कौन थे ताइवान के पूर्व राष्ट्रपति ली तेंग-हुई जिनकी याद में कार्यक्रम से बौखलाया है चीन ?
ताइपे। ताइवान (Taiwan) और चीन (China) में इन दिनों तनाव चरम पर है। चीन ने लगातार दूसरे दिन ताइवान की सीमा में अपने लड़ाकू विमान भेजे। जाहिर सी बात है चीन की इस कार्रवाई को ताइवान ने धमकी माना और उसने भी अपने जेट को आसमान में भेजा। चीन की इस उकसावे वाली कार्रवाई को ताइवान के उस कार्यक्रम के जवाब में देखा जा रहा है जिसके तहत दुनिया के कुछ प्रमुख देशों के प्रतिनिधि वहां पहुंचे हुए हैं।
ताइवान में लोकतंत्र लाने वाले नेता थे ली तेंग-हुई
ताइवान इस समय अपने महान नेता और पूर्व राष्ट्रपति रहे ली तेंग-हुई को याद कर रहा है। ताइवान की सरकार, अधिकारी और वरिष्ठ अमेरिकी दूत के साथ ही अमेरिका के उप मंत्री कीथ क्रैच 'मिस्टर डेमोक्रेसी' के नाम से मशहूर पूर्व राष्ट्रपति ली-तेंग हुई को विदाई देने के लिए इकठ्ठा हुए। श्रद्धांजलि कार्यक्रम राजधानी ताइपेई के एलेथिया विश्वविद्यालय परिसर में हुआ। कार्यक्रम में जापान के पूर्व प्रधानमंत्री योशिरो मोरी भी शामिल हुए। ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने पूर्व राष्ट्रपति को याद करते हुए कहा कि उन्होंने ताइवान में लोकतंत्र लाने के लिए शांतिपूर्ण राजनीतिक समाधान खोजा।
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मिस्टर डेमोक्रेसी के नाम से जाने जाते थे ली
ली तेंग-हुई 1988 से 2000 तक ताइवान के राष्ट्रपति रहे थे। 30 जुलाई 2020 को 97 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया था। उनके निधन के बाद दुनिया के नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि दी थी। इनमें भारत सरकार भी शामिल थी। लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा को देखते हुए उन्हें मिस्टर डेमोक्रेसी के नाम से भी बुलाया जाता था। ली की याद में अब ताइवान की सरकार कार्यक्रम कर रही है ताकि देश में लोकतंत्र को स्थापित करने के उनके योगदान को याद रखा जा सके।
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे और तिब्बती नेता और आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा ने भी उनके प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त की है। हालांकि ये दोनों ताइवान नहीं पहुंचे हैं। भारत से दिए अपने बयान में दलाई लामा ने कहा कि "हम बौद्ध लोग मृत्यु के बाद भी जीवन में विश्वास रखते हैं। हमें विश्वास है कि उनका ताइवान में ही पुनर्जन्म होगा।"
चीन की नजर में हमेशा खटकते रहे ली तेंग-हुई
ली को 'ताइवान के लोकतंत्र का जनक' के रूप में जाना जाता है। 1988 में चियांग चिंग-कू के निधन के बाद ली ताइवान के राष्ट्रपति बने थे। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने द्वीप में लोकतंत्र लाने की दिशा में बहुत कार्य किया। ली ने ताइवान में प्रत्यक्ष राष्ट्रपति चुनावों सहित एक लोकतांत्रिक राजनीतिक खाका तैयार करने की दिशा में संवैधानिक परिवर्तनों का नेतृत्व किया। राष्ट्रपति बनने के पहले वे 1978-81 तक ताइपे के मेयर रहे थे। साथ ही 1981-84 तक ताइवान के प्रांतीय गवर्नर के रूप में भी काम किया था।
