उज़्बेकिस्तान: ये देश ‘दूसरा मक्का’ बनने की राह पर है
ये एक सच्चाई है कि उज़्बेकिस्तान में भी कोई नहीं जानता कि वहाँ मक़बरों की संख्या कितनी है. कुछ अधिकारी इनकी संख्या दो हज़ार के क़रीब बताते हैं.
लेकिन ये भी सच है कि अगर उज़्बेक सरकार इन मस्जिदों और मक़बरों पर ठीक से काम करे, तो देश का पर्यटन बढ़ाने में उन्हें काफ़ी मदद मिल सकती है.
उज़्बेकिस्तान दुनिया का 'दूसरा मक्का' बनना चाहता है जहाँ हर साल तमाम देशों के तीर्थयात्री सजदे के लिए आएं.
मध्य एशिया के इस सबसे अधिक आबादी वाले देश में कई बेहद पुरानी संरक्षित मस्जिदें हैं और कई नामी तीर्थस्थल भी जो सिल्क रूट पर पड़ने वाले समरकंद और बुख़ारा जैसे शहरों में स्थित हैं.
लाखों उज़्बेक नागरिकों के लिए ये पवित्र स्थान हैं. लेकिन उज़्बेक सरकार के लिए ये पर्यटन को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण अवसर भी है. वो भी तब, जब दशकों के अलगाववादी और सत्तावादी शासन के बाद देश आज़ाद हुआ है.
समरकंद में दर्जनों शानदार कब्रगाहें मौजूद हैं. चग़ताई मंगोलों के ख़ान, तैमूरलंग की कब्र इसी शहर में है. उनके अलावा खगोल विज्ञानी उलुघबेक और पैग़ंबर मोहम्मद के चचेरे भाई कुसम इब्न अब्बास को भी समरकंद में ही दफ़नाया गया.
कुसम इब्न अब्बास ही सातवीं शताब्दी में इस्लाम को इस देश में लेकर आये थे.
लेकिन यहाँ एक ऐसी कब्र भी है जो सबसे अलग है. ये है दानियार की कब्र, जहाँ पहुँचने के लिए हर सुबह सैकड़ों लोग शहर के बाहरी इलाक़े में स्थित एक पहाड़ी की चोटी पर चढ़ते हैं.
चोटी तक पहुँचने का रास्ता पुराने शहर के खंडहरों से होकर गुज़रता है. ये रास्ता पिस्ते और खुबानी के पेड़ों से घिरा है. चढ़ाई के दौरान कुछ विशालकाय मक़बरे भी देखने को मिलते हैं.
पहाड़ी की चोटी पर हवा के साथ चिड़ियों के चहचहाने की आवाज़ मिलकर आती है. कुछ लोगों के प्रार्थना करने की आवाज़ भी सुनाई देती है.
यहाँ अक्सर परिवार साथ में बैठकर दोपहर का भोजन करते हैं और नौजवान सेल्फ़ी लेने में व्यस्त रहते हैं.
ग़ौर करने वाली बात है कि यहाँ पहुँच रहे लोगों में सिर्फ़ मुसलमान नहीं हैं. यहाँ ईसाईयों की भी अच्छी ख़ासी संख्या है क्योंकि इस जगह का ज़िक्र बाइबल में सेंट डैनियल (एक पैग़ंबर) के अंतिम विश्राम स्थान के तौर पर किया गया है.
उज़्बेक लोग पैग़ंबर डैनियल को दानियार कहते हैं.
फ़िरदोव्सी एक युवा गाइड हैं. वो बताते हैं, "मुसलमान, ईसाई और यहूदी. यहाँ सब आते हैं. वो सभी यहाँ अपने-अपने मज़हब के अनुसार पूजा करते हैं. सेंट डैनियल एक यहूदी थे लेकिन हमारे मुस्लिम समाज के लोग उनका ये मानकर सम्मान करते हैं कि वो अल्लाह के पैग़ंबर थे."
