वे आदिम जनजातियां जो हमसे ज़्यादा सभ्य हैं
अंडमान हो अमेजऩ, जहां भी ये जनजातियां रह रही हैं, उनके लिए ख़तरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. यह है ज़मीन और संसाधनों के लालच के लिए जंगलों का सफाया.
ब्राज़ील में रह रहे वरिष्ठ पत्रकार शोभन सक्सेना बताते हैं कि अमेज़न के जंगलों में रह रही आदिम जनजातियां किसानों, पशुपालकों और कॉर्पोरेट्स के लालच की भेंट चढ़ रही हैं.
शोभन सक्सेना बताते हैं, "70-80 के दशकों में ब्राज़ील, पेरू और बोलिविया में जंगलों को साफ़ किया गया.
पिछले महीने ब्राज़ील की सरकारी एजेंसी फ़ुनाई ने एक लगभग 50 साल के आदमी का वीडियो जारी किया जो जंगल में लकड़ी काट रहा था.
मगर यह कोई आम इंसान नहीं बल्कि अपने क़बीले का इकलौता बचा सदस्य है जो 22 सालों से ब्राज़ील की अमेज़न घाटी में अकेला रहा है.
इस शख़्स का वीडियो सामने आने के बाद पूरे विश्व का ध्यान एक बार फिर उस दुनिया की तरफ चला गया जो आज भी आदिम तौर-तरीकों से रहती है.
ऐसे कबीले, जो हमारी-आपकी आधुनिक दुनिया से परिचित नहीं हैं.
उनका खान-पान, रहन-सहन सब कुछ वैसा ही है, जैसा हज़ारों साल पहले हमारे आदिम पुरखों का था. ये ऐसी जनजातियां हैं, जिनसे हम आधुनिक दुनिया के इंसानों ने संपर्क नहीं किया है.
ये हैं- अनकॉन्टैक्टेड ट्राइब्स या लॉस्ट ट्राइब्स. और इन ट्राइब्स में से अधिकतर ब्राज़ील से सटे अमेज़न के वर्षा वन में रहती हैं.
अमेज़न का विशाल वर्षा वन
70 लाख वर्ग किलोमीटर के विशाल दायरे में फैले अमेजऩ के वर्षा वन ब्राज़ील समेत नौ देशों की सीमाओं में फैले हुए हैं. लगभग एक दशक पहले रिपोर्टिंग के लिए अमेज़न नदी से होते हुए अंदर तक जा चुके बीबीसी हिंदी रेडियो के संपादक राजेश जोशी बताते हैं कि यहां अलग ही दुनिया बस सकती है.
वह बताते हैं, "अमेज़न ऐसी विशाल महानदी है जिसका ओर-छोर दिखता नहीं है. इतने घने जंगलों के बीच से ये नदी गुजरती है. 2007 में जब मैं वहां गया था तो 4 दिन 4 रात हम एक नाव में थे. दिन-रात सफर करते थे, वहीं सोते थे वहीं खाते थे. बीच-बीच में अचानक बादल उमड़ते थे, जबरदस्त बारिश होती थी और फिर एकदम धूप निकल आती है. वहां जैव विविधता दिखी. वहां सिर्फ जीव-जंतुओं में ही नहीं, इंसानों में भी विविधता थी, इतनी कि कई ट्राइब्स ऐसी भी हैं जिनका पता ही नहीं है."
ब्राज़ील में रह रहे वरिष्ठ पत्रकार शोभन सक्सेना बताते हैं कि इन जनजातियों पर नज़र रखने के लिए ब्राज़ील में फ़ुनाई नाम की एजेंसी बनाई है.
वह कहते हैं, "फ़ुनाई का काम है अमेज़न के जंगलों में रहने वाली जनजातियों को ट्रैक करना. उनका अनुमान है कि यहां 113 के करीब ऐसी जनजातियां हैं जिनसे अभी संपर्क नहीं हुआ है. इनमें से 27 कन्फर्म हो चुकी हैं कि वे मौजूद हैं. फ़ुनाई इन्हें ट्रैक करती है. उसके एंथ्रपॉलजिस्ट जंगल में जाते हैं और कोशिश करते हैं कि दूर से ही नज़र रखें. संपर्क में आए बग़ैर वे इस बात को जानने की कोशिश करते हैं कि वे कैसे रहते हैं, क्या तकनीकें इस्तेमाल करते हैं और कैसा खाना खाते हैं."
इनसे संपर्क क्यों नहीं किया जाता?
