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वो ख़ूंख़ार तानाशाह जो भारतीयों से नफ़रत करता था

ईदी अमीन को इंसानियत का दुश्मन, हैवान, राक्षस और न जाने क्या-क्या कहा जाता है. युगांडा पर आठ बरस की तानाशाही में ईदी अमीन ने लाखों लोगों को मरवा दिया था. उनके बारे में तमाम तरह की कहानियां प्रचलित हैं कि 'वो लोगों का ख़ून पीता था, आदमख़ोर था'.

ईदी अमीन ने अपनी तानाशाही के दौरान भारतीय मूल के क़रीब 90 हज़ार लोगों को देश निकाला दे दिया था.

By BBC News हिन्दी
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पूर्वी अफ्रीकी देश युगांडा का जब भी ज़िक्र होता है, तब वहां के तानाशाह ईदी अमीन का नाम ज़रूर लिया जाता है.

ईदी अमीन को इंसानियत का दुश्मन, हैवान, राक्षस और न जाने क्या-क्या कहा जाता है. युगांडा पर आठ बरस की तानाशाही में ईदी अमीन ने लाखों लोगों को मरवा दिया था. उनके बारे में तमाम तरह की कहानियां प्रचलित हैं कि 'वो लोगों का ख़ून पीता था, आदमख़ोर था'.

ईदी अमीन ने अपनी तानाशाही के दौरान भारतीय मूल के क़रीब 90 हज़ार लोगों को देश निकाला दे दिया था.

ब्रिटिश पत्रकार यास्मीन अलीभाई-ब्राउन युगांडा में पैदा हुई थीं. वहीं पली-बढ़ीं. यास्मीन के पिता भारत से जाकर युगांडा में बसे थे. यास्मीन उन एशियाई मूल के लोगों में से हैं जो ईदी अमीन की तानाशाही सनक के शिकार हुए थे जब अचानक अमीन ने हज़ारों एशियाई मूल के लोगों को युगांडा छोड़कर जाने का फ़रमान सुना दिया था.

इस ख़ास रिपोर्ट के लिए यास्मीन ने बीबीसी से बात की.इसमें उन्होंने ईदी अमीन के दौर के तजुर्बे साझा किए, युगांडा के अपने दोस्तों से बात की और उस दौर यानी ईदी अमीन के तानाशाही शासन को फिर से, नए सिरे से समझने की कोशिश की.

अमीन के राज को न सिर्फ़ युगांडा के इतिहास का काला अध्याय कहा जाता है बल्कि इंसानियत की तारीख़ का भी बहुत बुरा दौर माना जाता है.

यास्मीन बताती हैं, ''युगांडा में एशियाई मूल के लोगों की ज़िंदगी बेहद शानदार थी. वो युगांडा की कुल आबादी के महज़ एक फ़ीसदी थे मगर युगांडा की क़रीब 20 फ़ीसदी संपत्ति इन एशियाई मूल के लोगों के पास थी.''

युगांडा
PA
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अंग्रेज़ एशियाई मूल के लोगों को युगांडा ले गए

इन एशियाई मूल के लोगों को अंग्रेज़, भारतीय उपमहाद्वीप से युगांडा ले गए थे. अंग्रेज़ों का मक़सद था, इन भारतीयों की मदद से पूर्वी अफ्रीका का प्रशासन चलाना.

इसके अलावा भारतीय मूल के लोगों की मदद से युगांडा में रेलवे लाइन भी बिछाई गई. बाद में बहुत से भारतीय युगांडा में ही बस गए. कुछ ने प्रशासन में सिक्का जमाया, तो बहुत से लोगों ने कारोबार में नाम-दाम कमाया. इनमें से ज़्यादातर लोग मूल रूप से गुजरात के रहने वाले थे.

जब ईदी अमीन ने 90 हज़ार के क़रीब एशियाई मूल के लोगों को देश निकाले का फ़रमान सुनाया तो इनमें से क़रीब 20 हज़ार के पास ब्रिटिश पासपोर्ट था. यानी वो ब्रिटेन के नागरिक थे. युगांडा से निकाले जाने के बावजूद उन्होंने ब्रिटेन में भी ख़ूब कामयाबी हासिल की.

