राजनाथ सिंह ईरान पहुँचे, वजह चीनी तनाव या अमरीकी चुनाव?
पहली नज़र में भले ही ये दो देशों के रक्षा मंत्रियों की सामान्य मुलाकात लगे लेकिन अंतरराष्ट्रीय मामलों पर नज़र रखने वाले विश्लेषक इस मुलाकात के दूरगामी निष्कर्ष निकाल रहे हैं.
भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जब 5 सितंबर को ट्वीट करके बताया कि वो रूस से लौटते हुए ईरान जाएंगे तब ये कई लोगों के लिए हैरत भरा कदम था.
ऐसा इसलिए क्योंकि राजनाथ सिंह का तीन दिवसीय रूस दौरा पहले से तय था लेकिन उनके ईरान रुकने के बारे में सार्वजनिक तौर पर कोई जानकारी नहीं थी.
भारत-चीन सीमा तनाव और ईरान-चीन की बढ़ती नज़दीकियों के बीच दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों की मुलाक़ात ने इसलिए सुर्खियाँ भी बटोरी.
Leaving Moscow for Tehran. I shall be meeting the Defence Minister of Iran, Brigadier General Amir Hatami.
— Rajnath Singh (@rajnathsingh) September 5, 2020
राजनाथ सिंह ने तेहरान में ईरानी रक्षा मंत्री ब्रिगेडियर जनरल आमिर हतामी से मुलाकात की. इसके बाद उन्होंने रविवार को ट्वीट किया, "ईरानी रक्षा मंत्री के साथ मुलाकात बहुत सार्थक रही. हमने अफ़गानिस्तान समेत क्षेत्रीय सुरक्षा के कई मुद्दों पर द्विपक्षीय सहयोग के बारे में चर्चा की."
पहली नज़र में भले ही ये दो देशों के रक्षा मंत्रियों की सामान्य मुलाकात लगे लेकिन अंतरराष्ट्रीय मामलों पर नज़र रखने वाले विश्लेषक इस मुलाकात के दूरगामी निष्कर्ष निकाल रहे हैं.
Had a very fruitful meeting with Iranian defence minister Brigadier General Amir Hatami in Tehran. We discussed regional security issues including Afghanistan and the issues of bilateral cooperation . pic.twitter.com/8ZENfAgRPS
— Rajnath Singh (@rajnathsingh) September 6, 2020
चीनी तनाव या अमरीकी चुनाव कनेक्शन?
कई वर्षों तक ईरान में रह चुके और देश के आंतरिक मामलों की गहरी समझ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राकेश भट्ट कहते हैं कि एक तरफ़ भारत-चीन सीमा पर लंबे वक़्त से तनाव चल रहा है और दूसरी तरफ़ ईरान और चीन के बीच 400 अरब डॉलर की डील हुई है.
"ऐसे में भारत अपने पारंपरिक पार्टनर ईरान को चीन के हाथों खोना नहीं चाहता. ईरान भी चीन या किसी दूसरे देश की छत्रछाया में नहीं रहना चाहता. इसलिए भारत और ईरान दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत है. भारतीय और ईरानी रक्षा मंत्री की इस ताज़ा मुलाकात के पीछे यही कारण है."
राकेश भट्ट इस मुलाक़ात को आगामी अमरीकी चुनावों से जोड़कर भी देखते हैं.
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उन्होंने बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहा, "अगर अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार बनती है और जो बाइडन सत्ता में आते हैं तो ईरान समेत पूरे मध्य पूर्व में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा. ऐसा माना जा रहा है कि बाइडन अमरीका को बराक ओबामा वाले दौर में ले जाने की कोशिश करेंगे. ये भी संभव है कि वो ईरान परमाणु समझौते को दोबारा अस्तित्व में लाने का प्रयास करेंगे."
