तालिबान का 1996 से 2001 तक अफ़ग़ानिस्तान में कैसा शासन था?- विवेचना

16 मई, 1996 को नरसिम्हा राव के भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर इस्तीफ़ा देने के चार महीने और नौ दिनों बाद यानी 25 सितंबर, 1996 को काबुल पर तालिबान का कब्ज़ा हो गया.
सत्ता में आने के दो दिनों के भीतर तालिबान ने भारत के क़रीबी नजीबुल्लाह के सिर में गोली मार उनके शव को एक क्रेन से लटका दिया. काबुल का पतन और नजीबुल्लाह की वीभत्स हत्या ने भारत क्या पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया.

किंग्स कॉलेज, लंदन में रक्षा अध्ययन के प्रोफ़ेसर अविनाश पालिवाल अपनी किताब 'माई एनिमीज़ एनिमी' में लिखते हैं, ''इसका तत्काल असर ये हुआ कि भारत ने काबुल में अपना दूतावास बंद कर दिया. 2001 तक जब तक तालिबान सत्ता में रहे, भारत ने अपना राजदूत वहाँ नहीं भेजा. यही नहीं, उसने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव नंबर 1076 का समर्थन किया, जिसमें मानवाधिकार और महिला अधिकार उल्लंघन के लिए तालिबान की आलोचना की गई थी.''
''इसके अलावा, उसने तालिबान की जगह अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त रब्बानी सरकार को मान्यता दी और उनके राजनीतिक साथी मसूद ख़लीली को भारत में अफ़ग़ानिस्तान के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार किया. साथ ही, तालिबान के विरोधी यूनाइटेड फ़्रंट को सैनिक, वित्तीय और मेडिकल सहायता प्रदान की.''
औरतों के घर से बाहर निकलने और फ़ैशन पर प्रतिबंध
महिलाओं के प्रति तालिबान के रुख़ की पहली झलक नवंबर, 1996 को जारी एक सरकारी आदेश से मिली, जिसने औरतों को ऊँची एड़ी की चप्पलें और जूते पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया.
यही नहीं, उनके जूते से निकलने वाली आवाज़ पर भी उन्हें सज़ा देने का प्रावधान किया गया. उनके मेकअप करने और फ़ैशन वाले कपड़े पहनने पर रोक लगा दी गई.

महिलाओं को संबोधित आदेश में कहा गया, ''तुम लोग अपने घर से बाहर नहीं निकलोगी. अगर तुम्हारा घर से निकलना बहुत ही ज़रूरी हो जाए, तो तुम्हें इस्लामी शरिया क़ानून के अनुसार अपने आप को पूरी तरह ढ़क कर निकलना होगा.''
''महिला मरीज़ों को सिर्फ़ महिला डॉक्टरों के पास ही जाना होगा. कोई भी ड्राइवर उन महिलाओं को अपनी कार में नहीं बैठाएगा, जिन्होंने बुर्का नहीं पहना होगा. अगर वो ऐसा करता है, तो ड्राइवर के साथ-साथ महिला के पति को भी सज़ा दी जाएगी.''
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दाढ़ी लंबी न होने पर सज़ा
महिलाओं को मेडिकल क्षेत्र को छोड़ कर पश्चिमी मानवीय सहायता एजेंसियों के लिए काम करने के लिए भी प्रतिबंधित कर दिया गया.
मशहूर लेखक अहमद रशीद अपनी किताब 'तालिबान द स्टोरी ऑफ़ द अफ़ग़ान वॉरलॉर्ड्स' में लिखते हैं, ''मेडिकल क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के ड्राइवर के बगल वाली सीट पर बैठने पर पाबंदी लगा दी गई. हुकुम में कहा गया कि किसी अफ़गान महिला को उस कार में सफ़र करने का अधिकार नहीं था, जिसमें विदेशी बैठे हों. अफ़ग़ान बच्चों की एक पूरी पीढ़ी बिना शिक्षा प्राप्त किए हुए बड़ी हुई.''

