नज़रिया: ओमान को मनाने में कामयाब होगा भारत?
भारत के लिए क्यों ज़रूरी है ओमान से दोस्ती मजबूत करना.पढ़ें ए के पाशा का नज़रिया.
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीन देशों की अपनी चार दिवसीय यात्रा में रविवार को दुबई से होते हुए ओमान पहुंचे.
9 फ़रवरी से शुरू हुई इस यात्रा में मोदी पहले जॉर्डन पहुंचे. फिर वहां से वो फ़लस्तीन के रामल्लाह गए. उसके बाद दुबई में वर्ल्ड गवर्नमेंट समिट में शिरक़त की.
मोदी ने ओमान के सुल्तान कबूस बिन सैद अल-सैद से भी मुलाक़ात की.
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ओमान के साथ भारत के रिश्ते काफ़ी पुराने और मज़बूत रहे हैं. लेकिन क्या भारत के लिए ओमान अहमियत रखता है?
इस सवाल पर बीबीसी संवाददाता मानसी दाश ने जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और मध्य पूर्व मामलों के विशेषज्ञ एकेपाशा से बात की.
पढ़ें, ए के पाशा का नज़रिया:
पहली बात ये कि ओमान से भारत के पुराने और ऐतिहासिक व्यापार रिश्ते हैं.
दूसरी बात ये कि जब ओमान के सुल्तान कबूस बिन सैद अल-सैद ने जुलाई, 1970 में सत्ता अपने हाथों में ली तो उस वक़्त दो ही मुल्क़, सिर्फ़ भारत और ब्रिटेन के साथ ही उनके कूटनीतिक रिश्ते बने.
1971 की बांग्लादेश जंग में ओमान वाहिद मुस्लिम देश था या अरब देश था जिसने भारत का समर्थन किया.
उसने संयुक्त राष्ट्र में भी भारत का उस वक़्त समर्थन किया जब सऊदी अरब, ईरान, जॉर्डन सब सुल्तान कबूस से नाराज़ थे. लेकिन वो अड़े रहे और भारत के पक्ष में खड़े रहे.
1970 से भारत और ओमान के बीच लगातार कूटनीतिक, राजनीतिक, व्यापार और नौसैनिक सहयोग जारी रहा.
ओमान ने ईरान, ब्रिटेन और जॉर्डन को साथ लेकर जून 1975 में यमन के विद्रोह को ख़त्म किया.
इसके बाद ही ओमान ने आर्थिक विकास का काम शुरू किया जिसके तहत साक्षरता और ढांचागत विकास में भारतीय कंपनियों ने अहम भूमिका अदा की. नौसेना और सैन्य अधिकारियों के प्रशिक्षण में भी भारत ओमान की मदद करता रहा है.
ओमान भारत से और गहरे सुरक्षा संबंध चाहता था.
ईरानी क्रांति के बाद इस्लामी शासन के प्रभाव से ओमान बचना चाहता था क्योंकि उसकी आबादी में 60 फ़ीसदी आबादी है और 40 फ़ीसदी सुन्नी हैं.
वो सऊदी अरब और ईरान के बीच खिंचना नहीं चाहता था तो उसने फ़ैसला किया कि वो ईरान के साथ रहेगा.
ईरान के परमाणु कार्यक्रम के लिए उन्होंने ही मध्यस्थता की और 2015 में हुए समझौते में उनका काफ़ी योगदान रहा.
नाराज़ क्यों है ओमान?
पाकिस्तान के साथ भी ओमान के ताल्लुकात तो हैं लेकिन उतने गहरे नहीं हैं जितने भारत के साथ हैं. लेकिन कुछ बातों पर ओमान भारत से नाराज़ भी था.
जब प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री थे उस दौरान उन्होंने वादा किया था कि ओमान के साथ रक्षा सहयोग बढ़ाया जाएगा, लेकिन इस दिशा में कोई ख़ास प्रगति नहीं हुई.
वो वहां पर हथियारों की कंपनियां लगाना चाहते थे और ट्रांसफ़र ऑफ़ टेक्नोलॉजी चाहते थे लेकिन किसी कारणों से भारत ने वो नहीं किया.
साल 2004 में अंतर्राष्ट्रीय समझ-बूझ के लिए जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार ओमान के सुल्तान को दिया जाना था जिसे लेने के लिए वो भारत आने वाले थे.
लेकिन कुछ गलतफहमी की वजह से उन्हें पर्सनल न्योता नहीं दिया गया बल्कि राजदूत के ज़रिए उन्हें ये अवॉर्ड भेज दिया गया था. वो इस बात पर काफ़ी नाराज़ हुए और भारत के गणतंत्र दिवस के लिए भारत नहीं आए.
उसके बाद से कुछ ख़ास राजनीतिक रिश्ते नहीं रहे दोनों देशों में. इसे अब प्रधानमंत्री मोदी दोबारा ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं.
भारत की उम्मीदें
समंदर में सुरक्षा के मामले में ओमान भारत की मदद करता आया है. एडन की खाड़ी और सोमालिया में समुद्री लुटेरों से हमारे जहाज़ बचाने में वो हमारे नौसेना को अपने बंदरगाहों में सुविधाएं देते हैं.
वहां पर इफ़को के बनाए एक फ़र्टिलाइज़र प्लांट को वो गैस मुहैया कराते हैं और फ़ैक्ट्री में बना काफ़ी सामान भी खरीदते हैं.
यमन में जो गृहयुद्ध चल रहा है उससे भारत काफ़ी चिंतित है क्योंकि बाब अल मंदेब जलडमरूमध्य है (जिबूती, सऊदी अरब, सूडान, सोमालिया और यमन के बीच का संकरा रास्ता). यदि दक्षिण यमन उत्तर यमन से अलग हो जाता है तो वहां समुद्री लुटेरों का ख़तरा बढ़ जाएगा. इस मामले में भारत को ओमान की मदद चाहिए होगी.
चिंता का एक और विषय ये है कि वहां के सुल्तान कबूस का स्पष्ट तौर पर कोई उत्तराधिकारी नहीं है. सोमालिया और यमन से लेकर ओमान तक अगर उनके रिश्तेदार ताकतवर रहे और इस इलाक़े में स्थिरता रही तो इसका असर हमारे व्यापार और समुद्री सुरक्षा पर पड़ेगा.
मोदी ये जानने के लिए भी वहां गए हैं कि क्या स्थिति उभर रही है.
ओमान पहला मुल्क था जिसने रक्षा सहयोग के लिए सबसे पहले हाथ बढ़ाया था लेकिन हमने उनकी बात नहीं मानी और वो नाराज़ भी थे भारत से.
अब देखना ये है कि भारत ओमान के साथ फिर से एक बार हाथ मिलाने में कितना कामयाब हो पाएगा.
चार भारतीय प्रधानमंत्री जा चुके हैं ओमान
1985 में राजीव गांधी, 1993 में पीवी नरसिम्हा राव, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी और 2008 में मनमोहन सिंह ओमान का दौरा कर चुके हैं.
1996 में पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा और 1999 में पूर्व उप राष्ट्रपति कृष्ण कांत ने भी ओमान का दौरा किया था.
ओमान के सुल्तान कबूस बिन सैद-अल-सैद भी 1997 में भारत आए थे. उस वक़्त एचडी देवेगौड़ा भारत के प्रधानमंत्री थे.