सूडान में विद्रोह, क्या बीत रही है वहाँ भारतीयों पर
दो दिन में दो ऐसे बदलाव जिन्हें क्रांति कहना ही उचित होगा. हाल के दिनों में सूडान वैश्विक ख़बरों में छाया रहा. ख़बरों में बने रहने की वजह, यहां हुए दो बड़े बदलाव. बीबीसी मराठी की जाह्नवी मुले ने सूडान की राजधानी ख़ार्तूम में रहने वाले संतोष जोशी से वहां की अनिश्चितताओं और राजनीतिक तख़्तापलट पर विस्तार से बात की.
दो दिन में दो ऐसे बदलाव जिन्हें क्रांति कहना ही उचित होगा. हाल के दिनों में सूडान वैश्विक ख़बरों में छाया रहा. ख़बरों में बने रहने की वजह, यहां हुए दो बड़े बदलाव. बीबीसी मराठी की जाह्नवी मुले ने सूडान की राजधानी ख़ार्तूम में रहने वाले संतोष जोशी से वहां की अनिश्चितताओं और राजनीतिक तख़्तापलट पर विस्तार से बात की. "आज तक मैंने अपने जीवन में ऐसा कुछ नहीं देखा था. मैं कभी किसी ऐसी घटना का साक्षी नहीं बना था. मुझे लोगों में ज़िंदगी नज़र आई."
संतोष उस नज़ारे को अपने शब्दों में बांधते हुए कहते हैं "मैं लोगों के संघर्ष का साक्षी बना, मैंने उन्हें इतना खुश कभी भी नहीं देखा."
ख़ार्तूम में जो कुछ बीते दिनों हुआ उस पर चर्चा करने से पहले, ये समझ लेना ज़रूरी है कि इन सबके पीछे का घटनाक्रम क्या रहा और ये सारे घटनाक्रम भारत के लिए इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं.
सूडान में बीते साल दिसंबर से प्रदर्शन हो रहे थे और इन प्रदर्शनों का नतीजा ये हुआ कि 11 अप्रैल साल 2019 में सूडान में एक बड़ी क्रांति के तौर पर तख़्तापलट हुआ. सूडान के पूर्व राष्ट्रपति उमर अल बशीर जोकि तीन दशक से देश की सत्ता पर काबिज़ थे, उन्हें पद छोड़ना पड़ा.
अब सेना का कहना है कि वो आने वाले दो सालों तक देश संभालेंगे और उसके बाद कहीं जाकर देश में ऐसी स्थिति बन सकेगी जिसमें चुनाव कराए जा सकें. लेकिन प्रदर्शनकारी अपनी मांग पर अड़े रहे और लोकतंत्र की मांग करते रहे जिसके बाद तख़्तापलट के नेता अवाद इब्न औफ़ को भी अपना पद छोड़ना पड़ा.
सूडान की स्थिति भारतीय नज़र से
इन सारे घटनाक्रमों के बीच, सूडान में रहने वाले भारतीय चाहते हैं कि मुल्क़ में जल्द से जल्द शांति हो जाए. प्राचीन समय से इस देश का भारत से पुराना ऐतिहासिक, राजनैतिक और आर्थिक रिश्ता रहा है.
भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुमान के अनुसार, लगभग पंद्रह सौ भारतीय मूल के लोग पीढ़ियों से सूडान में रह रहे हैं. इसके अलावा कई भारतीय कंपनियों ने सूडान में पैसा लगा रखा है और बहुत से भारतीय वहां नौकरी के सिलसिले में हैं.
संतोष जोशी उन्हीं लोगों में से एक हैं. वो मुंबई के पास ठाणे के रहने वाले हैं और साल 2016 में कंपनी के काम के सिलसिले में सूडान गए थे. इससे पहले वो अपने काम की ही वजह से लगभग दस सालों तक पश्चिम अफ्रीका में भी रह चुके हैं.
वो उन हर छोटे बड़े घटनाक्रमों का ज़िक्र करते हैं जिसने सूडान में हुए इस महा-बदलाव के लिए लिए अहम भूमिका निभाई. इस क्रांति के पहले सूडान में क्या हालात थे और अब जबकि तख़्तापलट हो चुका है तो आने वाले वक़्त में उनकी उम्मीदें क्या हैं.
एक मित्र देश
"जब मैं सूडान आया था तो मेरा अनुभव बहुत ही अच्छा रहा था. यहां नवंबर में मौसम बहुत सुहावना होता है. चीज़ें बेहद सामान्य थीं. मैंने यहां के लोगों को पाया कि वो बहुत मददगार हैं और मीठा बोलने वाले हैं. यहां के लोगों ने ही मुझे यहां रहने के लिए आरामदायक महसूस कराया."
लेकिन ये सबकुछ इतना आसान भी नहीं था क्योंकि संतोष को अरबी नहीं आती, जो कि सूडान की पहली भाषा है.
