इमरान ख़ान अफ़ग़ानिस्तान को क्या भारत से दूर ले जा रहे हैं?
पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच अनबन जितनी पुरानी है उतनी ही पुरानी भारत और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती है.
पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच अनबन जितनी पुरानी है, उतनी ही पुरानी भारत और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती है.
अफ़ग़ानिस्तान का भरोसा भारत पर हमेशा से रहा और यह पाकिस्तान को कभी अच्छा नहीं लगा. 2001 में अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका ने तालिबान को निशाना बनाया और नई सरकार बनवाई तब से पाकिस्तान वहां पैर जमाने की कोशिश कर रहा है.
19 नवंबर को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पहली बार अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर गए और इस दौरे को अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने ऐतिहासिक बताया है. इमरान ख़ान ने इस दौरे में कहा कि वो अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल करने के लिए सब कुछ करेंगे.
राष्ट्रपति गनी और प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को और मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया. राष्ट्रपति गनी ने प्रधानमंत्री इमरान ख़ान का क़ाबुल स्थित राष्ट्रपति भवन में गर्मजोशी से स्वागत किया.
इमरान ख़ान ने गनी के साथ संयुक्त प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा, "मैंने यह दौरा तब किया है जब अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा बढ़ी है. हम इस दौरे से संदेश देना चाहते हैं कि पाकिस्तान की सरकार और जनता अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल करने को लेकर गंभीर है."
"अगर अफ़ग़ानिस्तान को लगता है कि हम किसी भी मोर्चे पर शांति बहाल करने में मदद कर सकते हैं तो हमसे बेहिचक कहे. अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा के कारण पाकिस्तान भी बुरी तरह से प्रभावित रहा है."
हालांकि, इमरान ख़ान के इस दौरे को केवल शांति बहाल की कोशिश के तौर पर नहीं देखा जा रहा है बल्कि अफ़ग़ानिस्तान की वर्तमान सरकार और पाकिस्तान में बढ़ती क़रीबी के तौर पर भी देखा जा रहा है. क्या इमरान ख़ान की सरकार अफ़ग़ानिस्तान को भारत से दूर ले जाने में कामयाब हो रही है?
भारत और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती
2014 के मई महीने में अफ़ग़ानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करज़ई नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शरीक होने आए थे. नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान समेत सार्क के बाक़ी देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी आए थे. तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ थे. उसी दौरान अफ़ग़ानिस्तान के हेरात में भारत के वाणिज्य दूतावास पर हमला हुआ.
हामिद करज़ई ने नई दिल्ली में सार्वजनिक रूप से कहा, "मेरी सरकार का मानना है कि हेरात में भारत के वाणिज्यिक दूतावास पर हमला पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा ने किया है."
हामिद करज़ई को पता था कि पाकिस्तानी पीएम नवाज़ शरीफ़ भी दिल्ली में ही मौजूद हैं.
हडसन इंस्टिट्यूट में इनिशिएटिव ऑन द फ़्यूचर ऑफ इंडिया एंड साउथ एशिया की निदेशक अपर्णा पांडे ने अपनी किताब 'पाकिस्तान फ़ॉरन पॉलिसी: इस्केपिंग इंडिया' में लिखा है कि अफ़ग़ानिस्तान और भारत की दोस्ती को पाकिस्तान अपने अस्तित्व के लिए ख़तरे के रूप में लेता है.
इस किताब में अपर्णा पांडे ने लिखा है, "पाकिस्तान को अफ़ग़ानिस्तान और भारत की दोस्ती का डर हमेशा से सताता रहा है. उसकी स्थापना जिस विचारधारा पर हुई है उसमें वो भारत और अफ़ग़ानिस्तान को अपने अस्तित्व के लिए संकट के तौर पर देखता है. भारत और अफ़ग़ानिस्तान में पुरानी सभ्यताओं से संबंध रहा है. पाकिस्तान इस संबंध को अपने लिए ख़तरा समझता है."