70 के दशक में युगांडा की राजधानी कंपाला में ज़्यादातर कारोबार एशियाई मूल के लोगों के हाथ में था. वहां की सड़कों के नाम एशियाई मूल के लोगों के नाम पर थे.

अब दौर बदल गया है. बहुत-सी सड़कों के जो नाम यास्मीन के बचपन के दिनों में थे, वो अब बदल गए हैं. आज बड़ी तादाद में अफ्रीकी भी कारोबार कर रहे हैं.

यास्मीन अपने बचपन के दिनों को याद कर कहती हैं कि उन्हें अफ्रीकी लोग स्वाहिली में 'मटोटो पोटेया' यानी 'खोया हुआ बच्चा' कहते थे. यास्मीन कहती हैं कि वो अक्सर बाज़ार में खो जाया करती थीं.

'युगांडा के कसाई' ईदी अमीन ने जब 90 हज़ार एशियाई मूल के लोगों को देश से निकाला तो उनके लिए पूरी दुनिया में आवाज़ उठी.

आज भी ईदी अमीन का ज़िक्र होता है, तो उस देश निकाले की बात होती है. मगर, ईदी अमीन के दौर में युगांडा के अफ्रीकी लोगों पर जो बीती, उसकी तरफ़ से दुनिया ने आंखें फेर रखी थीं. आज उस क़िस्से को भुला दिया गया है.

युगांडा
AFP
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लाशें सड़ती हुई मिलीं

ईदी अमीन की हुक़ूमत ख़त्म होने के बाद युगांडा में कई जगह लोगों की लाशें सड़ती हुई मिली थीं. तमाम सामूहिक क़ब्रों का पता चला था. वो वाक़ई में एक राक्षस था जिसने अपने ही देश के लाखों लोगों का ख़ून किया था.

एक दौर ऐसा भी था जब ईदी अमीन अपने देश के लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय था. जब उसने एशियाई मूल के लोगों को देश से बाहर निकाल फेंकने का एलान किया तो उसे भारी जनसमर्थन मिला था.

19वीं सदी के आख़िर में अंग्रेज़ों ने पूर्वी अफ्रीका के एक बड़े हिस्से पर अपना उपनिवेश क़ायम कर लिया था. वहां के निज़ाम को चलाने के लिए अंग्रेज़ों को ऐसे लोग चाहिए थे जो उनके रहन-सहन को जानें और अफ्रीकी लोगों से संवाद का ज़रिया भी बनें.

साम्राज्यवादी सरकार ने भारतीय मूल के बहुत से लोगों को युगांडा लाकर बसाया. वहां बसे भारतीय मूल या एशियाई मूल के इन लोगों ने अंग्रेज़ों से तो नज़दीकी क़ायम कर ली, मगर अफ्रीकी नस्ल के मूल निवासियों से वो दूर ही रहे.

युगांडा में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों की अपनी अलग बस्तियां थीं. उनके कारोबार अलग थे. स्कूल अलग थे. वो अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ घुलते-मिलते नहीं थे.

9 अक्टूबर 1962 को जब युगांडा को ब्रिटेन से आज़ादी मिली तो एशियाई मूल के लोग बहुत आशंकित थे. उन्हें युगांडा का अंग्रेज़ों से आज़ाद होना शायद अच्छा नहीं लगा था.

युगांडा
Getty Images
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अफ्रीकियों की एशियाई मूल के लोगों से नाराज़गी

आज़ादी के बाद मिल्टन ओबोटे युगांडा के पहले प्रधानमंत्री बने. वहां के सबसे बड़े क़बीले बगांडा के सरदार एडवर्ड मोटेसा देश के राष्ट्रपति बनाए गए.

चार साल बाद ही ओबोटे ने मोटेसा को राष्ट्रपति पद से हटाकर पूरी सत्ता हथिया ली. सत्ता परिवर्तन के दौरान कुछ एशियाई मूल के लोग ओबोटे की सरकार में शामिल हुए.

मगर युगांडा के अफ्रीकी मूल के लोगों और एशियाई समुदाय के बीच दूरी बनी रही. ज़्यादातर एशियाई मूल के लोगों की सोच अफ्रीकी लोगों के प्रति नस्लवादी थी. अफ्रीकी मूल के लोग भी एशियाई मूल के लोगों से नाख़ुश थे.

