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अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

आर्मीनिया की राजधानी येरेवन में पिछले छह साल से रह रहा एक भारतीय परिवार शरणार्थियों के लिए खाना मुहैया करवा रहा है.

By गुरप्रीत सैनी
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अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग का केंद्र बने नागोर्नो-काराबाख़ इलाक़े के आम लोगों की ज़िंदगियां बिखरकर रह गई हैं.

लोगों को अपने घर छोड़ने पड़े हैं. एक तरफ़ पुरुषों ने मैदान-ए-जंग की तरफ़ कूच किया तो दूसरी तरफ़ महिलाएं बच्चों के साथ सुरक्षित पनाहगाहों की तलाश में निकल गईं.

विस्थापित हुए कई लोग शरण के लिए बसों के ज़रिए आर्मीनिया की राजधानी येरेवन पहुंचे. जहां सरकार ने उनके रहने का इंतज़ाम किया था. उनके लिए कैम्प बनाए गए थे.

और येरेवन के स्थानीय लोगों ने भी मदद का हाथ बढ़ाते हुए अपने घरों और होटलों के दरवाज़े शरणार्थियों के लिए खोल दिए.

स्थानीय लोग अलग-अलग तरीक़े से नागोर्नो-काराबाख़ से आए लोगों की मदद कर रहे हैं. उनके लिए दवाइयों और कपड़ों का इतज़ाम कर रहे हैं.

एक भारतीय परिवार ऐसे कर रहा मदद

अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

पिछले छह साल से परिवार के साथ येरेवन में रह रहे 45 वर्षीय भारतीय परवेज़ अली ख़ान भी अपनी ओर से शरणार्थियों के लिए कुछ करना चाहते थे.

जब वो शरणार्थी कैम्प पहुंचे तो उन्होंने देखा कि खाने का कच्चा सामान तो दिया गया है, लेकिन शरणार्थियों के पास खाना पकाने का साधन नहीं है और नागोर्नो-काराबाख़ से आ रहे थके-हारे लोग भूखे ही बैठे थे. इन शरणार्थियों में ज़्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं.

तब 'इंडियन महक' रेस्तरां चलाने वाले परवेज़ और उनकी पत्नी ने सोचा कि इस तरीक़े से वो शरणार्थियों की मदद कर सकते हैं और उन्होंने तय किया कि वो इन लोगों को पका खाना मुहैया करवाएंगे.

परवेज़ अली ख़ान ने फोन पर बीबीसी हिंदी को बताया, "हम रेस्तरां चलाते हैं, हमने सोचा कि इसी ज़रिए से इन लोगों के लिए कुछ कर सकते हैं. हमने तय किया कि इन्हें पका हुआ खाना पहुंचाएंगे."

अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

पंजाब के मलेरकोटला से...

परवेज़ भारत में पंजाब के मलेरकोटला से आते हैं. वो पिछले छह साल से अपनी पत्नी, दो बेटियों और भांजी के साथ येरेवन में रह रहे हैं.

वो बताते हैं कि उनकी बेटियां स्थानीय भाषा बोल, पढ़ और लिख लेती हैं. उनकी बेटी ने अपने रेस्तरां के फ़ेसबुक पेज पर 4 अक्तूबर को एक पोस्ट डाला, "कृपया जानकारी फैलाएं कि अगर नागोर्नो-काराबाख़ से आने वाले लोगों के लिए तैयार भोजन की ज़रूरत है तो इंडियन महक रेस्तरां से संपर्क कर सकते हैं और हम मदद करेंगे."

इस फ़ेसबुक पोस्ट के साथ फ़ोन नंबर भी शेयर किया गया था. इस पोस्ट पर सैंकड़ों लोगों ने प्रतिक्रिया दी और दो हज़ार से ज़्यादा लोगों ने शेयर किया.

परवेज़ बताते हैं कि पहले ही दिन हमारे पास 500 लोगों की बुकिंग हो गई और उन्होंने और उनकी बेटियों ने ख़ुद जाकर शरणार्थियों तक खाना पहुंचाया.