वो कहते हैं "लेकिन मेरे साथियों ने मेरी बातचीत करने में मदद की. अगर सच कहूं तो मैं सूडान की सभ्यता और संस्कृति से बहुत प्रभावित हुआ."
लेकिन संतोष यह भी मानते हैं कि सूडान में हर किसी की ज़िंदगी एक-दूसरे से अलग थी.
"हमें लगता था कि हमें सुरक्षा और बिजली जैसे मसलों पर बहुत अधिक सोचने की ज़रूरत नहीं. हमें बहुत अधिक तक़लीफ़ें भी नहीं उठानी पड़ीं. लेकिन मैंने ये भी देखा कि कैसे यहां लोग सरकार के साथ अलग-अलग मुद्दों को लेकर जूझते रहे हैं."
प्रदर्शनों से पहले कैसी थी ज़िंदगी
सूडान में बीते 30 सालों से उमर अल बशीर का शासन था. साल 1989 से वो सत्ता पर काबिज़ थे लेकिन हाल के दिनों में हुए संघर्षों ने लोगों को ग़रीबी के निचले पायदान पर पहुंचा दिया था. साल 2011 में दक्षिणी सूडान के अलग होने के बाद सूडान के बहुत से तेल के ज़ख़ीरे उससे छिन गए. संतोष जोशी लोगों के बीच बढ़ती निराशा का उल्लेख करते हुए कहते हैं "लोगों में विकास की अनदेखी को लेकर, आर्थिक नीतियों को लेकर, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में लापरवाही को लेकर, भ्रष्टाचार, राजनीतिक समस्याओं और बाधाओं को लेकर नाराज़गी थी."
साल 2017 में अमरीका ने दो दशकों बाद सूडान पर लगा आर्थिक प्रतिबंध हटा दिया जिसके बाद उम्मीद की एक किरण नज़र आई. लेकिन ये उम्मीद भी बहुत अधिक दिनों तक टिक नहीं सकी.
" वे सोच रहे थे कि इस आर्थिक प्रतिबंध के हटने से विकास को प्रोत्साहन मिलेगा और आर्थिक संकट का अंत होगा. लेकिन इसके बजाय अर्थव्यवस्था ने आसमान छूती मुद्रास्फीति के साथ मंदी को जन्म दिया. लोगों के वेतन में बहुत अधिक बढ़ोत्तरी नहीं हुई और लोगों की बचत धीरे-धीरे घटने लगी. इसके बाद ही लोगों ने समस्याओं के बारे में बात करना शुरू किया. रोज़मर्रा की चीज़ों को दाम बढ़ रहे थे और लोगों की बेचैनी भी."
रोटी को लेकर शुरू हुए संघर्ष ने सिविल संघर्ष तक
रोटी के दाम धीरे-धीरे बढ़ रहे थे. वो कहते हैं "ब्रेड और बीन्स सूडीन का मुख्य आहार है और धीरे-धीरे उनकी क़ीमत बढ़ती जा रही थी. इन बढ़ती क़ीमतों ने ही आग के लिए चिंगारी का काम किया. इन बढ़ती क़ीमतों ने लोगों में कुंठा पैदा की और नाराज़गी भी. हमें उन लोगों की नाराज़गी साफ़ समझ आ रही थी जो लोग रोटी तक नहीं ख़रीद पा रहे थे."
"पैसों की तंगी के चलते हमारे पास ईंधन की भी कमी थी. जिस वक़्त से मैं यहां आया हूं उस दिन के बाद से धीरे-धीरे यहां की मुद्रा में तेज़ी से गिरावट आई है. मेरे यहां आने के एक साल पहले तक नौ से दस सूडानी डॉलर की क़ीमत एक अमरीकी डॉलर के बराबर थी. लेकिन जब मैं यहां आया तो यह बढ़कर 18 पाउंड तक पहुंच चुका था. लेकिन फिलहाल यह बढ़कर 70 सूडानी पाउंड तक चुका है."
ख़ार्तूम में ईंधन और बाकी सभी चीज़ें मौजूद थीं लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में स्थिति बहुत ख़राब हो चुकी थी.
"क़रीब 19-20 दिसंबर के दरम्यान देश के एक हिस्से अत्बारा में रोटी की बढ़ी क़ीमतों को लेकर प्रदर्शन शुरू हुआ. यहां से शुरू हुआ प्रदर्शन धीरे-धीरे ख़ार्तूम तक फैल गया. हमने एक बहुत बड़े स्तर पर असंतोष को भड़कते हुए देखा."
विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व युवा कार्यकर्ताओं का एक समूह एसपीए (सूडान प्रोफ़ेशनल एक्टिविस्ट्स) कर रहा है. इन कार्यकर्ताओं में डॉक्टर, इंजीनियर, वक़ील और शिक्षक शामिल हैं और ख़ास बात यह रही कि इनमें से ज़्यादातर लोग युवा पीढ़ी के हैं.