युगांडा के पत्रकार ड्रेक सकेबा कहते हैं, "एशियाई समुदाय के लोग अफ्रीकी मूल के लोगों से दूरी बनाकर रखते थे. दोनों समुदायों के अपने अलग स्कूल थे. दोनों समुदायों के बीच ताल्लुक़ की डोर ही नहीं थी. यही वजह थी कि युगांडा के लोग अंग्रेज़ों को साम्राज्यवादी ताक़त मानते थे तो एशियाई समुदाय को शोषक वर्ग के तौर पर देखते थे जो देश के मूल निवासियों का 'शोषण' कर रहे थे. इसीलिए दोनों समुदायों के बीच बहुत कड़वाहट थी. इक्का-दुक्का लोग रहे होंगे, जो मिलकर काम कर रहे थे."

युगांडा का हाल दक्षिण अफ्रीका जैसा था जहां यूरोपीय समुदाय हुक़ूमत कर रहा था तो भारतीय मूल वहां का मध्यम वर्ग था. मूल अफ्रीकी समुदाय के लोगों की हालत देश में सबसे निचले पायदान पर होने की वजह से बहुत बुरी थी.

सिनेमाघरों में हिंदी फ़िल्में

लंदन में रहने वाले मीडिया सलाहकार जोएल किबाज़ो युगांडा के बारे में गहरी समझ रखते हैं. जोएल का परिवार भी युगांडा छोड़कर ब्रिटेन में आ बसा था.

जोएल कहते हैं कि एक दौर ऐसा था कि युगांडा की राजधानी कंपाला में भारतीय मूल के लोगों का ही दबदबा था.

जोएल बताते हैं, "कंपाला में शाम के वक़्त भारतीय मूल के लोग सड़कों पर निकला करते थे. उस वक़्त अफ्रीकी समुदाय के लोगों के सड़कों पर निकलने की मानो मनाही थी, कोई क़ानून नहीं था. मगर सब को पता था कि कंपाला की सड़कों पर अफ्रीकी समुदाय के लोग नहीं घूम सकते. वो जगह केवल गोरों और 'ब्राउन साहेब' यानी एशियाई मूल के लोगों के लिए थी."

जोएल उन दिनों को याद कर कहते हैं कि शहर के कमोबेश हर सिनेमाघर में भारतीय, हिंदी फ़िल्में दिखाई जाती थीं. दिन के वक़्त तो अफ्रीकी कामगार कंपाला में आ सकते थे. शाम के वक़्त सारा शहर भारतीय हो जाता था.

ओबोटे के दौर में कुछ दिनों तक युगांडा में स्थिरता रही. आर्थिक हालात भी कुछ सुधरे. मगर असल बदलाव कहीं नहीं दिख रहा था.

भारतीय मूल के लोगों के हाथों में देश की संपत्ति

जोएल किबाज़ो कहते हैं, "देश की संपत्ति भारतीय मूल के लोगों के हाथों में थी. हमारे लिए आज़ादी के कोई मायने नहीं थे क्योंकि मिस्टर पटेल अपनी दुकान केवल किसी और मिस्टर पटेल को ही बेचते थे. किसी अफ्रीकी को नहीं. अफ्रीकी मूल के लोगों से भारतीय समुदाय के लोग बराबरी की शर्तों पर सौदे नहीं करते थे. आज़ादी के बावजूद अफ्रीकी लोगों को काम करने की पूरी आज़ादी नहीं थी. ये आज़ादी अधूरी थी और इसके लिए काफ़ी हद तक भारतीय मूल के लोग ज़िम्मेदार थे."

युगांडा के राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार मम्बुत्सिया एंडेबेसा जोएल किबाज़ो से इत्तिफ़ाक़ रखते हैं. वो कहते हैं कि अंग्रेज़ों के जाने के बाद भी युगांडा में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों के मिज़ाज में कतई बदलाव नहीं आया था.

मम्बुत्सिया एंडेबेसा कहते हैं कि, "उस वक़्त युगांडा में अगर किसी के पास पूंजी थी तो वो भारतीय या यूरोपीय मूल के समुदाय के पास थी. आज़ादी के बाद जल्द ही भारतीय समुदाय के हित अफ्रीकी समुदाय के हितों से टकराने लगे. हालात से निपटने के लिए मिल्टन ओबोटे की सरकार ने आर्थिक विकेंद्रीकरण की नीति अपनाई. नतीजा ये हुआ कि जिस संपत्ति और कारोबार पर भारतीय मूल के लोगों का एकाधिकार था, उस पर अचानक अफ्रीकी कब्जा करने लगे. संघर्ष के हालात लगातार बने हुए थे."

