#70yearsofpartition: बंटवारा भी नहीं तोड़ सका इन चारों की दोस्ती
फिरोज़ी नीली स्याही में लिखे ख़त में असफ़ ख़्वाजा ने दिल्ली में रह रहे अपने दोस्त अमर कपूर के सामने अपने दिल का हाल बयां कर डाला था.
70 साल पहले 1947 के अगस्त महीने में भारत में ब्रितानी हुकूमत का अंत हुआ था. इसके साथ ही दो नए स्वतंत्र देश बने- हिंदू बहुल 'भारत' और मुस्लिम बहुल 'पाकिस्तान.'
सौतिक बिस्वास ने उन चार दोस्तों की कहानी के टुकड़े जोड़े हैं जो इस त्रासद घटना में बिछड़ गए और फिर 30 साल बाद मिले.
'हमारा देश टूट गया है, हिंदुस्तान का महान और धड़कता हुआ दिल तोड़ दिया गया है.' ये पंक्तियां पाकिस्तान के लाहौर में रहने वाले एक युवक ने 1949 की गर्मियों में हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली में रहने वाले अपने दोस्त को लिखी थीं.
फिरोज़ी नीली स्याही में असफ़ ख़्वाजा ने अमर कपूर के सामने अपने दिल का हाल बयां कर डाला था. उपमहाद्वीप को भारत और पाकिस्तान नाम के दो नए आज़ाद देशों में बांटने वाले ख़ूनी बंटवारे को अभी मुश्किल से दो ही साल हुए थे.
हाल ही में पाकिस्तान टाइम्स अख़बार में बतौर पत्रकार जुड़े असफ़ लिखते हैं, 'जिनके साथ तुम स्कूल और कॉलेज में थे, जिनकी ज़िंदगी के शुरुआती 25 साल तुमसे जुड़े हुए हैं, लाहौर में तुम्हारे दोस्त, जिनके साथ तुम खेलते रहे हो, ईमानदारी से बताना चाहते हैं कि इस दूरी ने तुम्हारे लिए हमारे प्यार और स्नेह में ज़रा भी कमी नहीं की है.
भारत-पाक बंटवारा: 70 साल बाद भी वो दर्द ज़िंदा है..
भारत-पाक बंटवारे की वो प्रेम कहानी
क्या होता अगर भारत का बँटवारा नहीं हुआ होता?
'भारत के लिए बँटवारा आज़ादी की क़ीमत था'
हम तुम्हें याद करते हैं और अक्सर याद करते हैं. उसी भाव से, जिसने हमारे रिश्ते को अब तक बनाया हुआ है. हमने साथ में अच्छा वक़्त बिताया अमर, शानदार वक़्त साथ बिताया.'
बचपन में उन चारों में गहरा याराना था. अमर कपूर, असफ़ ख़्वाजा, आग़ा रज़ा और रिशाद हैदर के बीच भाइयों जैसी क़रीबी थी.
वे तीन मील के दायरे में रहते थे. एक-दूसरे के घर जाया करते और स्कूल से लौटते वक़्त साथ में स्ट्रीट स्नैक खाया करते. वे एक ही कॉलेज में पढ़े और टहनियों के विकेट बनाकर सॉफ़्ट बॉल से क्रिकेट खेले.
बचपन की मासूमियत से लेकर जवानी के अनाड़ीपन तक उन्होंने ख़ूब मस्ती करते हुए वक़्त गुजारा. फिर 1947 की अशांत गर्मियों में हिंसा भरा वह बेहद मुश्किल दौर आया.
बंटवारे ने जुदा कर दिए दोस्त
अमर की जुदाई ने इन दोस्तों को सबसे ज़्यादा दुखी किया. वह मंडली में इकलौते हिंदू थे. दोस्त उन्हें पंडितजी कहकर बुलाते थे.
अगस्त 1947 में बंटवारे के तीन हफ़्तों बाद अमर और उनके संयुक्त परिवार ने अपना 45 कमरों वाला घर और लाहौर में 57 साल पुराना प्रिंटिंग बिज़नेस छोड़ दिया और विस्थापितों में शामिल होकर सीमा पार चले गए.
दो साल बाद भी वे बंटवारे के अवशेषों के बीच जान बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे थे.यह मानव इतिहास के सबसे बड़े पलायनों में से एक था.
पीछे रह गए उनके जन्मस्थान में असफ़, आग़ा और रिशाद जवान हो गए थे और उन्होंने कुछ काम धंधा करके कमाने की कोशिशें शुरू कर दी थीं.