जब तालिबान पहली बार काबुल में दाख़िल हुए तो धार्मिक पुलिस ने लोगों को सिर्फ़ इस बात पर पीटना शुरू कर दिया कि उनकी दाढ़ी की लंबाई पर्याप्त नहीं थी या औरतों ने बुर्का ढ़ंग से नहीं पहना हुआ था. इस धार्मिक पुलिस के कामकाज करने का ढंग सऊदी अरब की धार्मिक पुलिस की तरह था.
बॉरनेट रयूबिन ने अपनी किताब 'द फ़्रेगमेन्टेशन ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान' में लिखा, ''अफ़गानिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी खाड में, जिसका तालिबान के ज़माने में नाम बदल कर 'वाड' कर दिया गया था, 15,000 से 30,000 पेशेवर जासूस काम करते थे. इसके अलावा, उससे क़रीब एक लाख दूसरे व्यक्ति भी जुड़े हुए थे, जो पैसे ले कर प्रशासन तक सूचनाएं पहुँचाते थे.''
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खेलों पर प्रतिबंध
तालिबान के धार्मिक आदेश 'रेडियो काबुल', जिसका नाम बदल कर 'रेडियो शरियत' कर दिया गया था, पर प्रसारित होते थे. लोगों के हर सामाजिक व्यवहार पर तालिबान ने नियंत्रण करने की कोशिश की थी.
अहमद रशीद लिखते हैं, ''शुरू में सभी खेलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. बाद में, इसकी अनुमति तो दी गई, लेकिन दर्शकों से अपेक्षा की जाती थी कि वो खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के लिए बार बार 'अल्ला ओ अकबर' चिल्लाएं और तालियाँ बजाने से बचें.''
अगर खेल के दौरान नमाज़ का समय हो गया हो तो खेल को बीच में ही रोक दिया जाए और खिलाड़ी और दर्शक दोनों समूह में नमाज़ पढ़ें. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान में लोकप्रिय पतंगबाज़ी और महिलाओं के खेलों में भाग लेने पर पूरी पाबंदी लगा दी गई.'' तालिबान के लिए इन आदेशों पर सवाल उठाना इस्लाम के प्रति सवाल उठाने के समकक्ष बन गया.

स्कूलों को किया गया बंद
संयुक्त राष्ट्र मानवीय सहायता कार्यालय ने अक्तूबर, 1996 में एक वक्तव्य जारी कर कहा था कि ''तालिबान के सत्ता सँभालने के तीन महीनों के अंदर काबुल में 63 स्कूलों को बंद कर दिया गया था, जिसकी वजह से 11,200 अध्यापकों की नौकरी चली गई थी, जिसमें 7800 महिलाएं थीं.''
दिसंबर, 1998 में यूनेस्को की एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि ''तालिबान के आने के कुछ ही महीनों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गई और दस में से नौ बालिकाओं और तीन में से दो बालकों का स्कूल में दाख़िला ही नहीं करवाया गया.''
अस्सी के दशक तक, जब तक सोवियत सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान में रहीं, पूरी दुनिया की सहायता अफ़ग़ान लोगों तक पहुंचती रही. लेकिन जैसे ही तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा हुआ, वहाँ विदेशी सहायता आनी बंद हो गई.

बच्चों का सैनिकों के रूप में इस्तेमाल
उन दिनों काबुल के बच्चों पर यूनिसेफ़ की डॉक्टर लैला गुप्ता द्वारा किए गए शोध से पता चला कि वहाँ के दो तिहाई बच्चों ने अपनी आँखों के सामने किसी न किसी को मरते हुए देखा था. क़रीब 70 फ़ीसदी बच्चों ने अपने परिवार के एक न एक सदस्य को खो दिया था. उनमें से अधिकतर बच्चे फ़्लैशबैक, डरावने सपनों और अकेलेपन के शिकार हो गए.

एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट 'इन द फ़ायरिंग लाइन वॉर एंड चिल्ड्रेन्स राइट्स' में कहा गया कि ''तालिबान के सभी सरदारों ने बालक सैनिकों का इस्तेमाल किया. उनमें से कुछ की उम्र तो 12 साल से भी कम थी. उनमें से अधिकतर बच्चे अनाथ और अनपढ़ थे और उनके पास लड़ने के अलावा कोई नौकरी नहीं थी.''
''तोपखाने की बैटरियाँ और हथियार इधर से उधर ले जाने और सैन्य ठिकानों की रखवाली के लिए इन बच्चों का इस्तेमाल किया जाता था. जब 1998 में दुनिया भर में सैनिकों की न्यूनतम उम्र 15 से 18 किए जाने की मुहिम चलाई गई तो तालिबान ने उसका घोर विरोध किया.''
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सिनेमा देखने और गाने पर प्रतिबंध
हेरात को अफ़ग़ानिस्तान के सबसे आधुनिक शहरों में माना जाता था. वहाँ के संभ्राँत वर्ग की महिलाएं एक ज़माने में दूसरी भाषा के तौर पर फ़्रेंच बोला करती थीं. 1992 में मुजाहिदीन के शासन के दौरान तक काबुल की 40 फ़ीसदी महिलाएं नौकरी किया करती थीं.
उनके सिनेमा देखने, खेलने और शादियों में गाना गाने पर कोई रोकटोक नहीं थी. तालिबान के सत्ता संभालते ही इन सब गतिविधियों पर विराम लग गया.

अहमद रशीद लिखते हैं, ''इसकी वजह थी तालिबान के लिए लड़ने वालों की पृष्ठभूमि. ये लोग अनाथ थे, जिनकी कोई जड़ें नहीं थीं. इन्हें शरणार्थी शिविरों से भर्ती किया गया था. इनकी पूरी परवरिश पुरुष सत्तात्मक समाज में हुई थी, जहाँ महिलाओं पर नियंत्रण करना और उन्हें अलग-थलग रखना पौरुष की निशानी और जिहाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के तौर पर माना जाता था.''

समलैंगिकता के खिलाफ़
अफ़ग़ानी महिलाओं की निजी ज़िंदगी पर तालिबान की तेज़ नज़र का वर्णन कार्ला पावर ने न्यूज़वीक के 13 जुलाई, 1998 में 'सिटी ऑफ़ सीक्रेट्स' शीर्षक से छपे एक लेख में किया था. उन्होंने लिखा था, ''दर्ज़ियों को हुक्म था कि वो महिलाओं के कपड़े सिलने के लिए उनकी नाप न लें, बल्कि अपनी महिला ग्राहकों की नाप को अपने दिमाग़ मे याद कर लें. सारी फ़ैशन पत्रिकाओं को नष्ट कर दिया गया. औरतों के नेल पेंट लगाने, दोस्त की तस्वीर खींचने, ताली बजाने, चाय पर किसी विदेशी को आमंत्रित करने पर सज़ा का प्रावधान कर दिया गया.''
काबुल के लोगों को पूरी दाढ़ी बढ़ाने के लिए सिर्फ़ छह हफ़्तों का समय दिया गया. कुछ जातीय समूहों जैसे हज़ारा लोगों को इससे बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि उनकी दाढ़ी बढ़ने का नाम ही नहीं लेती थी. तालिबान का कानून था कि किसी भी हालत में दाढ़ी एक मुट्ठी से छोटी नहीं हो सकती थी. उस ज़माने में एक मज़ाक प्रचलित था कि अफ़ग़ानिस्तान जाने के लिए वीज़ा की नहीं बल्कि बढ़ी हुई दाढ़ी की ज़रूरत है.
टॉमस बारफ़ील्ड ने अपनी किताब 'अफ़ग़ानिस्तान: अ कल्चरल एंड पॉलिटिकल हिस्ट्री' में लिखा, ''तालिबान की धार्मिक पुलिस हर गली चौराहे पर कैंचियों के साथ खड़ी रहती थी और लोगों के बड़े बालों को सरेआम काट देती थी. ये ज़रूरी था कि लोग ऐसी सलवार या पाजामा पहनें जो उनकी एड़ी से ऊपर हो और सभी लोग पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ें. तालिबान समलैंगिकता के भी सख़्त ख़िलाफ़ थे. अप्रैल, 1998 में समलैंगिक संबंध बनाते पकड़े गए दो सैनिकों को पीट कर उनका मुंह काला कर काबुल की सड़कों पर घुमाया गया था.''

