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श्रीलंका में उथल-पुथल के बीच क्या है सेना के संयम की वजह?

श्रीलंका में बिगड़ते आर्थिक हालात के कारण राजनीतिक अस्थिरता आई और राष्ट्रपति को देश तक छोड़ना पड़ा. लेकिन इस उथल पुथल के बीच श्रीलंका की सेना ख़ामोश ही रही है.

By BBC News हिन्दी
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श्रीलंकाई सेना
EPA
श्रीलंकाई सेना

श्रीलंका में क़रीब 15 दिनों तक चले राजनीतिक उठापटक के बाद देश को नया राष्ट्रपति मिल चुका है. लेकिन कुछ दिनों तक देश के भीतर जारी अराजकता की तस्वीरें सारी दुनिया ने देखीं.

13 साल पहले उत्तरी श्रीलंका में मौजूद ताक़तवर तमिल अलगाववादी विद्रोहियों के ख़िलाफ़ निर्णायक जंग जीतने वाली श्रीलंकाई सेना ने प्रदर्शनों, हिंसा और अराजकता के बीच राजनीति में कोई हस्तक्षेप नहीं किया.

इस बार भी सेना की राजनीति के प्रति रुख़ के संकेत जुलाई की घटनाओं से पहले ही साफ़ होने लगे थे.

11 मई को श्रीलंका के रक्षा सचिव कमल गुनारत्ने ने कहा था, "हमारे किसी भी अधिकारी की मंशा सैन्य तख़्तापलट की नहीं है. ये हमारे देश में कभी नहीं हुआ और ये करना यहां आसान भी नहीं है.'

उस वक्त भी आर्थिक अनिश्चितता के बीच देश के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की मांग को लेकर लोग सड़कों पर तो थे, पर गोटाबाया ने न तो देश छोड़ा था, न ही राष्ट्रपति का पद. हालांकि अब गोटाबाया देश छोड़ चुके हैं और देश में रानिल विक्रमसिंघे राष्ट्रपति पद पर हैं. लेकिन आर्थिक चुनौती जस की तस बनी हुई है.

क्या विक्रमासिंघे के राष्ट्रपति पद संभालने के बाद देश की आर्थिक औऱ राजनीतिक अस्थिरता ख़त्म होगी? नाज़ुक हालात से गुज़र रहे देश को उबारने में अगर विक्रमासिंघे विफ़ल होते हैं, तो हालात क्या होंगे?

पाकिस्तान और बांग्लादेश में समय-समय पर सेनाओं ने राजनीति में प्रवेश किया है. ऐसी ही मिसालें अफ़्रीका से लेकर लातिन अमेरिका में भी मिलती हैं.

क्या ऐसा श्रीलंका में संभव है? ये समझने के लिए बीबीसी हिंदी ने श्रीलंका की राजनीति और सेना पर नज़र रखने वाले कुछ विश्लेषकों से बात की. पढ़िए क्या कहते हैं जानकार -

श्रीलंकाई सेना
Getty Images
श्रीलंकाई सेना

सेना और राजनीति मे सिंहलियों का दबदबा

बीते कई महीनों से श्रीलंका में जारी राजनीतिक और आर्थिक अनिश्चितता के बीच भी वहां की सेना ख़ामोश है. 21 जुलाई की रात प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ हुई कार्रवाई को छोड़ दें, तो सेना ने देश में जारी अशांति और अस्थिरता के बीच ख़ुद को संतुलित और संयमित रखा है.

श्रीलंका की जनरल जॉन कोटेलवाला नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले सतीश मोहनदास ने बीबीसी को बताया, "श्रीलंकाई सेना भारतीय उपमहाद्वीप के बाकी देश, ख़ासकर पाकिस्तान और बांग्लादेश की सेना से काफ़ी अलग है. इसे आप सभ्य और शालीन सेना कह सकते हैं."

श्रीलंकाई सेना ने 72 सालों में कभी भी चुनी हुई सरकार को चुनौती देने की कोशिश नहीं की. सेना ने हमेशा लोकतांत्रिक सरकार का सम्मान किया है और समय-समय पर सरकार के प्रति अपनी वफ़ादारी का परिचय भी दिया है.

श्रीलंका की सेना में सिंहली बौद्धों की संख्या सबसे अधिक है. देश की सत्ता पर भी सिंहलियों का दबदबा है. यानी सेना से लेकर सरकार के लोगों में बहुसंख्कवाद हावी है. यही कारण है कि सेना और सरकार के बीच गतिरोध की कोई घटना नज़र नहीं आती.

सतीश बताते हैं कि सेना हमेशा आंतरिक तनावों से जूझती रही है. फिर चाहे वो 1983-2009 तक देश में चला गृहयुद्ध हो या अन्य आंतरिक गतिरोध. सेना इन्हीं मसलों में उलझी रही. उनके सामने सत्ता में हस्तक्षेप का कोई अवसर ही नहीं आया.

वो कहते हैं, "आज़ादी के बाद से देश ने कभी राजनीतिक अस्थिरता का सामना नहीं किया. आज जो अस्थिरता या राजनीतिक असंतोष नज़र आता है , उसके पीछे की बड़ी वजह आर्थिक चुनौतियां रहीं. देश में राजपक्षे बंधुओं और विक्रमासिंघे के प्रति ग़ुस्सा है क्योंकि शीर्ष नेतृत्व आर्थिक संकट के दलदल में धंसते देश को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सका."