- अगर बाबर न आता तो भारत कैसा होता
- इतिहास रंगा है तैमूर के ज़ुल्म की कहानियों से
- भारतीय इस्लाम को बचाना क्यों ज़रूरी है
दिलरबो बताती हैं, "मैं यहाँ अक्सर आती हूँ. यहाँ आकर मैं पैग़ंबर दानियार की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करती हूँ. वो सिर्फ़ ईसाईयों के नबी नहीं थे. वो इंसानियत के लिए आये थे. मैंने उनके सम्मान में ही अपने नाती का नाम दानियार रखा है."
यहाँ हर रोज़ एक मौलाना दोपहर में प्रार्थना आयोजित करते हैं और उसके बाद लोगों को पंक्ति बनाकर कब्र को क़रीब से देखने का मौक़ा दिया जाता है.
ये एक असाधारण इमारत है. क़रीब 65 फ़ीट लंबी और मध्य-युगीन इस्लामी शैली में आंतरिक मेहराब और एक गुंबददार छत के साथ रेत के रंग की ईंटों से बनी हुई है.
मक़बरे के अंदर एक 18 मीटर लंबा ताबूत रखा हुआ है. इसके ऊपर हरे रंग का एक मखमल का कपड़ा बिछा है जिस पर पवित्र क़ुरान की आयतें लिखी हैं.
रूस से आईं क्रिस्टीना और इसराइल से आईं सुज़ैन ने बताया कि वो ईसाई हैं और उनके यहाँ इस स्थान की बड़ी मान्यता है.
सुज़ैन ने कहा कि ईसाई इस मक़बरे पर आकर प्रार्थना कर पा रहे हैं, ये उज़्बेक लोगों के सहिष्णु होने की पहचान है. कई लोग स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए भी यहाँ आकर प्रार्थना करते हैं.
उपचार के लिए जादू-टोने का इस्तेमाल करना और इलाज के लिए संतों के मक़बरों पर जाकर प्रार्थना करना, उज़्बेकिस्तान की परंपरा का अहम हिस्सा है.
उज़्बेक लोग आज भी उन परंपराओं का पालन करते हैं जो यहाँ इस्लाम के आने से पहले से थीं. उज़्बेकिस्तान में इस्लाम 1200 साल पहले आया लेकिन लोगों ने अपनी परंपराओं पर धर्म को हावी नहीं होने दिया.
शायद यही वजह है कि सेंट डैनियल के मक़बरे से जुड़ी तमाम किंवदंतियाँ यहाँ सुनाई जाती हैं.
- आधुनिक विज्ञान में अरब जगत का कितना प्रभाव?
- क्या इस्लाम और पश्चिम साथ नहीं चल सकते?
- अपाहिज थे तैमूरलंग, लेकिन जीता जहां
उज़्बेकिस्तान सरकार का दावा है कि उनके यहाँ ऐसे सैकड़ों ऐतिहासिक मक़बरे हैं, जिनमें से कई को सोवियत संघ के समय बंद कर दिया गया था.
एक धार्मिक स्कूल के छात्र रहे ख़ुर्शीद यूलदोशेव कहते हैं, "मध्य एशियाई इस्लाम काफ़ी लचीला है. ये समावेशी है और स्थानीय परंपराओं के साथ मिश्रित है. यही कारण है कि यहाँ धर्म की व्याख्या और अधिक सहिष्णुता से की गई है. मक़बरों का दौरा करने की परंपरा एक सौम्य परंपरा है. ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है. इसका राजनीतिक इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है."
'राजनीतिक इस्लाम' वो बला है जिसका उज़्बेक सरकार को बहुत डर है. दिवंगत राष्ट्रपति इस्लाम करीमोव के 26 साल के निरंकुश शासन में हज़ारों स्वतंत्र मुसलमानों को जेल भेजा गया था.
लेकिन अब उज़्बेकिस्तान का दावा है कि वो बदल रहा है.
साल 2016 में करीमोव की मृत्यु के बाद सत्ता में आने वाले, उज़्बेकिस्तान के मौजूदा राष्ट्रपति शवक़त मिर्ज़ियोयेव ने वादा किया था कि देश में पहले से ज़्यादा धार्मिक स्वतंत्रता होगी.