ईदी अमीन
BBC
ईदी अमीन

जब ईदी अमीन बने सेनाध्यक्ष

युगांडा को आज़ाद हुए क़रीब एक दशक हो चले थे. ओबोटे देश के हालात बदलने में नाकाम रहे थे. वो तानाशाही हुक़ूमत चला रहे थे.

देश में ओबोटे के कई दुश्मन बन गए थे, लेकिन वो अपने जनरल ईदी अमीन पर बहुत भरोसा करते थे और उनकी मदद से तानाशाही चला रहे थे.

ईदी अमीन इस्लामिक क़बीले काक्वा से ताल्लुक़ रखते थे. अमीन ने कभी औपचारिक तालीम नहीं हासिल की थी.

अंग्रेज़ों के दौर में वो सेना में भर्ती हो गए थे. सेना में अमीन ने तेज़ी से तरक्की की थी. 1966 में राष्ट्रपति मिल्टन ओबोटे ने ईदी अमीन को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया.

ओबोटे की सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई थी. देश में अराजकता का माहौल था. तमाम क़बीलों को शिकायत थी कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है. उन पर ज़ुल्म ढाए जा रहे हैं.

वो दौर शीतयुद्ध का भी था. अमरीका, ब्रिटेन और इसराइल को लगा कि ओबोटे की सरकार का झुकाव सोवियत संघ की तरफ़ बढ़ता जा रहा है.

ईदी अमीन ने तख़्तापलट किया

1971 में जब मिल्टन ओबोटे राष्ट्रमंडल की बैठक में शामिल होने सिंगापुर गए हुए थे तो ईदी अमीन ने उनका तख़्तापलट कर दिया.

अमीन ने ये तख़्तापलट बहुत फ़ुर्ती और शांतिपूर्ण तरीक़े से किया. पश्चिमी देशों ने भी अमीन के तख़्तापलट का समर्थन किया. देश की जनता ने भी ईदी अमीन के सत्ता में आने का स्वागत किया.

जोएल किबाज़ो कहते हैं कि लोग ओबोटे की सरकार से उकता गए थे. जनता ने ख़ूब जश्न मनाया. पश्चिमी देशों ने भी ईदी अमीन के सत्ता में आने को हाथों-हाथ लिया.

किबाज़ो बताते हैं, "ब्रिटेन ने तो ईदी अमीन के हाथों में सत्ता आने को यूं देखा जैसे कि युगांडा का निज़ाम दोबारा उनके हाथ में आ गया हो. अमीन का बकिंघम पैलेस में स्वागत किया गया, लेकिन पश्चिमी देशों ने ईदी अमीन के बारे में ग़लत अंदाज़ा लगाया था. उन्हें जल्द ही अपनी ग़लती का एहसास हो गया."

ईदी अमीन की सरकार को मान्यता देने में ब्रिटेन अव्वल था, मगर कई अफ्रीकी देशों ने इस तख़्तापलट का विरोध किया. पड़ोसी देश तंज़ानिया ने भी इस पर नाख़ुशी ज़ाहिर की. पूर्व राष्ट्रपति ओबोटे ने तंज़ानिया में ही पनाह ली थी.

ईदी अमीन
William Campbell/Sygma via Getty Images
ईदी अमीन

एशियाई समुदाय पर शोषण का आरोप

ब्रिटेन को जल्द ही एहसास हो गया कि ईदी अमीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. अमीन ने सेना की मदद से देश पर पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया. अमीन ने लोगों को डराने और ज़ुल्म ढाने के लिए सेना का भरपूर दुरुपयोग किया. हिंसक तरीक़ों का सहारा लिया.

राजनीतिक अस्थिरता के इस दौर में युगांडा की अर्थव्यवस्था की हालत और भी बिगड़ती जा रही थी. हालात से निपटने के लिए अमीन ने बड़ा क़दम उठाने का फ़ैसला किया.

