US Election 2020: दिन-रात डोनाल्ड ट्रंप के जीतने की दुआएं कर रहे होंगे पुतिन-जिनपिंग, जानिए क्यों
वॉशिंगटन।
अमेरिका
में
3
नवंबर
को
राष्ट्रपति
के
लिए
वोट
डाले
जाएंगे
और
जैसे-जैसे
वोटिंग
डे
करीब
आ
रहा
है,
वैसे-वैसे
मुकाबला
कांटे
को
होता
जा
रहा
है।
डेमोक्रेट
पार्टी
के
जो
बाइडेन
कई
जगह
पर
रिपब्लिकन
पार्टी
के
राष्ट्रपति
डोनाल्ड
ट्रंप
पर
भारी
पड़ते
नजर
आ
रहे
हैं।
इस
बार
राष्ट्रपति
चुनाव
सिर्फ
अमेरिका
के
लिए
ही
नहीं
कुछ
और
देशों
के
लिए
भी
काफी
अहम
हो
गए
हैं।
दूसरे
कार्यकाल
पर
नजर
गड़ाए
ट्रंप
अगर
व्हाइट
हाउस
नहीं
पहुंचते
हैं
तो
फिर
यह
न
सिर्फ
उनकी
हार
होगी
बल्कि
कुछ
और
देशों
के
कई
सपने
भी
चकनाचूर
हो
सकते
हैं।
तुर्की
से
लेकर
नॉर्थ
कोरिया
और
चीन
से
लेकर
इजरायल
तक
की
नजरें
इस
बार
चुनावों
में
लगी
हैं।
ऐसे
में
जानिए
अगर
ट्रंप
हार
जाते
हैं
तो
फिर
दुनिया
कुछ
खास
नेताओं
का
दिल
भी
कैसे
टूट
जाएगा।
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शी जिनपिंग
डोनाल्ड ट्रंप हाल के कुछ वर्षों में पहले ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जो चीन पर काफी आक्रामक हैं। उन्होंने चीनी सामानों पर आयात शुल्क लगाया तो अहम टेक्नोलॉजी पर प्रतिबंध लगाया। इसके बाद भी कुछ चीनी अधिकारियों की मानें तो चीन का नेतृत्व ट्रंप को ही व्हाइट हाउस में चाहता है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक ट्रंप ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका के साथियों के बीच बने एक तंत्र को हिला दिया। चीन, अभी तक मानता है कि ट्रंप का व्हाइट हाउस में रहना उसके लिए फायदे का सौदा हो सकता है। ट्रंप ने 'अमेरिका फर्स्ट' का नारा दिया और अपनी नीतियों को आगे बढ़ाया। इसकी वजह से चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को सबसे ज्यादा फायदा हुआ। ट्रंप की वजह से जिनपिंग के लिए वह रास्ता खुल गया जहां पर वह अपने नेतृत्व के दम पर ट्रेड और क्लाइमेट चेंज जैसी डील्स में बड़ा रोल अदा कर सकें। चीन, बाइडेन की वजह से टेंशन में है और उसकी अहम चिंता है कि डेमोक्रेट बाइडेन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन के खिलाफ आपसी सहयोग के और ज्यादा मोर्चों को खोल सकते हैं। इसके साथ ही वह ट्रेड और टेक्नोलॉजी पर लगातार दबाव बनाकर रखेंगे। नानजिंग यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के प्रोफेसर झू फेंग के मुताबिक अगर ट्रंप हार जाते हैं तो फिर बीजिंग को वॉशिंगटन से ज्यादा फायदा नहीं हो पाएगा।
व्लादिमिर पुतिन
साल 2016 से ही रूस अमेरिकी राजनीति में चर्चा का विषय बना हुआ है। उस समय चुनावों के बाद जांच हुई और 448 पेज की एक रिपोर्ट दायर की गई। इस रिपोर्ट में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन पर चुनावों में हस्तक्षेप का आरोप लगा। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप के जीतने के साथ ही पुतिन के हाथ जैकपॉट लग गया था। ट्रंप ने ओवल ऑफिस में कुर्सी संभालते ही नाटो की अहमियत पर सवाल उठाए। सिर्फ इतना ही उन्होंने अमेरिका के साझीदार जर्मनी पर भी सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। रूस और सोवियत संघ के कई नेता कई दशकों से कोशिशें कर रहे हैं कि अमेरिका और जर्मनी के रिश्ते कमजोरी हो जाएं। रूस निश्चित तौर पर चाहेगा कि ट्रंप प्रशासन को एक और कार्यकाल मिले। पुतिन को कुछ फायदे भी ट्रंप के आने के बाद हुए। रूस पर लगे उन प्रतिबंधों को हटाया गया जिसके तहत हथियारों को डेवलप किया जा सकता है। रूस के अधिकारी नहीं चाहते हैं कि ट्रंप को दूसरा कार्यकाल मिले।
किम जोंग उन
