क्या पाकिस्तान चाहकर भी इसराइल से दोस्ती नहीं कर पा रहा
एक विश्लेषक के मुताबिक़ पाकिस्तान में ये सोच महत्वपूर्ण रही है कि मुस्लिम उम्मा या सारी दुनिया के मुसलमान आपस में जुड़े हुए हैं और पाकिस्तान उसके केंद्र में है. स्कूलों में भी पढ़ाया जाता रहा है कि पाकिस्तान का अरब देशों से संबंध रहा है "क्योंकि जब अरब यहां आए, उन्होंने यहां राज किया तो मुसलमान उनकी औलाद हैं. ये माइंडसेट है.
क्या पाकिस्तान इसराइल के साथ संबंध स्थापित कर सकता है?
पाकिस्तान टीवी पर आजकल ये बहस गर्म है.
एक टीवी चैनल पर कार्यक्रम की शुरूआत में एंकर ने कहा, 'पाकिस्तान और इसराइल के बीच ताल्लुकात की बहस बढ़ती जा रही है… हुकूमत की तसदीक (समर्थन) के बावजूद पाकिस्तान की इसराइल को तसलीम करने (मान्यता देने) की ख़बरें क्यों फैल रही हैं?'
एक दूसरे कार्यक्रम में एक गेस्ट ने कहा, "आप अमरीका से, रूस से फ़्रांस से, जर्मनी से, यानी जो काफ़िर मुल्क हैं, उनसे क्या उम्मीद रखें, आप देखें कि अबू धाबी ने, जो उनका सबसे बड़ा सिविल अवॉर्ड है, वो उन्होंने मोदी को दे दिया है."
पाकिस्तान में ये बहस नई नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर पर भारत के क़दम को लेकर पाकिस्तान के स्टैंड को उम्मीद के मुताबिक़ अंतरराष्ट्रीय समर्थन नहीं मिलने से पाकिस्तान में निराशा है.
पाँच अगस्त को भारत ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी कर वहां इंटरनेट, टेलिफ़ोन कनेक्शन काट कर सुरक्षा व्यवस्था बेहद कड़ी कर दी.
उधर संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और बहरीन जैसे मध्य-पूर्व के देशों ने कश्मीर पर पाकिस्तान के स्टैंड का समर्थन करने के बजाय भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सम्मानित किया. इससे पाकिस्तान में ग़ुस्सा बढ़ा.
एक विश्लेषक के मुताबिक़ पाकिस्तान में ये सोच महत्वपूर्ण रही है कि मुस्लिम उम्मा या सारी दुनिया के मुसलमान आपस में जुड़े हुए हैं और पाकिस्तान उसके केंद्र में है. स्कूलों में भी पढ़ाया जाता रहा है कि पाकिस्तान का अरब देशों से संबंध रहा है "क्योंकि जब अरब यहां आए, उन्होंने यहां राज किया तो मुसलमान उनकी औलाद हैं. ये माइंडसेट है."
ऐसे में अरब देशों की ओर से कश्मीर पर पाकिस्तान के पक्ष में वक्तव्य तक न देने से इस सोच पर भी सवाल उठे.
पाकिस्तानी पत्रकार आसमा शिराज़ी के मुताबिक़ कश्मीर पर भारतीय क़दम के बाद "मुस्लिम उम्मा में ख़ामोशी थी. जिस तरह से (मध्य पूर्व के देशों) लोगों ने हिन्दुस्तान के साथ रवैया रखा, ज़रूर सवाल उठे हैं कि हम तो पूरी मुस्लिम उम्मा के ख़ातिर खड़े रहते हैं लेकिन हमारे लिए कोई नहीं खड़ा. यहां तक कि इसराइल के साथ सभी के ताल्लुक हैं."