ली के लोकतंत्र समर्थक कदमों की वजह से जहां ताइवान में उन्हें लोगों का खूब प्यार और सम्मान मिला वहीं चीन उन्हें हमेशा शक की नजर से देखता रहा था। चीन ली को दुश्मन नंबर 1 मानता रहा है क्योंकि उन्होंने ही ताइवान को चीन से अलग करने में अहम भूमिका निभाई थी।
ताइवान पर कब्जा करने के चीनी अभियान के विरोधी
राष्ट्रपति रहते हुए ताइवान द्वीप को चीन से अलग करने की ली की कोशिशों ने बीजिंग के साथ तनाव को बढ़ा दिया था। चीन जो कि ताइवान को अपने एक हिस्से के तौर पर देखता है, को ली की ये प्रक्रिया पसंद नहीं आई थी। ली ने चीन के द्वीप पर कब्जा करने के अभियान का खुलकर विरोध किया। उन्होंने ताइवान के लिए 'लोकतांत्रिक स्वतंत्रत, मानवाधिकार और आत्मसम्मान युक्त देश' होने की कामना की।
1996 में उनके कार्यकाल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करते हुए देश में पहली बार प्रत्यक्ष राष्ट्रपति चुनाव कराए गए। इन चुनावों में उन्हें लोकतांत्रिक रूप से दूसरे कार्यकाल के लिए शानदार जीत हासिल की थी।
क्या है ताइवान की स्थिति ?
चीनी प्रशासन का मानना है कि ताइवान उसका क्षेत्र है। चीन किसी भी देश को ताइवान से राजनयिक संबंध रखने का विरोध करता है। चीन ये भी कहता रहा है कि जरूरत पड़ने पर ताइवान पर ताकत के बल पर कब्जा किया जा सकता है। वहीं ताइवान के लोग खुद को एक अलग देश के रूप में देखना चाहते हैं। चीन में हांग कांग की तरह ही ताइवान को लेकर भी एक देश दो व्यवस्था वाले मॉडल को लागू किए जाने की बात की जाती है लेकिन वर्तमान में ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने इस मॉडल को नकार दिया है।
सांई इंग-वेन ताइवान को एक संप्रभु देश के तौर पर देखती हैं और वन चाइना पॉलिसी का विरोध करती हैं। यही वजह है कि चीन वेन की नीतियों से अपनी नाराजगी जाहिर करता रहा है। 2016 में वेन के सत्ता में आने के बाद से ही चीन ताइवान से बात करने से इनकार करता रहा है। माना जाता है ली तेंग-हुई ने जिन नीतियों को लेकर देश में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की नींव रखी थी साई इंग-वेन उन्हें ही लेकर आगे चल रही हैं।
चीन की स्थापना के साथ ही पड़ी थी दुश्मनी की नींव
1683 से 1895 तक ताइवान पर चीन के चिंग राजवंश का शासन रहा था। 1895 में जापान के हाथों चीन को हार का सामना करना पड़ा जिसके बाद जापान ने ताइवान पर नियंत्रण स्थापित कर लिया जो कि द्वितीय विश्व युद्ध तक चलता रहा। द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र देशों के हाथों जापान की हार के बाद ये तय किया गया कि ताइवान को उस समय चीन पर शासन कर रहे राजनेता और मिलिट्री कमांडर च्यांग काई शेक को सौंप दिया जाय। कुछ साल बाद च्यांग काई शेक को कम्युनिष्ट सेना के हाथों बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। तब शेक और उनके सहयोगी भागकर ताइवान पहुंचे और वहां पर सरकार का गठन किया और इसे ही असली चीन कहा। कई साल तक चीन और ताइवान के कड़वे संबंध के बाद 1980 में दोनों के रिश्ते सुधरने शुरू हुए। चीन चाहता है कि ताइवान वन कंट्री टू सिस्टम के तहत अपने आपको चीन का हिस्सा मान ले तो उसे अधिकार दिए जाएंगे। ताइवान इससे इनकार करते हुए स्वतंत्र देश होने का सपना देखता रहा है।