"भारत के इस संबंध के सामने पाकिस्तान अपनी नस्ली और भाषिक पहचान को आगे करता रहा लेकिन यह कामयाब नहीं रहा. पाकिस्तान ने भाषिक और नस्ली पहचान के ऊपर धार्मिक राष्ट्रवाद को भी हावी करने की कोशिश की. ऐसा पहले बंगालियों और बाद में पश्तूनों-बलोचों के साथ किया लेकिन यह कोशिश नाकाम रही. भारत ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान का समर्थन किया और अलग बांग्लादेश बना. इसके बाद से पाकिस्तानी नेताओं के मन में डर बैठ गया कि भारत पाकिस्तान के और टुकड़े करना चाहता है.''
अफ़ग़ानिस्तान पश्तूनों और बलोचों के आंदोलन का समर्थन करता था. ऐसे में पाकिस्तान को भारत और अफ़ग़ानिस्तान की दोस्ती का डर और सताता है. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान दुनिया का इकलौता मुल्क था जिसने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के शामिल होने का विरोध किया था.
अफ़ग़ानिस्तान ने अफ़ग़ान-पाकिस्तान की सीमा निर्धारित करने वाली डूरंड लाइन को मानने से इनकार कर दिया था. इसी लाइन को दोनों देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा माना जाता है.
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1950-60 के दशक में पाकिस्तानी नेताओं ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ मिलकर एक फेडरेशन बनाने की कोशिश की थी. पाकिस्तान के पहले सैन्य शासक जनरल अयूब ख़ान मुस्लिम देश अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान और तुर्की के साथ इस फेडरेशन बनाने की कोशिश की थी. पाकिस्तान को लगता था कि इससे उसकी रणनीतिक समस्याएं सुलझ जाएंगी.
पाकिस्तान को लगता था कि अगर अफ़ग़ानिस्तान इस फेडरेशन में शामिल हो जाएगा तो वो पश्तूनों के अलगाववादी आंदोलन का समर्थन नहीं करेगा और साथ ही भारत की तुलना में अफ़ग़ानिस्तान में उसकी मौजूदगी बढ़ेगी. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान ने इस फेडरेशन में शामिल होने से इनकार कर दिया था.
अपर्णा पांडे ने लिखा है कि पाकिस्तान हर हाल में चाहता था कि अफ़ग़ानिस्तान में ऐसी सरकार हो जो पाकिस्तान समर्थक हो और भारत विरोधी हो. यह उसकी राष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय नीति दोनों के लिए ज़रूरी था. लेकिन पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान के नेताओं को यह समझाने में नाकाम रहा कि वो भारत विरोधी रवैया क्यों अपनाएं?
पाकिस्तान जब अफ़ग़ानिस्तान को समझाने में नाकाम रहा तो तो उसने दूसरी रणनीति अपनाई और 1970 के दशक से वैसे समूहों का समर्थन शुरू कर दिया जो वहां की सरकार को अस्थिर कर उसके लिए काम करे. पाकिस्तान को लगता था कि ये समूह कभी न कभी सत्ता में आएंगे और भारत के ख़िलाफ़ काम करेंगे.
इस नीति के तहत पाकिस्तान ने पहले इस्लामिस्ट पश्तूनों का समर्थन किया जो राष्ट्रवादी पश्तूनों का मुक़ाबला कर सकें. पाकिस्तान ने जमात-ए-इस्लामी अफ़ग़ानिस्तान ऑफ बुर्हानुद्दीन रब्बानी और हिज़्ब-ए-इस्लामी ऑफ़ गुलबुद्दीन हेकमत्यार का समर्थन शुरू किया. ऐसा उसने अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले से पहले शुरू कर दिया था. तब अमेरिका ने भी पाकिस्तान की कोई मदद नहीं की थी.