साल 2016 में जब ट्रंप चुनाव जीतकर व्हाइट हाउस पहुंचे तो नॉर्थ कोरिया के साथ एक नया अध्याय शुरू हुआ। सिंगापुर में साल 2018 में नॉर्थ कोरिया के नेता किम जोंग उन ने पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के आमंत्रण पर उनसे मुलाकात की। ट्रंप और किम जोंग के बीच गई दर्जन चिट्ठियों का आदान-प्रदान हुआ। इसके बाद भी अमेरिका, नॉर्थ कोरिया को पूरी तरह से परमाणु हथियार छोड़ने के लिए राजी नहीं करा पाए। 10 अक्टूबर को भी नॉर्थ कोरिया ने एक ऐसी मिसाइल का टेस्ट किया है जो एक साथ कई परमाणु हथियार ले जा सकती है। जो बाइडेन पहले ही कह चुके हैं कि वह नॉर्थ कोरिया के तानाशाह किम जोंग से बिना पूर्व शर्तों के मुलाकात नहीं करेंगे। न ही वह जल्दबाजी में इस देश पर लगे प्रतिबंधों को हटाने का ऐलान करेंगे। आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से नॉर्थ कोरिया दो दशकों के सबसे खराब आर्थिक दौर से गुजर रहा है।
मोहम्मद बिन सलमान
सऊदी अरब और यहां के राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) के साथ ट्रंप ने आते ही रिश्तों को आगे बढ़ाने की शुरुआत कर दी थी। साल 2017 में ऑफिस संभालने के बाद ट्रंप ने पहले आधिकारिक दौरे के लिए सऊदी अरब को ही चुना था। वह रियाद पहुंचे और यहां पर उनका शानदार स्वागत हुआ। ट्रंप और उनके डेलीगेशन को शानदार होटल में ठहराया गया। आठ दिनों तक चले इस दौरे पर ट्रंप ने सऊदी सम्मेलन को संबोधित किया। 20 मई 2017 को सऊदी अरब और अमेरिका के बीच इतिहास का सबसे बड़ा रक्षा सौदा हुआ। ट्रंप ने 350 बिलियन डॉलर वाली जिस डील को साइन किया उसके तहत सऊदी अरब को टैंक्स, वॉरशिप्स, मिसाइल डिफेंस सिस्टम के साथ ही साथ रडार, कम्यूनिकेशन और साइबर सिक्योरिटी टेक्नोलॉजी वाले सिस्टम को देने का वादा किया गया। इसके अलावा ट्रंप ने एमबीएस उस समय बहुत मदद की जब उनका नाम साल 2018 में जमाल खाशोगी की हत्या में आया। सऊदी अरब हालांकि साल 2019 से ही ट्रंप प्रशासन के रवैये से निराश है। यहां पर उस समय एक ऑयल डिपो पर हुए हमले के बाद सऊदी की सत्ता जवाबी अमेरिकी कार्रवाई की उम्मीद कर रही थी। मगर ऐसा न हो सका। अगर ट्रंप तीन नवंबर को हारते हैं तो सऊदी को मिलने वाली मदद पर अंकुश लग सकता है और साथ ही ईरान के साथ रिश्ते बेहतर करने के प्रयास शुरू हो सकते हैं। ईरान, सऊदी अरब का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी है।
रेसेप तैयप एर्डोगान
एमबीएस के बाद अगर ट्रंप की तरफ से मिलने राजनीतिक सुरक्षा पर किसी को भरोसा है तो वह है तुर्की और यहां के राष्ट्रपति रेसेप तैयब एर्डोगान। सुनने में थोड़ा अजीब लग सकता है कि लेकिन यही सच है। जिस समय एर्डोगान ने रूस से एस-400 एयर डिफेंस मिसाइल सिस्टम को खरीदने का मन बनाया तो अमेरिकी कांग्रेस खुलकर टर्की के विरोध में आ गई। इस समय अप्रत्यक्ष तौर पर ट्रंप और उनके प्रशासन ने टर्की की मदद की। तुर्की, नॉर्थ अटलांटिक ऑर्गनाइजेशन का साझीदार है। ऐसे में वह रूस से हथियार नहीं खरीद सकता है। ट्रंप और एर्डोगान के व्यक्तिगत संबंधों के चलते अमेरिकी सेनाओं को उत्तरी सीरिया के कुर्द इलाकों से वापस बुला लिया गया। यह फैसला इसलिए किया गया ताकि टर्की इस क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए अपनी सेनाएं भेज सके। ट्रंप ने पेंटागन और साथी देशों से सलाह-मशविरा किए बिना ही यह फैसला किया। न तो ट्रंप ने ब्रिटेन से राय मांगी और ना ही फ्रांस और कुर्दिश लड़ाकों से कुछ पूछा। कुर्दिश लड़कों को तुर्की आतंकी मानता है। बाइडेन, तुर्की की विरोधी पार्टियों से अमेरिका के साथ आने की अपील कर चुके हैं। साथ ही टर्की पर अमेरिकी प्रतिबंधों की लिस्ट भी रेडी है। अगर ट्रंप व्हाइट हाउस से गए तो फिर एर्डोगान को सबसे ज्यादा नुकसान होने वाला है।