अमीन ने एशियाई समुदाय पर देश के लोगों के शोषण का आरोप लगाते हुए उनके देश निकाले का एलान किया.

मम्बुत्सिया एंडेबेसा कहते हैं कि आज़ादी के बाद एशियाई मूल के लोगों को शोषक के तौर पर देखा जाता था. इसलिए जब ईदी अमीन ने उन्हें देश से बाहर जाने का फ़रमान सुनाया तो अफ्रीकी समुदाय बेहद ख़ुश हो गया.

उनके पास वो क़ाबिलियत नहीं थी कि वो भारतीय मूल के लोगों की जगह ले सकें. मगर फिर भी आम अफ्रीकी ने इस फ़ैसले पर ख़ुशी जताई. वैसे अपने भ्रष्टाचार का ठीकरा एशियाई मूल के लोगों पर फोड़ने वाले ईदी अमीन पहले अफ्रीकी नेता नहीं थे.

70 के दशक की शुरुआत में कई अफ्रीकी और एशियाई मूल के लोग थे जो आपस में घुल-मिल रहे थे. यास्मीन इस छोटे से तबक़े से ही ताल्लुक़ रखती थीं.

वो कंपाला की मकेरेरे यूनिवर्सिटी में पढ़ती थीं. वहां पर उनके साथियों में अफ्रीकी समुदाय के लोग भी थे. यास्मीन कहती हैं कि वो युगांडा में उनकी ज़िंदगी के सबसे ख़ुशनुमा दिन थे.

''यूनिवर्सिटी का माहौल बहुत ख़ुला था. कैंपस में चारों तरफ़ हरियाली थी. अक्सर छात्रों के गुटों के बीच सियासी तक़रीरें और तकरारें होती थीं.''

लेकिन ईदी अमीन ने सत्ता में आने के बाद यूनिवर्सिटी में सियासी डिबेट पर रोक लगा दी. छात्रों ने इसका विरोध किया तो अमीन ने उन्हें डराने के लिए यूनिवर्सिटी में सेना की टुकड़ी भेज दी.

यास्मीन बताती हैं, "बूट पहनकर टैंकों में सवार होकर जब अमीन के सैनिक यूनिवर्सिटी कैंपस में दाख़िल हुए तो ये मंज़र बेहद डरावना था. युगांडा के बेहतर भविष्य की उम्मीद जो मेरे मन में थी, उस सपने को ईदी अमीन के फ़ौजी बूटों ने कुचल डाला था."

यास्मीन के यूनिवर्सिटी के दिनों के साथी ममद अलीभाई ने भी ईदी अमीन के दौर में युगांडा छोड़ दिया था. मगर उसकी तानाशाही ख़त्म होने के बाद ममद अलीभाई युगांडा लौट आए. आजकल वो सिक्योरिटी का कारोबार करते हैं जो बेहद कामयाब है.

अलीभाई कहते हैं, "स्कूल और यूनिवर्सिटी के दिन मेरी ज़िंदगी के सबसे हसीन यादों वाले दिन हैं. एशियाई मूल के लोग बहुत कम थे. अफ्रीकी और भारतीय समुदाय के बीच की दूरियां घट रही थीं. लोग घुल-मिल रहे थे. हम एक ही स्कूल और यूनिवर्सिटी में पढ़ने लगे थे. ये काम हमसे पहले की पीढ़ी ने नहीं किया था. हमारे अगर एशियाई मूल के दोस्त थे, तो अश्वेत अफ्रीकी दोस्त भी हमने बनाए थे."

हेनरी किएम्बा उस दौर के इतिहास को औरों से बेहतर जानते हैं. हेनरी ने मिल्टन ओबोटे के साथ भी काम किया था और बाद में वो ईदी अमीन की सरकार में भी मंत्री रहे थे.

हेनरी के घर की तमाम दीवारें उनके लंबे सियासी सफ़र की गवाही देती हैं.

हेनरी कहते हैं, "मैंने आज़ादी के बाद की युगांडा की हर सरकार के साथ काम किया है. अंग्रेज़ों से आज़ादी मिलने के बाद हम बहुत उत्साहित थे. हमें लगता था कि हम और भी बेहतर भविष्य बनाएंगे."