रानिल विक्रमसिंघे
AFP
रानिल विक्रमसिंघे

श्रीलंका की लोकतांत्रिक परंपरा

वहीं बीबीसी साउथ एशिया के एडिटर और श्रीलंका में लंबे व़क्त तक रिपोर्टिंग कर चुके अनबरासन एथिराजन कहते हैं कि श्रीलंका की एक अच्छी लोकतांत्रिक परंपरा रही है.

अनबारासन बताते हैं, "गृहयुद्ध से लेकर देश में वामपंथी विद्रोह तक, सभी परिस्थितियों में देश का नेतृत्व मजबूत नेताओं ने किया है. नियमित चुनाव हुए हैं, तो सैन्य तख़्तापलट का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि देश की मज़बूत लोकतांत्रिक साख़ रही है."

भारत के जाने-माने थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फ़ॉर डिफ़ेंस स्टडीज़ एंड एनालिसिस (IDSA) के सीनियर फ़ेलो डॉक्टर अशोक बेहुरिया भी यही मानते हैं.

बेहुरिया कहते हैं कि 'भारतीय उपमहाद्वीप के जिन देशों में भी अब तक सैन्य तख़्तापलट हुए हैं, उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान, बांग्लादेश. उन देशों की तत्कालीन परिस्थिति और श्रीलंका की मौजूदा परिस्थिति की तुलना करना ठीक नहीं है. श्रीलंका के राजनीतिक संकट का मुख्य कारण देश की ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था है.'

संकट गहराया तो क्या होगा

लेकिन स्थिति अगर और तनावपूर्ण होती है और संकट पहले से भी ज़्यादा गहराता है, तो उस परिस्थिति में सेना की क्या भूमिका होगी?

इस सवाल के जवाब में अनबरासन एथिराजन कहते हैं, "ये पूरी तरह विक्रमासिंघे की योग्यता पर निर्भर करता है. देखना होगा कि वो ईंधन की ज़रूरतों को कैसे पूरा करते हैं, ईंधन और खाने के ज़रूरी सामान ख़रीदने के लिए पैसे कहां से लाते हैं, क्योंकि देश का विदेशी मुद्रा भंडार समाप्त हो गया है. देश बुनियादी आपूर्ति के आयात के लिए संघर्ष कर रहा है."

बीबीसी सिंहला की एडिटर इशारा डानासेकरा का मानना है कि सेना की भूमिका क्या होगी, ये सरकार के निर्देश पर निर्भर करेगा. सरकार जो आदेश देगी, सेना उसका पालन करेगी.

डानासेकरा कहती हैं, "श्रीलंका की आज़ादी के बाद से अब तक कई ऐसे मौके आए हैं, जब देश ने गहरे संकट का सामना किया है. उन मौकों पर भी लोकतांत्रिक तरीके से ही समाधान निकले हैं. इतिहास में ऐसे मौकों पर सेना का कोई हस्तक्षेप नहीं नज़र आता, न ही भविष्य में ऐसी कोई संभावना दिखती है."

गोटाबाया राजपक्षे
Getty Images
गोटाबाया राजपक्षे

फ़ौज और सरकार

अशोक बेहुरिया कहते हैं कि गोटाबाया राजपक्षे ने अपने कार्यकाल में कई रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों को ब्यूरोक्रेसी से लेकर दूसरे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया था.

जैसे देश के रक्षा सचिव मेजर जनरल कमल गुणारत्ने हैं, बंदरगाह प्राधिकरण के अध्यक्ष जनरल दया रत्नायके हैं और स्वास्थ्य सचिव मेजर जनरल संजीव मुनासिंघे हैं. पूर्व राष्ट्रपति के अंतरराष्ट्रीय मामलों के सलाहकार पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल जयनाथ कोलम्बेज थे.

कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए 2020 में बनी शक्तिशाली टास्क फोर्स के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी भी मौजूदा सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल शावेंद्र सिल्वा को दी गई थी.

बेहुरिया कहते हैं, "इन सबों को गवर्नेंस का कोई लंबा अनुभव तो नहीं, लेकिन पिछले कुछ सालों में सरकारी तंत्र की थोड़ी बहुत समझ तो इनमें ज़रूर विकसित हुई है. साथ ही क्षेत्रीय महत्वकांक्षाओं को भी पूरी तरह नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता."

साल 2019 के बाद, यानी गोटाबाया राजपक्षे के राष्ट्रपति पद संभालने के बाद से श्रीलंकाई मीडिया में जिस एक टर्म का काफ़ी इस्तेमाल हुआ - वो था 'सत्ता का सैन्यीकरण'.

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि गोटाबाया ख़ुद सेना अधिकारी रहे थे. साल 2005 से 2015 तक वो देश के रक्षा मंत्री भी रहे. 2019 में जब वो राष्ट्रपति चुने गए, तब प्रमुख प्रशासनिक पदों पर कम से कम 28 सेवारत या पूर्व सैन्य और ख़ुफिया कर्मियों की नियुक्ति की गई.

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English summary
restraint of the army amidst the turmoil in Sri Lanka
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