उस दिन से लगातार परवेज़ का परिवार ज़रूरतमंद शरणार्थियों तक पका हुआ खाना पहुंचा रहा है. उनके मुताबिक़ वो अब रोज़ाना खाने के अधिकतम 700 बॉक्स शरणार्थियों को पहुंचा रहे हैं.

अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

खाना पहुंचाने का इंतज़ाम

परवेज़ कहते हैं, "40 से 50 हज़ार शरणार्थी हैं. सबके लिए तो हम प्रबंधन नहीं कर पा रहे. स्टाफ भी कम है. कोरोना शुरू होने पर स्टाफ को भारत भेज दिया था. आर्थिक गतिविधियां शुरू होने की बात हुई तो यहां युद्ध छिड़ गया, जिससे हमारा स्टाफ आ नहीं पा रहा है, वो आने के लिए तैयार बैठे हैं. जैसे ही आएंगे हम और लोगों तक खाना पहुंचाने की कोशिश करेंगे."

फिलहाल उनका परिवार और बहुत कम स्टाफ ही मिलकर सारा खाना बनाने का काम करता है. परवेज़ की 18 वर्षीय छोटी बेटी अलसा ख़ान बताती हैं कि सुबह 9 बजे से रात 2 बजे तक सब लगे रहते हैं.

कॉल अटेंड करने से लेकर, लिस्ट बनाने, खाना पहुंचाने का इंतज़ाम तक सारा काम अलसा देखती हैं.

वो बताती हैं कि उन्होंने अभी-अभी 12वीं पास की है और उनकी बड़ी बहन अकसा के साथ पहले कभी-कभी रेस्तरां में पिता का हाथ बटांने आ जाया करती थीं, लेकिन अब पूरी तरह से इस पहल में मां-पिता के साथ जुटी हुई हैं.

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इस सब में होने वाला खर्च वो किस तरह से उठा रहे हैं? ये पूछने पर परवेज़ बताते हैं कि उनकी चेक रिपब्लिक के प्राग में एक रेस्तरां खोलने की योजना थी. जिसकी तैयारी उन्होंने पिछले साल नंवबर में पूरी कर ली थी और इस साल अप्रैल-मई में वहां रेस्तरां का काम शुरू करना था.

लेकिन कोरोना के कारण वहां रेस्तरां शुरू नहीं हो सका और उसके लिए रखा गया आधा फंड कोरोना के वक़्त खर्च हो गया और बचे 50 प्रतिशत को वो इस कोशिश में लगा रहे हैं.

परवेज़ कहते हैं, "एक रुपया भी जो लग रहा है हम अपनी जेब से कर रहे हैं. और जब तक जेब में एक रुपया बचेगा तब तक लोगों की सेवा करते रहेंगे. इसके बदले उनसे जो हमें प्यार मिल रहा है, वो ही हमारी कमाई है."

अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

कई लोग मदद के लिए आगे आए

खाना बनाने से लेकर डिलिवरी करने तक के काम के लिए परवेज़ के परिवार को और भी लोगों की ज़रूरत महसूस हुई.

जिसे देखते हुए उन्होंने अपने रेस्तरां के फ़ेसबुक पेज पर एक और पोस्ट डाला कि हमें वॉलंटियर चाहिए जो किचन में काम कर सकें और डिलिवरी कर सकें.

वो बताते हैं, "इसके बाद हमारे पास एक दिन के अंदर पचास लोगों के नंबर थे. वो वॉलंटियर आ रहे हैं. हमें किचन में हेल्प कर रहे हैं, सब्ज़ी काटने का काम करते हैं, बनाने में जितनी मदद कर सकते हैं कर रहे हैं. डिलिवरी में मदद के लिए भी बहुत लोग आ रहे हैं. लड़के आ रहे हैं. परिवार आ रहे हैं. जैसे एक पती-पत्नी गाड़ी लेकर आते हैं, हम उन्हें तीन-चार जगह का पता बता देते हैं और वो वहां खाना डिलिवर कर देते हैं."

अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

'आर्मीनिया के लोगों का कर्ज़ उतार रहे हैं'

परवेज़ का परिवार बताता है कि उनकी इस कोशिश को आर्मीनियाई लोगों का बेहद प्यार मिल रहा है. उनके फ़ेसबुक पेज से लेकर वेबसाइट तक लोगों के इतने शुक्रिया के मैसेज आ रहे हैं जिन सब का वो जवाब भी नहीं दे पा रहे. कहीं बाहर जाते हैं या मार्केट जाते हैं तो वहां भी लोगों का बहुत प्यार मिलता है.

इस भारतीय परिवार का कहना है कि वो सिर्फ आर्मीनिया से अब तक मिले प्यार का कर्ज़ उतार रहे हैं और अभी मिल रहे प्यार से वो इतने अभिभूत हैं कि जब तक हो सकेगा वो शरणार्थियों के लिए ये सब करते रहेंगे.

परवेज़ कहते हैं, "जब से हम आर्मीनिया आए हैं, यहां के लोगों से बहुत प्यार मिला. इन्होंने हम से आज तक ये नहीं पूछा कि आप कौन हैं. यहां हमें एक भारतीय समझा जाता है, कभी ये नहीं पूछा जाता कि आप हिंदू या मुसलमान या कुछ और हैं. इन लोगों ने पिछले 6 साल में इतना प्यार दिया है कि हम इनके कर्ज़दार हैं. उस कर्ज़ को ही आज हम अदा कर रहे हैं."

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परवेज़ कहते हैं कि पहले लगा था कि सिर्फ 100-200 लोगों का खाना बनाना होगा. लेकिन अब जितने ज़्यादा लोगों को खाना पहुंचा पा रहे हैं उतनी खुशी उन्हें भी हो रही है.

उनकी बेटी अलसा बताती हैं कि शरणार्थियों में ज़्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं. कई गर्भवती महिलाएं हैं और 50 प्रतिशत बच्चे हैं, इसलिए बच्चों को ध्यान में रखकर खाना बनाया जाता है. और बॉक्स में अंडे और हॉटडॉग जैसी चीज़ें रखी जाती हैं. साथ ही चिप्स देते हैं.

अलसा कहती हैं कि उन्हें सबसे ज़्यादा खुशी तब मिलती है जब बच्चे खाने के साथ मिली चिप्स या चॉकलेट देखकर खुश हो जाते हैं. "उनकी माएं बहुत खुश हो जाती हैं, उनकी खुशी सबसे अच्छी चीज़ है."

इसके अलावा खाने में मुख्य तौर पर चावल का आइटम जैसे स्टीम राइस, जीरा राइस, वेज पुलाव होता है. उसके साथ एक सब्ज़ी होती है. सलाद रहता है. इसके अलावा ब्रेड रखा जाता है. इसमें कभी सेंडविच, नान, हॉटडॉग साथ ही कभी नान या पूरियां होती हैं.

जिन शरणार्थियों तक ये खाना पहुंच रहा है वो परवेज़ के परिवार का शुक्रिया करते नहीं थकते. कुछ दिन पहले नागोर्नो-काराबाख़ से आया एक परिवार तो ख़ुद परवेज़ ख़ान के रेस्तरां में खाना बनाने में मदद करने पहुंच गया था.

अज़रबैजान और आर्मीनिया की जंग: शरणार्थियों की मदद करता एक भारतीय परिवार

परवेज़ कहते हैं कि उन्हें भारतीय होने पर गर्व है और उन्होंने मेहमान नवाज़ी और दूसरों के लिए कुछ करने का जज़्बा अपने देश से ही सीखा है.

फिलहाल नागोर्नो-काराबाख़ में स्थिति तनावपूर्ण है और शरणार्थियों के जल्द वहां वापस लौटने के आसार नहीं है.

परवेज़ कहते हैं कि वो कोशिश करेंगे कि आगे चलकर वो इस पहल को और बढ़ाए और दूसरे लोगों के साथ मिलकर वहां के लोगों के उजड़ चुके घरों को फिर बनाने में भी कुछ योगदान कर सकें.

BBC Hindi
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English summary
The Battle of Azerbaijan and Armenia: An Indian Family Helping Refugees
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