लेकिन, ईदी अमीन के आने के बाद सब कुछ बदल गया. हेनरी कहते हैं कि ईदी अमीन एक दिलचस्प शख़्सियत थे. उनके दो चेहरे थे. एक वो जो बहुत मज़ाकिया था. दूसरा वो जो क्रूर था, दूसरों पर ज़ुल्म ढाने वाला था.

युगांडा
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कई भारतीय वहीं रुक गए थे

अध्यापिका पीस ट्वीने भी अमीन के ज़ुल्मो-सितम की शिकार हुई थीं. पीस कभी भी उस दौर को भूल नहीं पाईं. वो कहती हैं, ''हमारी समझ में ही नहीं आया कि हुआ क्या है. हमें बस ये पता था कि देश में बहुत बड़ा बदलाव हुआ है.

हम कहीं भी आते-जाते हुए डरते थे. रास्ते में सैनिक दिखने पर आंखें नीची करते थे. एक बार एक लड़की की हत्या हो गई तो यूनिवर्सिटी कैंपस में सैनिक घुस आए. लड़कियों ने ख़ुद को एक कमरे में बंद कर लिया. सैनिकों ने ज़बरदस्ती दरवाज़ा खुलवाया और लड़कियों को बुरी तरह पीटा. ऐसा लगता था कि उनकी नज़र में हम इंसान ही नहीं हैं."

पश्चिमी देशों ने ईदी अमीन की हैवान हुकूमत के प्रति आंखें मूंद ली थीं. उनके लिए अश्वेतों की जान की कोई क़ीमत नहीं थी.

मार-काट के इस दौर में जब भारतीय मूल के लोगों को युगांडा से निकाला गया तो कई परिवारों ने या तो अपनी मर्ज़ी से वहीं रहने का फ़ैसला किया या फिर उन्हें युगांडा में रहने की इजाज़त मिल गई.

हुमा अहमद का परिवार ईदी अमीन के दौर में युगांडा में ही ठहर गया था. उनके बाबा ने युगांडा छोड़कर जाने से इनकार कर दिया.

मजबूरी में हुमा के मां-बाप को भी रुकना पड़ा. हुमा बताती हैं कि उस दौर में बहुत कम भारतीय मूल के लोग कंपाला में बचे थे. कुछ लोग ऐसे थे जो ग्रामीण इलाक़ों में रहते थे.

'ईदी अमीन की नीयत साफ़ थी'

हुमा कहती हैं कि देश निकाले से पहले युगांडा को भारतीय मूल के लोग ही चला रहे थे. अचानक उनके जाने से देश में एक खालीपन आ गया. लोगों को पता ही नहीं था कि बिना भारतीय मूल के लोगों के युगांडा का क्या होगा.

हुमा मानती हैं कि ईदी अमीन को लेकर लोगों की सोच में नाइंसाफ़ी रही है. वो कहती हैं कि ईदी अमीन की नीयत साफ़ थी.

वो अपने लोगों का भला चाहते थे. वो चाहते थे कि युगांडा का अफ्रीकी समुदाय तरक्की करे. समृद्ध बने. युगांडा की कमान अफ्रीकी समुदाय के लोगों के हाथ में ही हो.

युगांडा के पत्रकार टिमोथी कैलीगेरा कहते हैं, "ईदी अमीन का किरदार डोनल्ड ट्रंप से मिलता था. वो दिल के साफ़ थे. बचकाना बर्ताव करते थे, अपनी ही बात से पलट जाते थे. तुनकमिज़ाज थे. बेवजह भड़क उठते थे, लेकिन वो अपने देश, अपनी जनता से बहुत प्यार करते थे. उसका भला चाहते थे."

हालांकि जोएल किबाज़ो ऐसा नहीं मानते. जोएल के क़बीले को ईदी अमीन ने लगातार अपने निशाने पर रखा था.

जोएल कहते हैं, "हम ख़ुशक़िस्मत थे कि बच निकले, लेकिन मेरे कई दोस्त सेना के हाथों मारे गए. कहा जाता है कि 10 लाख से ज़्यादा लोगों को ईदी अमीन ने मौत के घाट उतार दिया था. ये युगांडा की कुल आबादी का 7-8 फ़ीसदी था. इनमें बुद्धिजीवी भी थे. डॉक्टर और जज भी थे. हालांकि बहुत कम भारतीय मूल के लोग ईदी अमीन के शासन के दौरान मारे गए थे. वो ईदी अमीन के चंगुल से बचकर नई दुनिया बसा लेने में कामयाब रहे."

