक स्कूल खोला, पानी की सप्लाई दी और माड़ा में एक मस्जिद का निर्माण कराया. पसनी अस्पताल में एक बिल्डिंग का निर्माण कराया है, जो अब खंडहर बन चुका है. अब राज्य सरकार इसका कितना ध्यान रखती है, यह तो उन्हें ही बेहतर पता होगा."
मैंने पूछा, कि "क्या आप चाहते हैं, कि आपके बच्चे भी इसी तरह शेख़ की देखभाल करें, जैसे आप इतने सालों से करते आए हैं?"
"नहीं, नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता हूँ. मैं कहता हूँ कि बच्चे अपना व्यवसाय करें. अभी तो वे मेरा हाथ बँटाते हैं. लेकिन मेरा यह मन नहीं है."
हाजी हनीफ़ यह बात कहने के बाद एक पल के लिए रुक गए, क्योंकि उनकी आवाज़ अचानक से भारी हो गई थी. "वो अपना भविष्य सँवारे, बिज़नेस करें, कारोबार करें. मैं तो बूढा हो गया हूँ उनके साथ. वो तो बूढ़े नहीं हुए हैं. "
उन्होंने कहा कि यहाँ ईरानी सामान आता है, कराची से सामान आता है और इसे बेचा जाता है. इसी सामान के ख़रीदने और बेचने से कारोबार चलता है.
"लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है, कि शाही परिवार का आना हमारे लिए, हमारे क्षेत्र और देश के लिए बहुत अच्छा है. जब वे आते हैं, हम सारा सामान इन्हीं बाज़ारों से ले जाते हैं. हमने सभी तैयारियाँ पूरी कर ली हैं. अब केवल शेख़ साहब का इंतजार है, कि वह कब आएँगे."