पाकिस्तान ऐसा सोवियत संघ के जाने और 1990 के दशक में अमेरिकी हित ख़त्म होने के बाद तक करता रहा. इन सालों में पाकिस्तान ने 1980 के दशक में अफ़ग़ान मुजाहिद्दीन का समर्थन किया. 1990 के दशक में तालिबान का समर्थन करना शुरू किया. बाद में तालिबान हक़्क़ानी नेटवर्क से भी जुड़ा और पाकिस्तान से इसका भी संबंध रहा.
भारत और अफ़ग़ानिस्तान का संबंध 1950 के दशक की शुरुआत में मैत्री संधि पर हस्ताक्षर के साथ शुरु हुआ. इसके अलावा, दोनों देशों में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध की भी समृद्ध बुनियाद रही है. आज की तारीख़ में भारत अफ़ग़ानिस्तान में सबसे बड़ा क्षेत्रीय डोनर है. अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई और विदेश मंत्री रहे अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने भारत से ही पढ़ाई की है.
भारत अफ़ग़ानिस्तान में विकास के कई काम कर रहा है. आधारभूत संरचना से जुड़े कई बड़े काम किए हैं. इनमें संसद की इमारत से लेकर कई बांध और रोड तक शामिल हैं. भारत अफ़ग़ानिस्तान के सैन्य अधिकारियों को ट्रेनिंग भी देता है और यहां तक कि भारत ने ही अफ़ग़ानिस्तान की क्रिकेट टीम खड़ी की.
दोनों देशों के संबंध की अहम कड़ी पारस्परिक हित तो हैं ही पर अफ़ग़ानिस्तान भारत के लिए मध्य एशिया का गेटवे है. मध्य एशिया के बाज़ारों तक पहुंच और ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति के लिए अफ़ग़ानिस्तान अहम देश है. हालांकि, पाकिस्तान दोनों देशों के ट्रांजिट रूट इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देता है ऐसे में व्यापार ईरान के ज़रिए करना पड़ता है.
अब्दुल्ला अब्दुल्ला की तुलना में अफ़ग़ानिस्तान के वर्तमान राष्ट्रपति अशरफ़ गनी को पाकिस्तान अपने क़रीब समझता रहा है. इसकी वजहें भी हैं. डॉ अब्दु्ल्ला अहमद शाह मसूद के क़रीबी रहे हैं जिन्होंने तालिबान के ख़िलाफ़ नॉर्दन एलायंस का नेतृत्व किया था. अहमद मसूद अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर सवाल उठाते रहे हैं.
अब्दुल्ला अब्दुल्ला ताजिक हैं. वो पश्तून नेता नहीं हैं और उन्होंने भारत में कई साल बिताए हैं. ऐसे में उन्हें भारत का समर्थक समझा जाता है. दूसरी तरफ़ डॉ गनी एक पश्तून नेता हैं और भारत के साथ उनके इस तरह के संबंध नहीं रहे हैं.
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि अशरफ़ गनी पाकिस्तान से ज़्यादा क़रीब रहे हैं. 2015 में ब्रिटिश अख़बार 'द गार्डियन' को दिए इंटरव्यू में मुशर्रफ़ कहा था कि जब वो राष्ट्रपति थे तो अफ़ग़ानिस्तान की हामिद करज़ई सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की थी क्योंकि हामिद भारत समर्थक थे और वो पाकिस्तान की पीठ में छुरा भोंक रहे थे.
मुशर्रफ़ ने अशरफ़ गनी के राष्ट्रपति बनने पर कहा था, "अब स्थिति बदल गई है. अशरफ़ गनी के साथ पाकिस्तान खड़ा है. जब तक हामिद करज़ई राष्ट्रपति रहे तब तक पाकिस्तान के हितों को चोट करते रहे. ज़ाहिर है कि हम अपने हितों की रक्षा के लिए काम करते हैं. अशरफ़ गनी के आने के बाद से अफ़ग़ानिस्तान ने ख़ुद को संतुलित किया है और पाकिस्तान उनके साथ पूरा सहयोग कर रहा है."
