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गौ सेवा करने वाली 'अंग्रेज़ दीदी' को मिला पद्मश्री

बाहर लोगों से बहुत संपर्क भले न रखती हों लेकिन देश-दुनिया में क्या हो रहा है, ब्रुइनिंग इससे अनजान नहीं हैं. राजनीति से लेकर समाज में क्या हो रहा है, सब पर नज़र रखती हैं. उन्हें ये भी पता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी गायों की सेवा करते हैं.

By BBC News हिन्दी
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भारत में पिछले 25 सालों से गौ सेवा कर रहीं जर्मन महिला फ्रेडरिक ब्रुइनिंग को 70वें गणतंत्र दिवस पर भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया.

61 साल की ब्रुइनिंग की गौशाला में सैकड़ों गाय और बैल हैं. इनमें से ज़्यादातर वो गाय हैं जिन्हें उनके मालिकों ने छोड़ दिया है. मथुरा में लोग उन्हें 'सुदेवी माता' के नाम से जानते हैं.

आख़िर एक जर्मन महिला कैसे गौ सेवक बनी? फ्रेडरिक ब्रुइनिंग पर बीबीसी हिंदी ने 29 दिसंबर 2017 को एक खास रिपोर्ट की थी पढ़िए उनका फ्रेडरिक ब्रुइनिंग से 'सुदेवी माता' बनने तक का सफ़र.

जर्मनी के बर्लिन शहर से भारत में पर्यटक के तौर पर घूमने के मक़सद से आईं फ्रेडरिक ब्रुइनिंग को मथुरा शहर इतना भाया कि पहले तो उन्होंने यहीं दीक्षा लेकर गुरु के आश्रम में रहने का फ़ैसला किया और फ़िर बाद में एक घायल बछड़े की वेदना ने उन्हें इतना पीड़ित किया कि वो यहीं रहकर गायों की सेवा में लीन हो गईं.

फ्रेडरिक ब्रुइनिंग बताती हैं कि वो चालीस साल पहले यहां आईं थीं और भारत के अलावा श्रीलंका, थाईलैंड, इंडोनेशिया और कई अन्य जगहों पर भी गईं लेकिन मथुरा और वृंदावन से वो इतनी प्रभावित हुईं कि फिर यहां से जाने का मन नहीं किया. हालांकि साल में कम से कम एक बार वो अभी भी अपने शहर ज़रूर जाती हैं.

1200 गायों की गोशाला

मथुरा में गोवर्धन पर्वत के परिक्रमा मार्ग के बाहरी ग्रामीण इलाक़े में क़रीब 1200 गायों की एक गौशाला है. वैसे तो व्रज के इस इलाक़े में कई बड़ी गौशालाएं हैं, लेकिन सुरभि गौसेवा निकेतन नाम की इस गौशाला की ख़ास बात ये है कि यहां वही गायें रहती हैं जो या तो विकलांग हैं या बीमार हैं या फिर किन्हीं कारणों से उनका कोई सहारा नहीं है.

अपने कर्मचारियों के बीच 'अंग्रेज़ दीदी' नाम से बुलाई जाने वाली साठ वर्षीया फ्रेडरिक ब्रुइनिंग इस गौशाला का संचालन करती हैं. ब्रुइनिंग पिछले चालीस साल से यहां रह रही हैं और गायों की सेवा कर रही हैं.

धारा प्रवाह हिन्दी में ब्रुइनिंग बताती हैं, "तब मैं बीस-इक्कीस साल की थी और एक पर्यटक के तौर पर दक्षिण एशियाई देशों की यात्रा पर निकली थी. जब भारत आई तो भगवद्गीता पढ़ने के बाद अध्यात्म की ओर मेरा रुझान हुआ और उसके लिए एक गुरु की आवश्यकता थी. गुरु की तलाश में मैं ब्रज क्षेत्र में आई. यहीं मुझे गुरु मिले और फिर उनसे मैंने दीक्षा ली."

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क्यों बनीं गौरक्षक?