वो कहती हैं, "कभी भी मुसलमानों के साथ कुछ हुआ है, तो पाकिस्तान में उसका असर ज़रूर दिखा है. लोगों के जज़्बात होते हैं, लोग सड़कों पर भी निकल आते हैं. चाहे वो रोहिंग्या का मसला हो, या फिर फ़लस्तीन का मसला हो. यौम-ए अल-कुद्ज़ पाकिस्तान के अंदर भी बहुत ज़ोर-शोर से मनाया जाता है. पाकिस्तान में कश्मीर को अपना मसला समझा जाता है. पाकिस्तान मुस्लिम उम्मा का केंद्र है, इसलिए इसराइल की भी ये ख़्वाहिश है कि पाकिस्तान इसराइल को तसलीम करे."
पाकिस्तानी पत्रकार कुंवर खुल्दून शाहिद के मुताबिक़ पाकिस्तान में एक पॉपुलर सोच रही है कि "नरेंद्र मोदी और बिन्यामिन नेतन्याहू दोनों दक्षिणपंथी हैं, दोनो की एक अलायंस है. एक कश्मीर में मुसलमानों पर ज़ुल्म कर रहा है और दूसरा फ़लस्तीन पर."
इसराइल के साथ पाकिस्तान के संबंध स्थापित करने पर ये ताज़ा बहस शुरू हुई पाकिस्तान सेना के नज़दीक माने जाने वाले पत्रकार और टीवी एंकर कामरान ख़ान की 25 अगस्त की एक ट्वीट के बाद.
इस ट्वीट में उन्होंने कहा, "अब ज़रूरी हो गया है कि कुटिल भारतीय सोच का मुक़ाबला पाकिस्तान निडर विदेश नीति से करे, जब हमारे सबसे अच्छे दोस्त नए दोस्त बना सकते हैं, तो हम इसराइल के साथ संबंधों पर बहस क्यों नहीं कर सकते."
पाकिस्तान सरकार में वरिष्ठ मंत्री फवाद चौधरी ने ट्वीट कर कहा "पाकिस्तान में कई लोगों को ईरान और अरब देशों को लेकर ज़्यादा चिंता है. नरेंद्र मोदी के इन देशों के साथ संबंधों से उन्हें सीख मिली होगी कि अपने देश से बड़ा कोई नहीं." हालांकि उन्होंने बाद में ट्वीट किया, इसराइल से संबंध का कोई सवाल नहीं.
एक बड़े पत्रकार और एक वरिष्ठ मंत्री के ट्वीट्स पर सवाल उठे कि क्या सरकार में इसराइल को लेकर ऐसी कोई सोच चल रही है?
ये भी माना जा रहा है कि मीडिया, टीवी टॉक शो में खुलेआम इस मुद्दे पर बहस का कारण भी सेना की हरी झंडी है.
लेकिन इससे पहले कुछ और बातें हुईं जिससे पाकिस्तान में बहस बढ़ी.
पिछले साल अक्तूबर में नेतन्याहू के गुप्त रूप से ओमान जाने की जाने की ख़बरें आई. उसी दौरान ऐसी खबरें भी आईं कि एक इसराइली जेट विमान पाकिस्तान में भी उतरा है. उससे ऐसी कयास लगे कि क्या कोई इसराइली नेता चुपचाप पाकिस्तान आया है, हालांकि पाकिस्तान की ओर से इसे ख़ारिज कर दिया गया.
उसके कुछ समय बाद पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का बयान आया कि पाकिस्तान इसराइल से 'सामान्य' संबंध चाहता है.
इसी साल मार्च में पाकिस्तान के सबसे बड़े और सम्मानित अख़बार 'डॉन' में सरकारी सूत्र के हवाले से ख़बर छपी कि इसराइल की मदद से भारत ने पाकिस्तान पर एक ख़तरनाक हमले की योजना बनाई थी. ये ख़बर बालाकोट हवाई हमले के ठीक बाद छपी थी.
इन ख़बरों से इलाके में इसराइल की भूमिका पर लोगों का ध्यान गया और पाकिस्तान में इस पर काफ़ी बहस हुई.
