चीन के शंघाई शहर में रहते थे हजारों सिख, कम्युनिस्टों ने उनका उजाड़ दिया आशियाना
चीन की आर्थिक राजधानी शंघाई में कभी सिख पुलिसकर्मियों का ऐसा रुतबा था कि चीनी लोग उनसे आंख मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। 1940 के दशक में करीब तीन हजार सिख शंघाई में रहते थे। वहां गुरुद्वारा था। उनकी एक कॉलोनी थी। लेकिन 1949 के बाद स्थिति बदलती गयी। कम्युनिस्ट शासक माओ त्से तुंग को ये बात मंजूर नहीं थी कि कोई भारतीय चीन की पुलिस में काम करे या उन पर रौब गांठे। सिखों को पुलिस की नौकरी से हटा दिया गया। कुछ दिनों तक वे सिक्यूरिटी गार्ड और दूसरे काम करते रहे। सिखों की नयी पीढ़ी चीन में असुरक्षित महसूस करने लगी। धीरे-धीरे शंघाई से उनका पलायन होने लगा। 1973 तक शंघाई में शायद ही कोई सिख बचा। 1908 में शंघाई के डोंग बायो जिंग रोड पर एक भव्य गुरुद्वारा बना था। 2012 में खुशवंत सिंह ने लिखा था कि यह गुरुद्वारा बाद में एक रिहायशी मकान में बदल गया था जिसमें कई चीनी परिवार रहते थे। सिख आखिर शंघाई छोड़ने पर क्यों मजबूर हुए ? कम्युनिस्टों ने उनकी रोजी-रोटी क्यों छीन ली?
शंघाई में सिख
अंग्रेजों ने 1842 और 1860 के अफीम युद्ध में चीन को हरा कर शंघाई पर कब्जा जमा लिया था। चीनियों को काबू में रखना आसान न था। अंग्रेजों को परेशानी होने लगी। तब ब्रिटिश भारत के अफसरों ने लंबे-चौड़े सिख नौजवानों को शंघाई भेजने का फैसला किया। अंग्रेज सिखों को शंघाई म्यूनिसिपल पुलिस में भर्ती करने लगे। 1884 से ये सिलसिला शुरू हुआ। सिख पहले सिंगापुर से शंघाई गये। फिर पंजाब से बहाल हो कर वहां जाने लगे। आकर्षक वेतन होने के कारण शंघाई जाने वाले सिखों की संख्या लगातार बढ़ती रही। सिख चूंकि कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार थे, इसलिए चीन के लोग उन्हें पुलिसकर्मी के रूप में पसंद करने लगे। उस समय चीनी राजशाही के कारिंदों में भ्रष्टाचार का बोलबाला था। इसलिए चीनी समाज में सिखों को महत्व मिलने लगा। 1920 के दौरान शंघाई म्युनिसिपल पुलिस फोर्स में 513 सिख बाहल थे। सिख चीन की महिलाओं से शादी कर एक नये सामाजिक परिवेश की रचना करने लगे। चीनी महिलाएं शादी के लिए सिख धर्म भी स्वीकार कर लेती थीं। 1941 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर शंघाई पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद वहां अंग्रेजों का प्रभाव खत्म हो गया। सिख वहां नौकरी करते रहे। शंघाई पर जापान का अधिपत्य होने के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी वहां गये थे। उन्होंने सिख पुलिसकर्मियों से आजाद हिंद फौज में भर्ती होने की अपील की थी। लेकिन नेताजी की मौत और दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की हार ने इन संभावनाओं को खत्म कर दिया।
आधुनिक चीन में सिख
माओ त्से तुंग धर्म को अफीम कहते थे। उनकी मान्यता थी कि धार्मिक विश्वास वामपंथ को कमजोर करता है। इसलिए चीन की साम्यवादी सरकार आधिकारिक रूप से नास्तिक है। साम्यवादी शासन के पहले सिख समुदाय को शंघाई में जो प्रतिष्ठा हासिल थी बाद में वह मुमकिन नहीं रही। आज भी चीन में सिख रहते हैं लेकिन अब वे केवल व्यापारी बन कर रह गये हैं। रिहायशी मकानों को ही उन्हें गुरुद्वारा का रूप देना पड़ता है। चीनी सरकार की कठोर पाबंदियों के बीच उन्हें धार्मिक कार्य करने पड़ते हैं। चीन का यीवू शहर आज दुनिया के विशालतम बाजारों में एक है। यह शहर चीन के दक्षिण पूर्व प्रांत झिजियांग की राजधानी है। केवल 20 साल में यह शहर चीन की आर्थिक राजधानी शंघाई को टक्कर देने लगा है। चीन में पहने निजी सम्पत्ति का अधिकार नहीं था। जो था सब राज्य का था। लेकिन 1980 के बाद चीन ने अपनी नीति को बदल दिया। उद्य़ोग धंधों को बढ़ावा देने के लिए विदेशियों के लिए दरवाजे खोल दिये गये। चीन में लोगों को व्यापार और उद्योग से मनमाफिक सम्पत्ति अर्जित करने की छूट मिल गयी। इस नये माहौल में भारत से भी व्यापारियों का एक बड़ा वर्ग यीवू शहर आया। इनमें सिख समुदाय के लोगों की संख्या अधिक है। 2011 से 2013 के बीच यीबू शहर में करीब चार लाख भारतीय व्यापार करने के इरादे से आये। यीबू शहर में एक गुरुद्वारा है। यहां के अधिकतर सिख एक्सपोर्ट बिजनेस में हैं। सिख बच्चों की पढ़ाई चीन की मंदारिन भाषा में होती है। गुरुमुखी लिखना और पढ़ना उन्हें घर में सिखाया जाता है।
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सिखों के गौरवशाली अतीत को विलुप्त किया
खुशवंत सिंह की किताब सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत में एक अध्याय है सिख धर्म का इतिहास। इस अध्याय में खुशवंत सिंह ने चीन में सिखों की बदलती हैसियत का एक रोचक किस्सा बयां किया है। खुशवंत सिंह लिखते हैं, मैं हांगकांग की एक गली में कंधे पर कैमरा लटकाये जा रहा था। (ये वाकया 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद का है।) एक जवाहरात की दुकान के बाहर एक बंदूकधारी सिख चौकीदारी कर रहा था। मैं उसकी तरफ बढ़ा तो वह अपना सिर हिलाने लगा। उसने पूछा, सरदार जी ! देश से आये हो ? मेरे हां कहने पर उसने कहा, कैसे चीनियों ने भारत को हरा दिया। मेरी चीनी बीवी (उसने चीनी महिला से शादी की थी) मुझे हरदम ताना देती है कि तुम लोग सिर्फ बोलते हो, लड़ नहीं सकते। भला बताइए, हमी लोग जब शंघाई पुलिस में थे तब एक साथ छह चीनियों को बाल पकड़ कर थाने घसीट लाते थे और कोई चूं नहीं बोलता था। किसी चीनी की आंख मिलाने की हिम्मत न होती थी। लेकिन अब तो कोई इज्जत ही नहीं रही। आज का सच भी यही है। कम्युनिस्ट तानाशाही में सिखों की गौरवशाली परम्परा विलुप्त हो गयी है।
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