पेंटिंग पर सफ़ेद रंग पोता गया
तालिबान के आने से पहले अफ़ग़ान लोगों में सिनेमा और टीवी देखने और संगीत सुनने का बहुत चलन था. लेकिन तालिबान ने इन सब पर प्रतिबंध लगा दिया.
तालिबान के शिक्षा मंत्री मुल्ला मोहम्मद हनिफ़ी ने एक इंटरव्यू में कहा था, ''हम जानते हैं कि लोगों को थोड़े मनोरंजन की ज़रूरत होती है. इसके लिए वो पार्कों में जा कर फूलों को निहार सकते हैं. तालिबान संगीत के इसलिए ख़िलाफ़ है, क्योंकि इससे दिमाग में तनाव पैदा होता है और इस्लाम की शिक्षा में रुकावट पैदा होती है.''
अफ़ग़ानिस्तान में सदियों से शादी-ब्याह के मौक़े पर गाने की परंपरा रही है, जिससे हज़ारों लोग अपनी जीविका चलाते थे. संगीत पर प्रतिबंध लगने के बाद इनमें से अधिकतर लोग पाकिस्तान भाग गए. किसी को भी अपने घरों में तस्वीरें, फ़ोटो और पेंटिंग लगाने की मनाही थी. अफ़ग़ानिस्तान के एक मशहूर पेंटर मोहम्मद मशाल हेरात के 500 साल के इतिहास पर एक विशाल मुराल बना रहे थे. तालिबान के लोगों ने उनकी आंखों के सामने ही उनके मुराल पर सफ़ेद रंग पोत दिया.
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राबिया बल्ख़ी के मक़बरे पर जाने पर रोक
मज़ार-ए-शरीफ़ में एक दसवीं सदी की कवयित्री राबिया बल्ख़ी का एक मक़बरा हुआ करता था.
अहमद रशीद लिखते हैं, ''अपने समय की वो पहली महिला कवयित्री थीं, जिन्होंने फ़ारसी में प्रेम कविताएं लिखी थीं. उनके बारे में मशहूर था कि उनके भाई ने उन्हें अपने प्रेमी के साथ पकड़ लिया था, तो राबिया ने अपनी कलाई की नसें काट ली थीं.''
''राबिया ने अपनी अंतिम कविता अपने खून से लिखी थी और उसी हालत में उनका देहांत हो गया था. सदियों से युवा अफ़ग़ान लड़के और लड़कियाँ उनकी मज़ार पर जाकर अपने प्रेम के सफल होने की दुआएं माँगा करते थे. जब मज़ार-ए-शरीफ़ पर तालिबान का कब्ज़ा हो गया तो उन्होंने लोगों के राबिया के मक़बरे पर जाने पर रोक लगा दी.''

बामियान में बुद्ध की मूर्तियाँ धराशाई की गईं
तालिबान की कट्टरता का सबसे बड़ा नमूना तब मिला, जब उन्होंने मार्च 2001 में बामियान में बुद्ध की दो विशालकाय मूर्तियों को नष्ट कर दिया.
काबुल में तैनात संयुक्त राष्ट्र के अधिकारी फ़िलिप कॉरविन ने अपनी आत्मकथा 'डूम्ड इन अफ़ग़ानिस्तान: अ यू एन ऑफ़िसर्स मेमॉएर्स ऑफ द फॉल ऑफ़ काबुल' में लिखा, ''जब तालिबान के टैंक, विमानभेदी तोपें और तोपों के गोले दुनिया की सबसे ऊँची बुद्ध की मूर्तियों को नहीं ध्वस्त कर पाए तो वो कई ट्रकों में डाइनामाइट भर कर लाए और उन्होंने उन्हें उन मूर्तियों में ड्रिल कर दिया.''
''तालिबान इन मूर्तियों को नष्ट करने के लिए इतने आमादा थे कि उन्होंने करीब एक महीने तक उन्हें नष्ट करने का काम जारी रखा. तालिबान के नेता मुल्ला उमर ने 26 फ़रवरी, 2001 को अफ़ग़ानिस्तान में सभी ग़ैर-इस्लामी मूर्तियों को गिराने का आदेश दिया था. काबुल के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी गई मूर्तियों का भी यही हश्र हुआ.''