इसराइल और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संबंध नहीं हैं.
हालांकि, विश्लेषकों का मानना है कि मोसाद और आईएसआई लंबे समय से आपस में सहयोग करते रहे हैं.
फ़लीस्तिनियों के मानवाधिकारों और उनके लिए अलग देश की मांग को पाकिस्तान हमेशा से समर्थन देता रहा है.
उधर भारत और इसराइल के संबंध भी लंबे समय तक ढँके-छिपे रहे लेकिन साल 1992 में दोनों पक्षों ने पूरे राजनयिक संबंध स्थापित कर लिए और तबसे कई स्तरों पर ये संबंध तेज़ी से बढ़े हैं, खासकर रक्षा क्षेत्र में.
साल 1992 में भारत और इसराइल के बीच 20.0 करोड़ डॉलर का व्यापार था जो जनवरी 2018 तक बढ़कर पांच अरब डॉलर का हो गया.
पाकिस्तान में एक सोच रही है कि दुनिया को चलाने में कथित यहूदी लॉबी का असरदार रोल रहा है और इसराइल के साथ संबंध स्थापित करने से भारत को अमरीका सहित दुनिया में अपनी पकड़ मज़बूत करने में बहुत मदद मिली. फिर पाकिस्तान भी ऐसा क्यों न करे.
पाकिस्तान का जन्म जहां मुसलमानों के लिए अलग देश के तौर पर हुआ, वहीं यहूदियों के लिए देश के तौर पर इसराइल बना.
यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान ने इसराइल बनाए जाने का विरोध किया था.
कुंवर खुल्दून शाहिद बताते हैं कि जब इसराइल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन ने राजकीय संबंध स्थापित करने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को टेलीग्राम भेजा, तो जिन्ना ने उसका जवाब भी नहीं दिया.
वो कहते हैं, "पाकिस्तान का दावा था कि मुसलमानों के लिए जो भी मुकद्दस इबादतगाहें मौजूद हैं, वहां पर आप एक यदूही देश बना रहे हैं, इसलिए आज़ादी के शुरुआती 10 साल पाकिस्तान इसराइल का विरोध करने वाले इस्लामी देशों को लीड कर रहा था. इन देशों में अरब देश भी शामिल रहे. बाद में तुर्की से, मिस्र से इसराइल के रिश्ते बनते रहे. साल 1965 और 1971 में भारत पाकिस्तान के बीच इतनी बड़ी जंग के बावजूद इसराइल और अरब की जंग में अरबों की ओर से पाकिस्तान एयरफ़ोर्स शामिल थी जबकि हमारे पास न टाइम होना चाहिए था, न रिसोर्सेज़ होने चाहिए थे."
अरब देशों और इसराइल को लेकर पाकिस्तान की ये नीति लंबे समय तक जारी रही.
मुशर्रफ़ के दौर में कोशिश हुई इस नीति में बदलाव करने की.
ये मुशर्रफ़ का दौर था जब साल 2005 में खुले आम पाकिस्तान और इसराइल के विदेश मंत्रियों की पहली बार तुर्की में मुलाक़ात हुई.
बातचीत के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने कहा कि पाकिस्तान ने गज़ा से इसराइल की वापसी के बाद उससे बातचीत या 'इंगेज करने का' का फ़ैसला किया है.
हालांकि, पाकिस्तान ने इस बात पर ज़ोर दिया कि बातचीत का मतलब इसराइल को मान्यता देना बिल्कुल नहीं.
उस समय इसराइल के विदेश मंत्री रहे सिल्वान शैलोम ने उम्मीद जताई कि एक दिन ये बातचीत उस रास्ते पर ले जाएगी जिससे इसराइल के पूर्ण राजकीय रिश्ते पाकिस्तान और सभी मुस्लिम और अरब देशों से स्थापित हो जाएंगे.