"उन्हें उनका भविष्य ख़तरे में नज़र आ रहा था. उन्होंने विरोध प्रदर्शनों को गति दी और रैलियां निकालना शुर किया. उन्होंने जहां भी प्रदर्शन किया, वो कामयाब रहा. लोगों ने उनका भरपूर साथ दिया."
लेकिन छह अप्रैल के दिन यह विकराल रूप में नज़र आया.
"छह अप्रैल का दिन सूडान के लिए यूं भी ऐतिहासिक रहा है क्योंकि साल 1985 में इसी दिन तक़्तापलट हुआ था और इस साल भी छह अप्रैल के ही दिन हज़ारों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने सरकार के ख़िलाफ़ हो रहे प्रदर्शन में हिस्सा लिया. और इसके बाद से यह बढ़ता ही गया."
महिला नेतृत्व
इन प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में महिलाओं ने हिस्सा लिया. उन्होंने रैलियों में हिस्सा लिया और बढ़-चढ़कर नारेबाजी की. प्रदर्शन करने वालों में लगभग सत्तर फ़ीसदी महिलाएं हैं.
हालांकि सूडान के लिहाज़ ये कोई नई बात नहीं है. पुराने तानाशाहों के दौर में भी यह देश महिला नेतृत्व में आगे रहा है. हालांकि यह बेहद अटपटा है कि यहां महिलाएं अब भी समानता के लिए संघर्ष कर रही हैं.
"सूडान दूसरे इस्लामिक देशों की तुलना में कहीं अधिक उदार है. यहां महिलाएं दफ़्तरों में काम करती हैं और समाज में उनकी जगह है. वे संसद में भी हैं."
और अंतत: उन्हें उनके प्रयासों में सफलता भी मिली.
क्रांति के बाद का दिन
"मैंने लोगों को जीते देखा. लोग चहक रहे थे, वे खुश थे. मैंने इस देश के लोगों को इतना खुश कभी नहीं देखा था."
"मैं सूडान में पिछले दो सालों से हूं और मैंने यहां के लोगों का संघर्ष देखा है. तो जब मैंने ये सब होते देखा तो कहीं न कहीं मुझे भी खुशी हुई और मैंने बी राहत की सांस ली. इससे पहले की सेना आधिकारिक घोषमा करती उससे पहले ही लोगों ने जश्न मनाना शुरू कर दिया था."
लेकिन जब घोषणा की गई तो वे खुश नहीं थे.
"उन्हें पता था कि उन्हें क्या चाहिए. उन्हें एक दूसरा सैन्य राज नहीं चाहिए था. उन्हें भारत की तरह लोकतंत्र चाहिए. इसलिए उनका प्रदर्शन अब भी जारी है."
अफ़्रीकी देश सूडान में तेज़ी से सियासी हालात बदल रहे हैं. पहले यहां तख़्तापलट हुआ था. फिर रक्षामंत्री (सेना प्रमुख) अवाद इब्न औफ़ ने अपना पद छोड़ दिया.
अवाद 'सूडान मिलिट्री काउंसिल' के प्रमुख थे और उनकी अगुवाई में ही तख़्तापलट हुआ था. अवाद ने लेफ़्टिनेंट जनरल अब्दुल फ़तह अब्दुर्रहमान बुरहान को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित किया था.
उम्मीद और अनिश्चितता
कुछ वक़्त के लिए सूडान के एयरपोर्ट और सीमाओं को सील कर दिया गया था. संतोष दफ़्तर नहीं जा रहे हैं क्योंकि सभी कॉर्पोरेट इंस्टीट्यूट बंद हैं. लेकिन अब वो परिस्थितियों को लेकर बहुत फ़िक्रमंद नहीं हैं.
"प्रदर्शनकारी अहिंसात्मक प्रदर्शन के पक्षधर हैं. भारतीय दूतावास ने एडवाइज़री जारी की है और बहुत अधिक सचेत रहने को कहा है. हम यहां चार भारतीय हैं. हमारी कंपनी हमें हर तरह की सहूलियत दे रही है."
लेकिन कुछ परेशानियां अब भी बनी हुई हैं.
सूडान में अब भी नकदी की कमी है. पिछले तीन हफ़्तों से ज़्यादातर एटीएम और बैंकों में पैसा नहीं है. लोगों को पैसा निकालने के लिए लंबी-लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है. कैश निकालने की भी लीमिट तय है.
पिछले तीन महीनों से हो रहे इन प्रदर्शनों में दर्जनों लोगों की मौत भी हो चुकी है.
संतोष कहते हैं "उनके पास एक सुनियोजित नेतृत्व की कमी है. उन्हें एक ऐसा नेता चाहिए जो उनका नेतृत्व कर सके. आर्थिक व्यवस्था बुरी स्थिति में है. उन्हें भ्रष्टाचार पर लगाम लगानी होगी. यहां से अब जिसके भी हाथ में नेतृत्व जाएगा वो जादू नहीं कर सकता. उन्हें एक बार फिर से राष्ट्र निर्माण करना होगा. ये एक लंबी यात्रा है."