कई देशों ने, जहाँ बड़ी संख्या में बौद्ध रहते हैं जैसे- श्रीलंका, चीन, जापान, लाओस, म्यांमार, भूटान और थाईलैंड ने तालिबान के इस कदम का विरोध किया. यहाँ तक कि तालिबान के समर्थक पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमारात ने भी इसका विरोध किया, लेकिन तालिबान ने किसी की नहीं सुनी.
लेकिन अमरीका में तालिबान के दूत सैयद रहमतउल्लाह हाशमी और पाकिस्तान में तालिबान के दूत मुल्ला अब्दुल सलीम ज़ईफ़ ने इसका ठीकरा यूरोपीय राजनयिकों की काबुल यात्रा पर फोड़ा.
बारबारा क्रॉसेट ने न्यूयॉर्क टाइम्स के 19 मार्च, 2001 के अंक में 'तालिबान एक्सप्लेंस बुद्धा डिमोलिशन' शीर्षक से लिखे लेख में लिखा, ''तालिबान ने कहा कि जब अफ़ग़ानिस्तान में सूखे जैसे हालात बन रहे हों और लाखों अफ़ग़ानी भुखमरी के कगार पर हों, तब यूरोपीय प्रतिनिधिमंडल ने बुद्ध की मूर्तियों के जीर्णोद्धार के लिए तो धन देने की पेशकश की लेकिन अफ़ग़ानी बच्चों को अनाज देने से साफ़ इनकार कर दिया. अगर आपके बच्चे आपकी आँखों के सामने मर रहे हों, तब आपको कला के एक टुकड़े के बारे में चिंता नहीं हो सकती.''
जापान ने तो इन मूर्तियों को ख़रीदने तक की पेशकश की, जिससे मिलने वाले धन को भूख से मर रहे अफ़ग़ान बच्चों को खिलाने के लिए इस्तेमाल किया जा सके, लेकिन तालिबान ने इस पेशकश को नामंज़ूर कर दिया.

हिंदुओं और सिखों से भेदभाव
मई, 2001 में तालिबान ने एक और विवादास्पद आदेश जारी कर वहाँ रहने वाले हिंदुओं और सिखों के सलवार कमीज़ और सफ़ेद पगड़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया.
अविनाश पालिवाल अपनी किताब 'माई एनिमीज़ एनिमी' में लिखते हैं, ''उनसे पहचान के लिए काली टोपी और माथे पर लाल तिलक लगाने के लिए कहा गया. हिंदू महिलाओं को आदेश दिया गया कि वह पीले कपड़े से अपने आप को पूरी तरह से ढ़कें और सार्वजनिक स्थानों पर गले में लोहे का नेकलेस पहनें. हिन्दुओं से ये भी कहा गया कि वो अपने घरों पर पीले रंग का झंडा लगाएं ताकि घरों को दूर से पहचाना जा सके.''

तत्कालीन भारत सरकार ने न सिर्फ़ इसकी निंदा की, बल्कि इसे संयुक्त राष्ट्र तक में उठाया. दिल्ली में यूनाइटेड फ़्रंट के प्रतिनिधि मसूद ख़लीली ने भी इस आदेश की निंदा करते हुए कहा, ''हिंदू अफ़ग़ान हमेशा से ही अफ़ग़ान संस्कृति का हिस्सा रहे हैं. उनको हमेशा से ही अपने धर्म के अनुसार पूजा करने और अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आज़ादी रही है. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के निर्माण में अच्छा योगदान दिया है.''
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इस्लामिक देशों ने आँखें मूँदीं
अफ़ग़ान लोगों को इससे सबसे अधिक तकलीफ़ हुई कि अधिकतर इस्लामिक देशों ने तालिबान के इन फ़ैसलों के प्रति अपनी आंखें मूँद लीं. पाकिस्तान, सऊदी अरब और खाड़ी के किसी भी देश ने अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं की शिक्षा या मानवाधिकारों की ज़रूरत के समर्थन में एक भी वक्तव्य जारी नहीं किया. न ही उन्होंने तालिबान की शरिया की व्याख्या पर कोई सवाल खड़े किए.
एशियाई मुस्लिम देश भी इस मसले पर पूरी तरह से ख़ामोश रहे. सत्ता में रहने के पाँच वर्ष बाद 9/11 के बाद जब अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की तलाश में अफ़ग़ानिस्तान में हस्तक्षेप किया, तब तालिबान को सत्ता से हाथ धोना पड़ा.
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