पाकिस्तानी रक्षा मामलों की जानकार आयशा सिद्दीक़ा उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं, "उन दिनों सैफ़्मा या साउथ एशिया फ़्री मीडिया चलाने वाले इम्तियाज़ आलम ने कई सेमिनार किए थे. मैं भी एक में शामिल हुई थी और वहां कहा जाता था कि पाकिस्तान को इसराइल को मान्यता दे देनी चाहिए. मुशर्रफ़ के कमज़ोर होने से ये बात पीछे चली गई."
लेकिन पाकिस्तान में इसराइल को लेकर जिस तरह का विरोध है, पाकिस्तान के लिए इसराइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करना आसान न होगा.
पूर्व पाकिस्तान विदेश सचिव शमशाद अहमद ने बीबीसी से बातचीत में इन बातों को 'अफ़वाह' बताया जिसे ख़ारिज किया जा चुका है.
पाकिस्तानी पत्रकार कुंवर खुल्दून की मानें तो जिस तरह सऊदी अरब और इसराइल के संबंध तेज़ी से बेहतर हो रहे हैं, उनके बीच व्यापार बढ़ रहा है, हो सकता है कि सऊदी अरब इसराइल को मान्यता दे दे और ऐसे में पाकिस्तान भी ऐसा कर सकता है क्योंकि ऐसा करने के लिए उसके पास लोगों को बताने के लिए कोई कारण होगा.
लेकिन उसके बिना अगर कोई सोचता है कि पाकिस्तान अकेले ही इसराइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर ले तो ऐसा होता नहीं दिखता.
उधर आयशा सिद्दीक़ा सवाल उठाती हैं कि पाकिस्तान के साथ संबंध से इसराइल को क्या हासिल होगा?
वो पूछती हैं, "इसराइल आपके साथ ताल्लुकात क्यों अच्छे करेगा? पाकिस्तान की उम्मीद होगी कि इसराइल उसे कोई तकनीक ट्रांसफ़र करे. दूसरी उम्मीद होगी कि इसराइल हिंदुस्तान से क़दम पीछे खींचे और कश्मीर पर मदद न करे. पाकिस्तान को अंदाज़ा है इसराइल ये कर रहा है. सवाल ये उठता है कि इसराइल क्यों हिंदुस्तान की मदद नहीं करेगा? इसराइल को पाकिस्तान से ताल्लुकात बनाने हैं ईरान की खातिर. इसराइल को ईरान से ख़तरा महसूस होता है लेकिन मत भूलें पाकिस्तान में मुसलमानों की 21 फ़ीसद आबादी शिया है. अगर पाकिस्तान ने ऐसा किया तो इससे पाकिस्तान में जबरदस्त अस्थिरता आएगी."
आयशा के मुताबिक़ अगर पाकिस्तान और इसराइल राजनयिक संबंध स्थापित करते हैं तो ये आर्मी चीफ़ का फ़ैसला होगा लेकिन अभी फ़िलहाल ऐसा लगता है कि ये ख़बर सरकार का उड़ाया हुआ गुब्बारा है, ये देखने के लिए कि इसका असर आम जनता में क्या होता है.
वो कहती हैं, "ये बात जो उड़ाई गई है वो टेंपरेचर चेक करने के लिए की गई है. पाकिस्तान में एक सोच है कि यहूदी अमरीका को चला रहे हैं. ये एक लॉन्ग टर्म डेस्पेरेशन है कश्मीर के लिहाज़ से नहीं, अमरीका के हवाले से, कि अगर अमरीका से ताल्लुकात अच्छे करने तो हैं यहूदियों से ताल्लुकात अच्छे करो."
वो कहती हैं कि कई पाकिस्तानी हलकों में यहूदियों को दुश्मन की तरह पेश किया जाता है जिसका "हिंदू इंडिया" से अलायंस है, और ऐसे हालात में इसराइल पर यूटर्न लेना आसान नहीं.
फ़िलहाल तो यही लगता है कि पाकिस्तान का इसराइल को मान्यता देना और उसके साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित इतना आसान नहीं.