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कोरोना वायरस के कारण पाकिस्तान बहुत बड़े संकट की ओर बढ़ रहा है?

दुनियाभर की परंपरा है कि लोग जंग, संकट और दबाव के दौरान गठजोड़ कर लेते हैं. सब लोग राजनीतिक,सामाजिक और धार्मिक मतभेद को भुलाकर सब सरकार का साथ देते हैं. पूर्व में पकिस्तान पर जब भी परेशानी का समय आया जनता इसी तरह एक हो गई. साल 1965 में भारत के साथ जंग के दौरान विपक्ष ने जनरल अय्यूब ख़ान के साथ मतभेद भुलाकर उनका भरपूर साथ दिया.

By सोहेल वढ़ैच
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इमरान ख़ान
Facebook/PTIOfficial
इमरान ख़ान

दुनियाभर की परंपरा है कि लोग जंग, संकट और दबाव के दौरान गठजोड़ कर लेते हैं. सब लोग राजनीतिक,सामाजिक और धार्मिक मतभेद को भुलाकर सब सरकार का साथ देते हैं. पूर्व में पकिस्तान पर जब भी परेशानी का समय आया जनता इसी तरह एक हो गई.

साल 1965 में भारत के साथ जंग के दौरान विपक्ष ने जनरल अय्यूब ख़ान के साथ मतभेद भुलाकर उनका भरपूर साथ दिया. ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो शिमला एग्रीमेंट करने भारत गए तो विपक्ष के नेता ने उनसे मुलाक़ात करके उन्हें अपने पूरे समर्थन का यक़ीन दिलाया.

कश्मीर से जुड़ी जब भी कोई बड़ी घटना हुई तो पाकिस्तान के सभी राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक विचारधारा के मानने वालों ने सरकार की विदेश नीति पर सहमति दिखाई है. ऐसे ही जब कोरोना वायरस आया तो बिलावल भुट्टो ने कड़वाहट को भुलाकर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और सरकार का साथ देने का ऐलान किया. शाहबाज़ शरीफ़ और मुस्लिम लीग (नवाज़) भी इस काम में पीछे नहीं रहे.

शहबाज़ शरीफ़ लंदन से फ़ौरन वापस आये और अपनी सेवाएं दीं. मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान नए धरने के मूड में थे लेकिन कोरोना वायरस की वजह से उन्होंने विरोध रद्द करके अपनी चिंघाड़ती तोपें पूरी तरह से ख़ामोश कर लीं.

जमात ए इस्लामी के सिराजुल हक़ ने भी सरकार को अपने भरपूर समर्थन का यक़ीन दिलाया. विपक्ष की तरफ़ से इस समर्थन के बावजूद देश में एकता और अखंडता की हवा पैदा नहीं हो सकीं बल्कि एक तरह का तनाव नज़र आ रहा है.

शाहबाज़ शरीफ़

क्यों बढ़ी अराजकता?

एक तरफ़ कोरोना का क़हर है तो दूसरी तरफ़ समाज में राजनीतिक, सामाजिक और सार्वजनिक अराजकता बढ़ती हुई नज़र आ रही है.

राजनीतिक मतभेद की शुरुआत तो उसी दिन हो गयी जब इमरान ख़ान संसदीय कॉन्फ्रेंस से उठकर चले गए और इसकी प्रतिक्रिया में बिलावल भुट्टो और शाहबाज़ शरीफ़ ने वॉकआउट कर दिया था. मगर बात इसी राजनीतिक दरार और दूरी तक नहीं रुकी सामाजिक और सार्वजनिक तौर पर भी दो बड़े ग्रुप सामने आ गए हैं.

एक वो जो इमरान ख़ान और उनकी सरकार के ज़रिए किए गए कार्यों से संतुष्ट हैं और कह रहे हैं कि जो कुछ भी संभव था वो किया गया है.

वर्तमान सरकार इसे बड़ी अच्छी कारगर्दगी के तौर पर पेश कर रही है जबकि दूसरे ग्रुप की सोच इसके उलट है.

ये ग्रुप प्रधानमंत्री इमरान खान की कोरोना पॉलिसियों पर किसी भी सूरत विश्वास नहीं करता बल्कि ये भी कहता है कि इस प्रधानमंत्री के होते हुए बेहतरी की कोई गुंजाइश ही नहीं.

कोरोना संकट के समय पर उम्मीद थी कि राजनीतिक लीडरशिप में समर्थन की हवा बनेगी तो सामाजिक और सार्वजानिक तौर पर भी लोग आपस में जुड़ना शुरू हो जायेंगे मगर लीडरशिप के मतभेद के बाद लोगों के बीच दरार बहुत बढ़ गयी है.

तनाव बढ़ने की आशंका?

अगर सोशल मीडिया को लोगों के विचारों का प्रतिनिधि मान लिया जाए तो वहां इन दो ग्रुप में बात गाली गलौच तक पहुंच चुकी है और हैरान करने वाली बात ये है कि सरकार के समर्थक अधिक आक्रामकता का प्रदर्शन कर रहे हैं.