गायों के प्रति रुझान और उनकी सेवा के पीछे ब्रुइनिंग एक संस्मरण सुनाती हैं, "दीक्षा लेने के बाद कुछेक साल तो मंत्रजाप, पूजा-पाठ इन्हीं सबमें निकल रहे थे. लेकिन एक दिन मुझे गाय का एक बछड़ा दिखा जिसका पैर टूटा हुआ था. सभी लोग उसे देखकर निकल रहे थे. मुझे बहुत दया आई और मैं उस बछड़े को रिक्शे पर लादकर आश्रम में ले आई और उसकी देखभाल करने लगी. बस यहीं से गायों की सेवा का मेरा काम शुरू हो गया."

ब्रुइनिंग बताती हैं कि पहले तो सिर्फ़ दस गायें उनके पास थीं लेकिन धीरे-धीरे गायों का कुनबा बढ़ता गया और फिर इनकी संख्या सौ तक जा पहुंची. ये गायें दूध नहीं देती हैं बल्कि इनमें से ज़्यादातर वो हैं जो या तो बीमार होती हैं या फिर दूध न देने के कारण लोग उन्हें लावारिस छोड़ देते हैं.

वो बताती हैं, "कई साल बाद मेरे पिताजी यहां आए. मुझे गायों के बीच छोटे से कच्चे घर में रहते देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ. वो मुझसे वापस घर चलने को बोले तो मैंने कहा कि अब तो इन गायों को छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकती."

पिता ने की मदद

ब्रुइनिंग कहती हैं कि उन्होंने अपने पिता से कुछ आर्थिक मदद देने को कहा ताकि वो गायों की देखभाल, उनकी दवा इत्यादि के लिए किसी और पर निर्भर न रहें. उनके पिता इस बात के लिए तैयार हो गए और उन्होंने न सिर्फ़ काफी ज़्यादा पैसे एकमुश्त दिए बल्कि अभी तक हर महीने वहां से पैसे भेजते हैं.

क़रीब साढ़े तीन हज़ार वर्ग गज में फैली ब्रुइनिंग की इस गौशाला में लगभग 1200 गायें रहती हैं. इनमें से कई गायें बीमार हैं या फिर अपाहिज. कुछ गायें अंधी भी हैं. इन गायों की सेवा में सहायता के लिए आस-पास के क़रीब 70 लोग ब्रुइनिंग के साथ रहते हैं. तमाम दवाइयां घर पर ही रखी हैं और ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर भी आकर गायों का इलाज करते हैं.

गौशाला के रख-रखाव और गायों के इलाज पर सालाना बीस लाख रुपये से ज़्यादा का ख़र्च आता है. इन सबके लिए ब्रुइनिंग कोई सरकारी सहायता नहीं लेतीं. हालांकि भारत में कई स्वयंसेवी संस्थाएं ऐसी हैं जो कि समय-समय पर अनुदान देती हैं और उसी से गौशाला का ख़र्च चलता है. ब्रुइनिंग बताती हैं कि कुछ लोग गायों का चारा या फिर दूसरी ज़रूरी चीजें भी पहुंचा जाते हैं लेकिन ख़ुद किसी से सहायता के लिए नहीं कहती हैं, लोग स्वेच्छा से दे जाते हैं.

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कैसी है सुरभि गौशाला?

सुरभि गौशाला तीन हिस्सों में बंटी है. बाहर की ओर दो हिस्सों में गायों के स्वच्छंद विचरण की जगह है जहां उन्हें हरा चारा खिलाया जाता है. एक हिस्से में उनके खाने-पीने का सामान रखा जाता है और गेट के भीतर स्थित हिस्से में सुबह-शाम गायें उस वक़्त आती हैं जब उन्हें नाद में भूसा-खली-चोकर मिश्रित चारा दिया जाता है. इसी हिस्से में एक छोटा सा घरनुमा स्थान है जिसकी दीवारों और ज़मीन पर गोबर का लेप है. यहीं ब्रुइनिंग रहती भी हैं और यहीं गायों की तमाम ज़रूरी दवाइयां भी रखी रहती हैं.

ब्रुइनिंग के यहां काम करने वाले लोग आस-पास के गांवों के हैं और कुछ रात में भी यहीं रहते हैं ताकि किसी इमरजेंसी में कोई दिक़्क़त न आने पाए. गौशाला में कई साल से काम करने वाले सतीश बताते हैं कि वो लोग ब्रुइनिंग को 'दीदी' कहकर पुकारते हैं.