राकेश भट्ट का मानना है कि अगर परमाणु समझौते के दोबारा क़ायम होने पर भारत ईरान की ओर लौटेगा तो इसके बहुत अच्छे नतीजे नहीं होंगे क्योंकि ईरान को भारत जैसे देशों की ज़रूरत अभी सबसे ज़्यादा है.
साल 2015 में छह देशों के साथ हुए परमाणु समझौते के तहत ईरान को अपना परमाणु संवर्धन कार्यक्रम रोकना पड़ा था और बदले में उसे इसके बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, अमरीका और यूरोपीय संघ की पाबंदियों से राहत मिली थी. लेकिन साल 2018 में डोनाल्ड ट्रंप ने अमरीका को इस समझौते से अलग कर लिया था. मई 2019 में अमरीका ने ईरान पर पाबंदियाँ और कड़ी कर दीं और साल 2020 में यह समझौता पूरी तरह टूट गया.
मध्य पूर्व मामलों के जानकार क़मर आग़ा भी अमरीकी चुनाव वाले तर्क से काफ़ी हद तक सहमत नज़र आते हैं. हालांकि वो कहते हैं कि भारत और अमरीका के बीच आपसी सहयोग पर आधारित रिश्ते हैं.
इसलिए अमरीका में चाहे रिपब्लिकन की सरकार हो या डेमोक्रेटिक, भारत को इससे बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा. हां, अमरीका में सत्ता परिवर्तन से ईरान पर गहरा असर ज़रूर पड़ेगा.
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लेकिन एक तरफ़ जहाँ ईरान और चीन में करीबी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है वहीं मौजूदा समय में भारत और चीन के बीच तनाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है. ऐसी स्थिति में भारत और ईरान एक-दूसरे का साथ कैसे निभा पाएंगे?
इस सवाल के जवाब में क़मर आग़ा कहते हैं, "भारत ये कभी नहीं चाहेगा कि ईरान, चीन और पाकिस्तान एक साथ आ जाएं क्योंकि ये उसके लिए बेहद नुक़सानदेह होगा. वहीं, ईरान कभी नहीं चाहेगा कि उसका पारंपरिक और महत्वपूर्ण सहयोगी रहा भारत उसके ख़िलाफ़ लंबे वक़्त के लिए अमरीका या पश्चिमी देशों के पाले में चला जाए. इसलिए सभी चुनौतियों के बावजूद दोनों देशों के लिए एक-दूसरे का साथ निभाने के अलावा कोई ख़ास विकल्प नहीं है."
सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान जैसे मध्य पूर्व के देशों में भारत के राजदूत रह चुके तलमीज़ अहमद राजनाथ सिंह की मुलाकात को अमरीकी चुनावों से जोड़कर नहीं देखते.
उनका मानना है कि अगर अमरीका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार आ भी गई थी ट्रंप के फ़ैसलों से हुए नुक़सान की भरपाई करना और ईरान के प्रति रुख बदलना इतना आसान नहीं होगा क्योंकि वहां ईरान-विरोधी कई गुट सक्रिय हैं.
तमलीज़ अहमद राजनाथ सिंह के अपने ईरानी समकक्ष से जल्दबाजी में हुई मुलाकात की दो प्रमुख वजहें बताते हैं
· भारत की ईरान से दूरी- तलमीज़ अहमद साफ़ कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से भारत ने अमरीकी प्रतिबंधों के दबाव में आकर ईरान से ख़ुद को पूरी तरह दूर कर लिया था. कभी तेल के लिए ईरान का दूसरे नंबर का आयातक देश रहा भारत उससे तेल लेना अब लगभग बंद कर चुका है. 2018-19 के मुकाबले 2019-20 में भारत और ईरान के बीच द्विपक्षीय व्यापार 70 फ़ीसदी से भी ज़्यादा कम हो गया. 2018-19 में जहां ये 17.3 बिलियन डॉलर था, 2019-20 में घटकर ये 4.77 बिलियन डॉलर हो गया. चाबहार रेल प्रोजेक्ट के काम में इस कदर देरी हुई कि ईरान ने भारत को इससे अलग कर दिया.