हर वो पत्रकार जो सरकार से असहमति दिखाता है, उसको गलियां दी जाती हैं. इस तरह के रवैयों पर ज़रूर प्रतिक्रिया होगी और समाज हिंसा के राह पर चल पड़ेगा.

अगर पकिस्तान में ये महामारी चलती रही तो पहले से चल रहा आर्थिक संकट बहुत ही खौफ़नाक रूप में बदल जायेगा. महंगाई और बेरोज़गारी में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी होगी ऐसी सूरत में सरकार और भी बदनाम हो जाएगी.

सरकार क्योंकि नासमझी का रवैया अपनाये हुए है और इस रवैये में दूर-दूर तक बदलाव की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती. इसलिए ये आशंका है कि वर्तमान सरकार जब भी बदलेगी या बदलाव के लिए विपक्ष कोई आंदोलन चलायेगा वो शांतिपूर्वक नहीं होगा बल्कि हिंसात्मक होगा.

यह आशंका साल 1977 के हालात को देखते हुए जताई जा रही है. उस समय भी लोग दो ग्रुप में बंट गए थे और हिंसात्मक रवैये सामने आए थे और फिर जिसका नतीजा साल 1977 का हिंसात्मक आंदोलन राष्ट्रीय एकता के रूप में निकला था.

बिलावल भुट्टो ज़रदारी

80 और 90 के दशक में कई सरकारें आईं और गईं लेकिन ये सब बदलाव शांति के साथ होते रहे क्योंकि जनता राजनीतिक तौर पर बंटे हुए होने के बावजूद शान्ति और एकता में यक़ीन रखती थी.

हिंसात्मक रवैये उस समय तक नहीं बढ़े थे मगर सोशल मीडिया पर हिंसात्मक रवैयों को देखकर ऐसा लग रहा है कि अगर सामंजस्य के लिए कोई बड़ा क़दम नहीं उठाया गया तो हम राजनीतिक गृह युद्ध की तरफ़ बढ़ते जायेंगे.

सही मायने में तो कोरोना संकट के दौरान रवैये बदलने चाहिए. वर्तमान सरकार को सुलह और सामंजस्य का फ़ायदा होता है जबकि विपक्ष को लड़ाई और सुलह में राजनीतिक फ़ायदा रहता है.

राजनीति का एक सिद्धांत है कि जब आप शासक बन जाएं तो आप विपक्ष और विरोधियों को भी ख़ुश रखने की कोशिश करें ताकि राजनीतिक तापमान एक हद से ज़्यादा न बढ़े. जबकि विपक्ष की कोशिश होती है कि राजनीतिक हलचल अधिक से अधिक होती जाए क्योंकि एक समय आता है कि सरकार उसे बर्दाश्त नहीं कर पाती और उसे घिर जाना पड़ता है.

पाकिस्तान
JAMAT E ISLAMI / TWITTER
पाकिस्तान

इमरान ख़ान की क़िस्मत साथ दे रही है?

इमरान ख़ान पिछले डेढ़ दो साल में बहुत खुशक़िस्मत रहे कि विपक्ष उनके लिए बड़ा चैलेंज खड़ा नहीं कर सका लेकिन अब कोरोना में विपक्ष के पास ख़ामोशी के अलावा कोई और चारा नहीं.

साफ़ लग रहा है कि जून तक सरकार और विपक्ष ऐसे ही चलते जायेंगे अलबत्ता बजट की मंज़ूरी के बाद राजनीतिक हालात करवट ले सकते हैं.

संवैधानिक तौर पर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पांच साल के लिए चुने गए हैं और शासन की मज़बूती के लिए उन्हें पूरे पांच साल मिलने भी चाहिए लेकिन प्रतिकूल माहौल में पाकिस्तान की संस्थाएं और राजनीतिक दल माहौल को इतना गर्म कर देते हैं कि सरकारों का बने रहना मुश्किल हो जाता है.

पाकिस्तान में लोकतंत्र अभी कमज़ोर है. संस्थाएं अपनी हद को पार कर जाती हैं. इसलिए जैसे ही विपक्ष और कोई ताक़तवर संस्था चाहे, फ़ौज हो या अदालत, आपस में किसी नतीजे पर पहुंचते हैं या बहुत ही नेक नीयत (इसको मापने का कोई पैमाना अभी नहीं मिला है) से वो ये समझते हैं कि सरकार देश के कामकाज चलाने में नाकाम है तो बदलाव का काम शुरू हो जाता है.

इमरान ख़ान की सरकार के लिए बजट तक का समय है कि वो विपक्ष और संस्थाओं से सुलह की राह आपनाए या फिर अपनी कारगर्दगी इतनी बेहतर बनाए कि कोई उनकी तरफ़ ऊँगली न उठा सके.

अगर ये दोनों काम न हुए तो फिर बदलाव का काम शुरू हो सकता है.

BBC Hindi
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English summary
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