सतीश बताते हैं, "यहां दिन में कई ऐसी गायें आती हैं जिनका एक्सीडेंट हो गया होता है या फिर जो गायें बीमार होती हैं. गायों का यहां इलाज होता है. गाय के बच्चों को दूसरी गायों का भी दूध पिलाया जाता है और यदि गाय नहीं पिलाती है तो दीदी उन बच्चों को बोतल से भी दूध पिलाती हैं."

सतीश बताते हैं कि कई गायें दूध ज़रूर देती हैं लेकिन ये दूध यहां मौजूद बच्चों या बछड़ों के लिए भी पर्याप्त नहीं होता, इसलिए क़रीब चालीस-पचास लीटर दूध रोज़ बाहर से भी मंगाना पड़ता है ताकि उन बच्चों को दूध मिल जाए जिनकी मां नहीं हैं या जो दूध पिलाने में सक्षम नहीं हैं.

गाय के मरने पर शांति पाठ किया जाता है

ये पूछने पर कि जो गायें मर जाती हैं, उनका क्या किया जाता है? इस सवाल पर ब्रुइनिंग बताती हैं, "गायों के मरने के बाद यहीं उन्हें समाधि दे दी जाती है यानी उन्हें दफ़ना दिया जाता है. अंतिम समय में उनके मुंह में गंगाजल डाला जाता है और समाधि के बाद उनके लिए लाउड स्पीकर लगाकर शांति-पाठ किया जाता है."

ब्रुइनिंग से जब हमने कथित गौरक्षकों के बारे में सवाल किया तो वो हंसते हुए जवाब देती हैं, "हां, गौरक्षक इधर भी आते हैं लेकिन वो बीमार गायों को छोड़ने के लिए आते हैं. अपनी और दूसरी गायों को यहां दे जाते हैं."

आश्रम में गुरु से दीक्षा लेने के बाद ब्रुइनिंग का नाम सुदेवी दासी पड़ गया लेकिन आधिकारिक तौर पर अभी भी उनका जर्मन नाम ही है.

ब्रुइनिंग कहती हैं कि पहले उन्हें हिन्दी नहीं आती थी लेकिन गुरु के आश्रम में उन्होंने हिन्दी सीखी और इस काम में धर्म ग्रंथों से काफी सहायता मिली. अब तो वो फ़र्राटेदार हिन्दी बोलती हैं और उनका कहना है कि ये सब यहां रहते हुए ही उन्होंने सीखा, कोई ख़ास मेहनत नहीं करनी पड़ी.

गौशाला
EPA
गौशाला

प्रचार से परहेज़

ब्रुइनिंग को मथुरा तो क्या वृंदावन में भी बहुत ज़्यादा लोग नहीं जानते हैं. इसकी वजह ये है कि वो ज़्यादातर आश्रम में ही रहकर गायों की सेवा करती हैं और उन्हें बहुत ज़्यादा प्रचार-प्रसार से परहेज़ है.

मथुरा में एक सामाजिक कार्यकर्ता राकेश शर्मा कहते हैं, "ये वास्तव में गौसेवक हैं. मथुरा- वृंदावन क्षेत्र में हज़ारों गायों वाली गौशालाएं भी हैं लेकिन उनसे लोग लाखों रुपये की आमदनी कर रही हैं. अंग्रेज़ दीदी तो अपने घर का पैसा लगाकर बीमार गायों की सेवा कर रही हैं."

बाहर लोगों से बहुत संपर्क भले न रखती हों लेकिन देश-दुनिया में क्या हो रहा है, ब्रुइनिंग इससे अनजान नहीं हैं. राजनीति से लेकर समाज में क्या हो रहा है, सब पर नज़र रखती हैं. उन्हें ये भी पता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी गायों की सेवा करते हैं.

गायों की दुर्दशा न हो और लोग इनकी देखभाल के लिए ख़ुद आगे आएं, इसके लिए वो एक सुझाव भी देती हैं, "यदि गायों को पालने के लिए जगह मिल जाए और उनके गोबर को भी ख़रीदने की कुछ व्यवस्था हो तो लोग अपनी गायों को छोड़ेंगे नहीं, क्योंकि उन्हें ये पता रहेगा कि गायों का सिर्फ़ दूध ही नहीं, उनका गोबर भी बिक सकता है और इससे कम से कम उनके चारे-पानी की व्यवस्था तो हो ही सकती है."

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English summary
The english didi who served Cows got Padma Shree
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