· भारत-चीन तनाव- एक तरफ़ जहाँ भारत और चीन में तनाव बढ़ा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ़ ईरान, चीन, रूस और पाकिस्तान करीब आ रहे हैं. चीन और ईरान ने अगले 25 वर्षों के लिए 400 अरब डॉलर का समझौता किया है जिसमें आर्थिक, सामरिक, सुरक्षा और ख़ुफ़िया सहयोग की बात है. चीन और रूस का रिश्ता भी गहरा हो रहा है. इसके अलावा रूस ने ईरान के साथ रक्षा और आर्थिक सहयोग बढ़ा दिया है. अमरीका से अच्छे सम्बन्ध न रखने वाले तीनों देश यानी चीन, रूस और ईरान साथ आ रहे हैं. दुनिया के नक़्शे पर देखें तो भारत के उत्तर और उत्तर-पश्चिम में एक 'रणनीतिक गुट' बन रहा है. ऐसे में भारत का ईरान की ओर वापस जाना स्वाभाविक था.
तलमीज़ अहमद कहते हैं कि मीडिया में भले ही कहा जा रहा हो कि राजनाथ सिंह ने फ़ारस की खाड़ी में व्याप्त अस्थिरता से चिंतित होकर और अफ़गानिस्तान की सुरक्षा के मद्देनज़र यह मुलाक़ात की है लेकिन असल में इसकी पृष्ठभूमि भारत-ईरान के कमज़ोर पड़ चुके रिश्तों में है.
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चाबहार प्रोजेक्ट का क्या होगा?
इस साल जुलाई में ख़बर आई थी कि ईरान ने चाबहार रेल प्रोजेक्ट से भारत को अलग कर दिया है. उसने इसकी वजह भारत की ओर से फंड मिलने में देरी को बताया था.
हालांकि बाद में ईरान ने इस ख़बर का खंडन भी किया था. फ़िलहाल, चाबहार रेल प्रोजेक्ट से भारत आज की तारीख़ में जुड़ा है या नहीं - इसे लेकर दोनों ही पक्षों ने कोई ठोस जवाब नहीं दिया है.
अब इस प्रोजेक्ट का भविष्य क्या होगा? इस सवाल के जवाब में तमलीज़ अहमद कूटनीतिक के बजाय ज़मीनी हक़ीक़त की ओर ध्यान दिलाते हैं.
अगर ज़मीनी हक़ीक़त देखें तो भारत और ईरान ने साल 2003 में इस प्रोजेक्ट पर सहमति जताई थी. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान, रूस और मध्य एशिया की तरफ़ कुछ और कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट शुरू करने पर सहमति जताई गई थी.
यानी भारत के लिए रणनीतिक रूप से अहम ये परियोजनाओं चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट से कहीं पहले अस्तित्व में आ गई थीं. लेकिन इसके बाद 2016 से पहले तक इस परियोजना में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई.
तमलीज़ अहमद कहते हैं, "साल 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ज़रूर इसे आगे बढ़ाने की कोशिश की लेकिन फिर अमरीका में ट्रंप के आते ही ईरानी प्रतिबंध भारत पर हावी हो गए."
तमलीज़ अहमद का मानना है कि 17 साल तक भारत का इंतज़ार करने के बाद ईरान अब भी उसकी आस में बैठे, ऐसा मुश्किल लगता है.
उन्होंने कहा, "ईरान ने भले ही सार्वजनिक तौर पर चाबहार प्रोजेक्ट से भारत को अलग करने की बात न स्वीकारी हो लेकिन मुझे लगता है कि अब यहां चीन की भूमिका का विस्तार ज़रूर होगा."
वजह चाहे जो भी हो ईरान और भारत के बीच अच्छे संबंधों में ये दौरा भी एक अहम पड़ाव ही माना जाएगा.