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लौटे कई भारतीय परिवार

हेनरी किएम्बा ने काफ़ी वक़्त ईदी अमीन की सरकार में गुज़ारा था, लेकिन आख़िर में वो भी ईदी अमीन से अलग होकर देश छोड़कर चले गए.

हेनरी कहते हैं, "ईदी अमीन ने जब मेरे भाई को मरवा दिया तो ये मेरे बर्दाश्त से बाहर हो गया था. मेरी मजबूरी थी कि मैं देश में ही रहूं क्योंकि मेरी मां यहीं थी. ईदी अमीन ने दो मंत्रियों को मौत के घाट उतरवा दिया था. उसने युगांडा के आर्कबिशप की हत्या करा दी. जब मेरे भाई को मार दिया गया तो मजबूर होकर मुझे देश छोड़ना पड़ा. ईदी अमीन के लिए किसी की जान की कोई क़ीमत नहीं थी."

हालांकि अब युगांडा में एशियाई मूल और अफ्रीकी समुदाय के बीच दूरियां पाटने की कोशिशें हो रही हैं.

भारतीय मूल के मयूर माधवानी के परिवार का युगांडा में चीनी बनाने का बड़ा कारोबार है. ईदी अमीन के दौर में माधवानी का परिवार युगांडा छोड़कर चला गया था.

मगर 1979 में ईदी अमीन की तानाशाही ख़त्म होने के बाद माधवानी परिवार दोबारा युगांडा में आकर बस गया. मयूर की भतीजी निमिषा माधवानी संयुक्त अरब अमीरात में युगांडा की राजदूत हैं.

दोनों ही मानते हैं कि ईदी अमीन के दौर में भारतीय मूल के लोगों की मुश्किलों को ज़्यादा सुर्ख़ियां मिलीं, लेकिन अफ्रीकी समुदाय ने अमीन के ज़ुल्म ज़्यादा झेले.

निमिषा कहती हैं, ''ईदी अमीन के दौर में बमुश्किल दो भारतीय समुदाय के लोग मारे गए होंगे, जबकि उसके दौर में 5 लाख से ज़्यादा अश्वेत मारे गए. हिटलर की तरह ईदी अमीन भी इंसानियत का दुश्मन था.''

युगांडा के मौजूदा राष्ट्रपति योवेरी मुसेवेनी भारतीय और अफ्रीकी समुदायों के बीच दूरियां पाटने की कोशिश कर रहे हैं. 1986 में सत्ता में आने के बाद मुसेवेनी ने देश छोड़कर गए भारतीय समुदाय से युगांडा लौटने की अपील की.

उन्होंने ईदी अमीन के दौर में ज़ब्त की गई भारतीय मूल के लोगों की पांच हज़ार से ज़्यादा संपत्तियां लौटा दीं. मुसेवेनी के इस प्रस्ताव को स्वीकारने वाले भारतीय मूल के लोगों में ममद अलीभाई सबसे पहले थे.

वो कहते हैं कि आज भी युगांडा में अफ्रीकी और भारतीय मूल के लोगों के बीच बराबरी नहीं है. ये बहुत अफ़सोस की बात है. आज भारतीय समुदाय को युगांडा में निवेशक के तौर पर देखा जाता है.

आज फिर युगांडा में भारतीय समुदाय के लोगों को आर्थिक शोषण के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है.

ममद अलीभाई कहते हैं कि युगांडा की युवा पीढ़ी बेसब्र है. उसे आज भी भारतीय समुदाय के साथ बराबरी नहीं दिखती. अफ्रीकी समुदाय के लोगों के बीच भारतीय समुदाय को लेकर नाराज़गी फिर से बढ़ रही है.

जानकार आशंका जताते हैं कि हालात में बदलाव नहीं हुआ तो 60 और 70 के दशक जैसी स्थिति फिर से बन सकती है.

हालांकि यास्मीन समेत बहुत से ऐसे लोग हैं जो युगांडा की युवा पीढ़ी की तरफ़ बहुत उम्मीद से देख रहे हैं.

युगांडा में कौन लाया था भारतीयों के लिए 'बुरे दिन'

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English summary
The dastardly dictator who hated the Indians
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