अपने अन्य दो दोस्तों के बारे में अमर को बताते वक़्त असफ़ की भाषा ख़ूब चुटीली थी. असफ़ ने लिखा, ''आग़ा और रिशाद ने बिज़नेस शुरू कर दिया है- वे ठग बन गए हैं. वे बर्मा शेल कंपनी के लिए एजेंसी चला रहे हैं और अच्छा पैसा कमा रहे हैं. काश तुम अहमद को देख पाते. वह मोटा हो गया है और गंजा भी. समृद्धि की इन निशानियों की वजह से तुम आसानी से उसे पहचान नहीं पाओगे. '
असफ़ बहुत व्यावहारिक थे. उन्हें क्रिकेट, कविताएं और पहाड़ बहुत पसंद थे. बाद में उन्हें ताश (contract bridge ) में भी रुचि हो गई. वह ज़्यादातर वक़्त अपने दादा के साथ कश्मीर की डल झील में हाउसबोट में बिताते या फिर स्वात घाटी के अनछुए हिस्सों में जाते. उन्हें दोनों मुल्कों के सुनहरे भविष्य को लेकर भी बहुत उम्मीदें थीं.
1947 में भारत का विभाजन
- मानव इतिहास में युद्ध या सूखे से अलग होने वाला शायद सबसे बड़ा पलायन
- दो नए स्वतंत्र देशों का गठन हुआ- भारत और पाकिस्तान
- करीब एक करोड़ 20 लाख लोग विस्थापित हुए
- 5 से 10 लाख लोग धार्मिक हिंसा में मारे गए
- कई हज़ार महिलाओं का अपहरण हुआ
- यह लेख बंटवारे के 70 साल होने पर बीबीसी की सीरीज का हिस्सा है
उन्होंने अमर को लिखा, 'बहुत परेशानियां सामने आई हैं और बहुत कड़वाहट पैदा हई है. मगर जो हुआ उसे पहले जैसा नहीं किया जा सकता. हम इतना ही कर सकते हैं कि अपनी पिछली ग़लतियों को सुधारें और बंट चुके लोगों के बीच शांति और भाईचारा वापस लाने के लिए पूरे दिल से काम करें.' मगर अमर उतने उत्साहित नहीं थे.
लाहौर में दंगे शुरू हो चुके थे- बंटवारे से कुछ महीने पहले इस मुस्लिम बहुल शहर में व्यापार में ग़ैर-मुसलमानों का दबदबा था. धुएं से भरे आसमान के नीचे हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे के दुश्मन बन चुके थे.
संपत्तियों में आग लगा दी गई, दुकानों और घरों को लूटा गया. अमर के पिता ने बच्चों और महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी थी.
उनके परिवार ने सितंबर में लाहौर छोड़कर अमृतसर जाने के लिए आधा दर्जन कारों के काफिले में सफर शुरू किया था. इस काफ़िले की अगुवाई अमर के पिता की स्लेटी रंग की ओपल कार कर रही थी. उन्होंने दरवाज़े के साथ .38 कैलिबर रिवॉल्वर छिपाई हुई थी.
94 साल के कपूर ने हाल ही में बताया, 'यह पागलपन था, पूरा पागलपन.'
अमर ने डायरी में दर्ज किया अपना संघर्ष
1947 की ख़ून से सनी गर्मियों में उनके परिवार ने दिल्ली आने से पहले तीन महीने के तालाबंद घर के बरामदे में बिताए. इस दौरान वह डायरी लिखते रहे. दिल्ली में कपूर परिवार ने एक विवादित घर के तीन कमरों में तीन साल बिना बिजली के बिताए.
अमर ने डायरी में लिखा है, 'तीन जून 1947 को यह तय हुआ था कि भारत का विभाजन होगा और पाकिस्तान बनेगा. उस दिन भारत अभिशप्त हो गया था.' वह याद करते हैं कि इस ऐलान के बाद हिंसा का सिलसिला नहीं थमा.
उन्होंने लिखा, 'धर्म पूरी तरह से निजी मामला होना चाहिए. और व्यक्तिगत मामले को हत्या जैसी हैवानियत और अन्य अमानवीय कृत्यों को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
मगर असफ़ को यक़ीन था कि इस सब का उनकी दोस्ती पर कोई असर नहीं होगा.
असफ़ ने अपने एक ख़त में लिखा है, 'साझी यादें और अनुभव हमें इतने क़रीब से बांधे हुए हैं कि कैसे भी बाहरी हालात हमें जुदा नहीं कर सकते.'मगर दूरी, अनुभव और वक़्त ने चारों दोस्तों को दूर कर दिया.
तीन दशकों तक वे एक-दूसरे से कटे रहे. दो प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन देशों में रहते हुए दोस्ती बनाए रखना बहुत मुश्किल था. इसलिए नहीं कि उन्हें एक-दूसरे का वीज़ा मिलना मुश्किल था. उन्हें एक-दूसरे का पता ही मालूम नहीं था.
मगर नियति के एक फेर ने इन चारों को फिर मिला दिया.