राष्ट्रपति शवक़त मिर्ज़ियोयेव हाल ही में ताशकंद में बने सेंटर ऑफ़ इस्लामिक सिविलाइज़ेशन के मुखिया भी हैं.
उनका मानना है कि नास्तिक सोवियत संघ में रहने वाले उज़्बेक लोगों में देश से साम्यवाद के ग़ायब होने के बाद ज्ञान की कमी हो गई थी.
इस बयान में उनका इशारा 1990 के दशक में भ्रमित होकर तालिबान और अलक़ायदा से जुड़े संगठनों में शामिल हुए उज़्बेक नौजवानों की ओर था.
नई सरकार के अधिकारियों को ये उम्मीद है कि पुरानी स्थानीय परंपराओं पर फिर ज़ोर देने से देश में धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ लड़ना आसान होगा.
राष्ट्रपति शवक़त मिर्ज़ियोयेव का कहना है, "कट्टरवाद अज्ञानता का परिणाम होता है. लेकिन हम अपने लोगों को 'ज्ञान का इस्लाम' सिखाना चाहते हैं."
ये एक सच्चाई है कि उज़्बेकिस्तान में भी कोई नहीं जानता कि वहाँ मक़बरों की संख्या कितनी है. कुछ अधिकारी इनकी संख्या दो हज़ार के क़रीब बताते हैं.
लेकिन ये भी सच है कि अगर उज़्बेक सरकार इन मस्जिदों और मक़बरों पर ठीक से काम करे, तो देश का पर्यटन बढ़ाने में उन्हें काफ़ी मदद मिल सकती है.
उज़्बेकिस्तान की पर्यटन समिति के डिप्टी हेड अब्दुल अज़ीज अक्कुलोव कहते हैं, "पिछले साल लगभग 90 लाख उज़्बेक नागरिकों ने तीर्थयात्रा की और इन मक़बरों पर जाकर प्रार्थना की."
हालांकि, विदेशी पर्यटकों की संख्या अभी थोड़ी कम है. पिछले एक साल में क़रीब 20 लाख विदेशी लोग ही उज़्बेकिस्तान घूमने पहुँचे थे.
अधिकारियों ने बताया कि उज़्बेकिस्तान ने अब पड़ोसी देशों के लिए अपनी सीमाएं खोल दी हैं और वीज़ा की शर्तों को भी आसान किया है.
अब्दुल अज़ीज़ अक्कुलोव कहते हैं, "विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक वैज्ञानिकों के अलावा इमाम अल-बुख़ारी और बहाउद्दीन नक्शबंद जैसे विद्वानों को भी उज़्बेकिस्तान में दफ़्न किया गया है. इसका ठीक से प्रचार किया जाये तो इंडोनेशिया, मलेशिया, तुर्की और भारत जैसे देशों से हमें इन ऐतिहासिक स्थलों के लिए लाखों अतिरिक्त तीर्थयात्री मिल सकते हैं."
अब्दुल अज़ीज़ अक्कुलोव की बात में वाक़ई दम है. क्योंकि 14वीं शताब्दी के सूफ़ी नेता बहाउद्दीन नक्शबंद ही इतने बड़े और लोकप्रिय नेता रहे हैं कि उनके बारे में कहा जाता है कि दुनिया भर में आज भी उनके दस करोड़ अनुयायी हैं.
सूफ़ी नेता बहाउद्दीन नक्शबंद का मक़बरा उज़्बेकिस्तान के बुख़ारा शहर में स्थित है जहाँ अभी सिर्फ़ उज़्बेक नागरिक ही पहुँच पाते हैं.
- भारत ने किससे सीखा 'मुरब्बा' बनाना
- जब ताशकंद में अयूब पर भारी पड़े शास्त्री
- सऊदी इस इमाम के लिए क्यों चाहता है सज़ा-ए-मौत
- क्या सऊदी अरब का पूरा कुनबा बिखर जाएगा?
- क़तर को 'द्वीप' में बदलने की तैयारी में है सऊदी अरब?