अमेज़न के जंगलों में रहने वाली इन आदिम जनजातियों के बारे में अगर पता चल भी जाए तो उनसे संपर्क करने की कोशिश नहीं की जाती. एक दूरी बनाकर ही उनपर नज़र रखी जाती है. लेकिन सवाल उठता है क्यों?
उनसे संपर्क इसलिए नहीं किया जाता, क्योंकि हमारे और आपके अंदर तो कई सारी बीमारियों के लिए टीकाकरण के कारण प्रतिरोधक क्षमता आ गई है, मगर ये लोग आसानी से उन बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार शोभन सक्सेना बनाते हैं कि इसी कारण अमेज़न की ऐसी कई आदिम जनजातियां विलुप्त हो गई थीं.
"इतिहास में जाएं तो यहां पर जब पुर्तगाल के लोग नौवीं शताब्दी में आए थे, तब ये जनजातियां इनके संपर्क में आकर कई बीमारियों के चलते काफी हद तक ख़त्म हो गईं. यूरोप की बीमारियां जैसे कि चिकन पॉक्स, मिज़ल्स और कॉलरा आदि यहां नहीं था. इससे कई जनजातियां खत्म हो गईं."
https://www.youtube.com/watch?v=kvfJBijV4XQ
भारत में भी हैं ऐसी आदिम जनजातियां
इसी तरह की आदिम जनजातियां भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों में भी हैं- सेंटीनेली व जारवा. लेकिन अब बाहरी दुनिया यानी हमारी दुनिया के लोगों के साथ उनका संपर्क बढ़ गया है और जब उन्होंने हमारे तौर-तरीके अपनाना शुरू कर दिया है.
जारवा लोगों की जीवनशैली को करीब से देख चुके और उनकी भाषा में शोध कर चुके इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी अमरकंटक में प्रोफेसर डॉक्टर प्रमोद कुमार बताते हैं कि बेहतर है कि इन आदिम जनजातियों को उन्हीं के हाल में छोड़ दिया जाए.
वह कहते हैं, "एक रिसर्च के मुताबिक अंडमान के ये आदिम जनजाति वाले लोग 60 हज़ार साल पहले यहां आए थे. इतने दिनों से जब वे सरवाइव कर रहे हैं तो इनको अकेले ही रहने देना चाहिए. हमने देखा है कि ब्रिटिश औपनिवेश के दौर में जब उनका ग्रेट अंडमानियों से संपर्क हुआ था तो सारा समुदाय बीमारी के कारण ख़त्म हो गया था. ये अपने तरीके से रहेंगे तो जैसे रह रहे हैं, रह सकते हैं. हमारे संपर्क में आने से इन्हें बीमारियां होंगी."
ख़तरे और भी हैं
अंडमान हो अमेजऩ, जहां भी ये जनजातियां रह रही हैं, उनके लिए ख़तरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है. यह है ज़मीन और संसाधनों के लालच के लिए जंगलों का सफाया.
ब्राज़ील में रह रहे वरिष्ठ पत्रकार शोभन सक्सेना बताते हैं कि अमेज़न के जंगलों में रह रही आदिम जनजातियां किसानों, पशुपालकों और कॉर्पोरेट्स के लालच की भेंट चढ़ रही हैं.
शोभन सक्सेना बताते हैं, "70-80 के दशकों में ब्राज़ील, पेरू और बोलिविया में जंगलों को साफ़ किया गया. .यहां पर बड़े किसान होते हैं जिनके पास रैंच होते हैं. वे हजारों हेक्टेयर ज़मीन के मालिक होते हैं. उन्होंने जंगल काटकर और ज़मीन पर कब्ज़ा करने के लिए पेड़ काटे हैं. जब ऐसा करना शुरू किया तो उनका इन जनजातियों से संघर्ष हुआ. इनका बड़ी संख्या में नरसंहार हुआ. तभी तो फ़ुनाई एजेंसी बनाई गई ताकि इन जनजातियों को बचाया जाए और इन रैंचों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई. मगर ये संघर्ष होता रहता है और इनकी हत्या भी हाल के सालों में , कुछ महीने पहले भी ऐसे किस्से हुए हैं."