3 दशक बाद हुआ एक-दूसरे से संपर्क
1980 की गर्मियों में आग़ा रज़ा के एक चाचा दिल्ली में एक कॉन्फ्रेंस में शिरकत करने आए. जाने से पहले आग़ा ने उन्हें अमर की खोज-ख़बर लेने और उसका पता मालूम करने के लिए कहा था. आग़ा ने बताया कि उनके दोस्त के परिवार का नाम कपूर है और उनके परिवार का दिल्ली में प्रिंटिंग प्रेस का बिज़नेस है.
चारों की इस मंडली में आग़ा बहुत मस्तमौला थे, अपने ही कायदों से चलते थे. उन्होंने एक तेल कंपनी में काम किया, पाकिस्तानी नेवी में ऑफिसर रहे और फिर उन्होंने लेबर डिपार्टमेंट में भी काम किया.
जब वह 30 से 40 साल के थे, लाहौर से करीब 120 किलोमीटर दूर अपने परिवार के फार्म की देखभाल करने के लिए रिटायर हो गए. उनके दोस्त उन्हें किसान कहकर बुलाते थे.
अब वह बहुत वक़्त पहले बिछड़े अपने दोस्त को ढूंढने में जुटे थे.
दिल्ली में उनके अंकल, जो कि पूर्व राजनयिक थे, ने टेलिफोन डायरेक्टरी उठाई और सभी अमर कपूर को कॉल करना शुरू किया. वह सौभाग्यशाली थे कि चौथी कॉल में उनकी तलाश पूरी हो गई. अब वह अमर का फ़ोन नंबर और अड्रेस लेकर पाकिस्तान लौटे. जल्द ही दोस्तों के बीच फिर से तार जुड़ गए.
वे फोन पर बात करते और एक-दूसरे को लिखते. उन्होंने अपने और परिवार के बारे में जानकारियां साझा कीं. वे सभी अब शादीशुदा थे और उनके बच्चे थे. काम भी कर रहे थे. एक-दूसरे के अब तक से सफ़र के बारे में भी उन्होंने जाना.
रिशाद हैदर की गिनती अब पाकिस्तान के सबसे कामयाब बैंकिंग प्रोफ़ेशनल्स में होने लगी थी. आग़ा अपने फ़ार्म की देखरेख कर रहे थे. असफ़ पाकिस्तान टाइम्स के साथ काम कर रहे थे और पाकिस्तान नैशनल प्रेस ट्रस्ट के चेयरपर्सन भी रह चुके थे. सैन्य नेता जनरल ज़िया-उल-हक़ से मतभेदों के चलते उन्होंने यह पद छोड़ा था.
अमर ने दिल्ली और आगरा में अपना नया प्रिंटिंग बिज़नेस स्थापित कर लिया था.
उन्होंने सुख-दुख बांटे, बच्चों की शादी की बात की, परिजनों के निधन के समाचार दिए. जब अमर को दिल्ली के पॉश इलाक़े में अपने परिवार का घर भाई से विवाद के चलते खोना पड़ा, तब आग़ा ने उन्हें लिखा, 'तुम्हारे घर के बिक जाने की ख़बर सुनकर मैं चौंक गया और बहुत दुखी हुआ. ऐसा लगा जैसे मेरा घर बिक गया हो. ऐसा होना कितना दुर्भाग्यपूर्ण है. मगर क्या पता, तुम्हारे और बाकी परिवार के लिए यह अच्छी बात साबित हो.'
जब मिल बैठे चार यार
जनवरी 1982 में अमर पाकिस्तान लौटे, आग़ा के बेटे क़ासिम की शादी में शिरकत करने के लिए. चूंकि वीज़ा लेने के लिए सबूत के तौर पर शादी का कार्ड जमा करना ज़रूरी था, आग़ा ने महीनों पहले ही स्पेशल कार्ड बनावकर अपने दोस्त के पास दिल्ली भेजा.
अमर के पास सिर्फ़ लाहौर जाने का ही वीज़ा था, ऐसे में बाक़ी तीन दोस्त उनसे मिलने कराची और इस्लामाबाद से आए, वहां वे काम कर रहे थे. अगले दशक में कपूर परिवार तीन बार पाकिस्तान गया. भारतीयों को उनके प्रतिद्वंद्वी (पाकिस्तान) से टेस्ट मैच देखने के लिए आसानी से वीज़ा मिलता था.
लाहौर में परिवार के सदस्य अमर के वहां आने पर पूरी रात चलने वाली लंबी बातचीत और दिन भर चलने वाले ताश के खेल को याद करते हैं.
रिशाद हैदर की बेटी साइमा हैदर ने कहा, 'वे भाइयों जैसे थे, परिवार की तरह. मुझे यह बात मजेदार लगी कि चारों काफ़ी सक्रिय और कामयाब थे. मगर जब वे मिले तो तो एक-दूसरे में रम गए और बच्चों की तरह हो गए. उनकी दोस्ती में कमाल की गहराई थी. '
अमर अक्सर फ़ोन करते और आग़ा को दिल्ली आने का न्योता देते. एक दिन आग़ा ने अमर को लिखा कि मैं जल्द आ सकता हूं. उन्होंने लिख था, 'तुम्हारे मुझे बार-बार प्यार से बुलाने पर मुझे बुरा लगता है कि मैं अब तक नहीं आ पाया. मगर आज नहीं तो कल, इंशाअल्लाह हम जल्द मिलेंगे.'
1988 की सर्दियां क़रीब थीं. आग़ा ने अमर से वादा किया कि वह नए साल पर उनसे मिलने दिल्ली आएंगे. मगर दिसंबर मे 67 साल की उम्र में हार्ट अटैक से घर पर ही उनका देहांत हो गया.
इसके बाद 1993 में 67 साल की उम्र में रिशाद ने इस दुनिया को अलविदा कहा. तबीयत खराब होने पर वह अपने मृत्यु से कुछ दिन पहले अस्पताल में भर्ती हो गए थे. उन्होंने परिवार से कहा था- लगता है कि मेरा वक़्त आ गया है.
जून 1996 में अस्वाभाविक रूप से उदास असफ़ ने अमर को लिखा- "उम्र भर के यारों को खोना कितना दुख भरा है. ऐसा लगता है कि आपका कोई अपना हिस्सा खो दिया हो. आग़ा अहमद और रिशाद मेरे जीवन में खालीपन छोड़ गए हैं. ऐसा ख़ालीपन जिसे कभी नहीं भरा जा सकता. मेरी भी ख़ुद की सेहत अब ख़ास नहीं है. जल्द ही शायद मैं भी अपने दिवंगत दोस्तों से मिलूंगा.'
आगे उन्होंने लिखा है, 'मेरी इकलौती चाहत यही है कि मैं भी वैसे ही मरूं, जैसे वे मरे- अचानक, ज़्यादा दर्द सहे बिना.
असफ़ ने 'दोनों बच्चों के बाहर अमरीका में होने की वजह से अकेलेपन में जीने' को लेकर भी लिखा है. उन्होंने कहा कि वे हर दो-तीन साल में एक-दूसरे के मुल्क जाकर मिले मगर इन 'छोटी मुलाकातों ने अकेलेपन की टीस को और गहरा किया है. कई बार मुझे लगता है कि मेरा जीन मेतलब हो गया है.'
असफ़ को ऐसे भविष्य की उम्मीद थी जहां उनके बच्चे अपने पैरंट्स की दोस्ती को आगे बढ़ाएंगे, असफ़ लिखते हैं, 'अगर तुम और मैं नहीं मिलते हैं तो हमारे बच्चे मिल सकते हैं और उस दोस्ती को आगे बढ़ा सकते हैं जिसे उनके पैरंट्स इतिहास की एक त्रासद चाल की वजह से बमुश्किल जारी रख पाए हैं.'
एक महीने बाद, 29 जुलाई को असफ़ ख्वाजा सुबह उठे, नहाए, नाश्ता किया और अख़बार पढ़ने लगे. तभी उन्हें हार्ट अटैक आया और उन्होंने आखिरी सांस ली. उनकी उम्र 71 साल थी.
94 साल के कपूर इस मंडली के इकलौते बचे सदस्य हैं. 20 साल पहले उन्होंने अपना बिज़नस बेच दिया था. अपनी पत्नी मीना के साथ वह दिल्ली के पास फरीदाबाद में 1986 में बनाए गए दो मंजिला घर में व्यस्त जीवन बिता रहे हैं.इस उम्र में भी वह कमाल के फ़ुर्तीले हैं. वह पेंसिंल की ड्राइंग, पेंटिंग्स, फोटोग्राफ और यादों के सहारे जी रहे हैं. वह अपने बीते हुए कल को लेकर उदसीन हैं. किसी और काम के बजाय रोटरी क्लब में अपनी पत्नी के काम में ज्यादा गर्व महसूस करते हैं.
मैंने उनसे पूछा कि क्या आपको अपने दोस्तों की याद आती है.
वह कहते हैं, 'हां, उनकी याद आती है. मैं उन्हें प्यार करता था और अब पहले से भी ज़्यादा प्यार करता हूं. वे ही मेरे असली दोस्त रहे हैं.'
(अमर कपूर की डायरी और ख़त अमृतसर के पार्टिशन म्यूज़ियम से लिए गए हैं. तस्वीरें मानसी थपलियाल की हैं. आर्काइव पिक्चर्स उनके परिजनों ने दी हैं. इंटरव्यू दिल्ली में हुआ और फोन के जरिए कराची, लाहौर, इस्लामाबाद और कैलिफोर्निया में बात की गई.)