यही नहीं, बांधों के कारण भी इन्हें नुक़सान पहुंच रहा है. शोभन बताते हैं, "जो यहां बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए हैं, उसके पीछे बड़े-बड़े कॉर्पोरेशन का हाथ है. बांध बनाए गए हैं. यहां बहुत बड़ी नदियां हैं, उनपर बांध बनाए गए हैं और उसके कारण भी लोगों को समस्या हो गई है, इनकी रिहाइश में पानी भर गया. उनको अपने स्थान छोड़कर जाना पड़ा. उनका सीधा संघर्ष जानवरों से भी होता रहता है. क्योंकि अमेज़न जो कि दुनिया का सबसे बड़ा जंगल बल्कि सबसे बड़ा इको सिस्टम है."
अमेज़न के जंगलों पर नज़र
वरिष्ठ पत्रकार शोभन सक्सेना बताते हैं कि अमेज़न के जंगलों पर दुनिया भर के कॉर्पोरेट्स की निगाह रहती है. वह बताते हैं, "जो जनजातियों के सबसे बड़ा नुकसान हुआ था रबर प्लांटेशन से. रबर का पौधा जब यहां 19वीं शताब्दी में पाया गया. एक ब्रिटिश वैज्ञानिक इसे लेकर मलेशिया गया था, वहां दोबारा उगाया. उसके बाद तरह-तरह के लोग यहां आए और रबर के पौधों जैसे अन्य पौधे या फिर औषधीय पौधे या पेड़ खोजने की कोशिश हुई. इससे जंगल का बहुत नुकसान हुआ. लोगों ने भी नुक़सान किया, कॉर्पोरेशन ने भी किया. इससे बहुत बड़ा ख़तरा जनजातियों को हुआ है."
ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों न हम इन आदिम तौर-तरीकों से रह रहे लोगों को मुख्य धारा में ले आएं यानी अपनी और आपकी इस आधुनिक दुनिया में ले आएं जिसे हमें सभ्य मानते हैं? आख़िर क्यों इंसानों की एक अच्छी ख़ासी आबादी को जंगलों में ही संघर्ष करने के लिए छोड़ दिया गया है? क्या हम उन्हें अपने जैसा बनाकर उनका भला नहीं करेंगे? प्रोफेसर प्रमोद कुमार कहते हैं कि इसके बारे में सोचना भी ख़तरनाक है.
वह बताते हैं, "हमारे भी पूर्वज कई हज़ार साल पहले जंगल में रहते थे, गुफाओं में रहते थे. लेकिन हमें आज की स्थिति में आने के लिए कई हज़ार साल लगे. अगर हम इन आदिम जनजातियों को आज के दौर में लाना चाहेंगे तो यह उन्हें किसी खाई में कूदवाने जैसा है. उदाहरण के लिए जारवा लोग जब पहली बार इंसानों के संपर्क में आए और कपड़े पहनने लगे तो उन्हें स्किन डिजीज शुरू हो गई."
'हमसे ज़्यादा सभ्य हैं वो'
डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं, "सभ्यता का कॉन्सेप्ट है वह कॉलोनियल दौर से आया है, जब यह समझा जाता था कि कॉलोनियल पावर्स या यूरोप के लोग अपने उपनिवेशों के लोगों से ज़्यादा सभ्य हैं. लेकिन इन आदिम लोगों को देखें तो वे हमसे ज़्यादा सभ्य हैं. उनका समुदाय ऐसा है कि एक 20-50 लोगों का समूह में एक आदमी जंगली सूअर मारे तो उसे सभी में बांटा जाता है. कोई मछली मारता है तो सभी में बंटवारा होता है. क्या ऐसा हमारे समाज में है? तो हम सभ्य हैं या वे? हम तो पड़ोसी से झगड़ा कर लें खाने को लेकर."
जानकार मानते हैं कि इन अनकॉन्टैक्टेड या लॉस्ट ट्राइब्स को यथावत रहने दिया जाना चाहिए. वैसे भी जब बाहरी दुनिया के लोग इनसे संपर्क करने की कोशिश करते हैं, तो वे तीर-भालों से हमला करके प्रतिरोध करते हैं. वे बाहरी लोगों के प्रति आशंकित रहते हैं.
ठीक भी तो है, उनकी अपनी दुनिया है जहां वह प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहते हैं. उनकी ज़रूरतें प्रकृति पूरी कर देती है.
हम अगर अपनी दुनिया की तुलना अगर उनकी दुनिया से करें तो किसकी वाली बेहतर है? जानकार कहते हैं कि इसलिए बेहतर यही होगा कि हम अगर उनसे कुछ न सीख पाएं तो कम से कम उन्हें अपने जैसा बनाने की कोशिश न करें.