2001 में अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान पर हमले के बाद पाकिस्तान के लिए सबसे मुश्किल घड़ी रही. अफ़ग़ानिस्तान में 2001 से 2008 तक का वक़्त पाकिस्तान के लिए सबसे कठिन रहा. लेकिन सितंबर 2014 में अशरफ़ गनी के हाथों में अफ़ग़ानिस्तान की कमान आई तो उन्होंने न केवल भारत से हथियारों के सौदे को रद्द किया बल्कि पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान विरोधी लड़ाकों से निपटने के लिए अपने सैनिकों को भेजा.
मुशर्रफ़ को राष्ट्रपति अशरफ़ गनी का वो फ़ैसला बहुत अच्छा लगा था जिसमें उन्होंने अपने छह आर्मी कैडेट को ट्रेनिंग के लिए पाकिस्तान ऑफिसर एकेडमी में भेजा था. दूसरी तरफ़ हामिद करज़ई भारत के पक्ष में खुलकर खड़े रहे. करज़ई ने अपने सैनिकों को ट्रेनिंग के लिए भारत भेजा था. करज़ई का यह फ़ैसला मुशर्रफ़ के लिए झटके की तरह था. उन्हें लगता था कि अफ़ग़ानिस्तान के सैनिक पाकिस्तान विरोधी हो जाएंगे.
मुशर्रफ़ ने इस इंटरव्यू में कहा था कि पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने 2001 में तालिबान को राष्ट्रपति करज़ई के कारण मज़बूत किया. मुशर्रफ़ ने कहा था, "करज़ई की सरकार में ग़ैर पश्तूनों का बोलबाला था और यह सरकार भारत के साथ थी. ज़ाहिर है कि हम चाहते थे कि इस सरकार से मुक़ाबले के लिए किसी दूसरे समूह को खड़ा करें जो भारत को चुनौती दे सके. फिर हमने तालिबान से संपर्क किया."
राष्ट्रपति अशरफ़ गनी को लगता था कि वो पाकिस्तान की मदद से तालिबान को बातचीत की टेबल लाएंगे. लेकिन सत्ता संभालने के एक साल बाद गनी ने भी पाकिस्तान को लेकर निराशा ज़ाहिर की. 25 अप्रैल 2016 को गनी ने अफ़ग़ान संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि पाकिस्तान से वो तालिबान को बातचीत के लिए तैयार करने को लेकर कोई उम्मीद नहीं कर सकते.
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19 अप्रैल को काबुल में हुए हमले से गनी बहुत दुखी थे. इस हमले में दर्जनों लोग मारे गए थे और सैकड़ों लोग ज़ख़्मी हुए थे. इस हमले को गनी की नाकामी के रूप में देखा गया कि वो पाकिस्तान के क़रीब होकर भी उसे समझा नहीं पाए.
हालांकि, अब पाकिस्तान, तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत शुरू हो गई है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा अब भी थमी नहीं है. इससे पहले इमरान ख़ान ने सऊदी अरब और ईरान के बीच वार्ता कराने की कोशिश की थी लेकिन किसी ने तवज्जो नहीं दी थी. इमरान ख़ान ने अपने कई इंटरव्यू में कहा था कि वो सऊदी और ईरान के बीच की खाई पाटने के लिए मध्यस्थता की कोशिश कर रहे हैं.
पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार नजम सेठी को लगता है कि इमरान ख़ान की कोई भी विदेश नीति प्रभावी नहीं रही है. उन्होंने नया दौर के एक कार्यक्रम में 19 नवंबर को कहा कि इमरान ख़ान के साथ आज की तारीख़ में न तो सऊदी अरब खड़ा है न यूएई.
सेठी ने कहा, "आप ईरान के साथ खड़ा होकर क्या हासिल कर लेंगे? वहां से पाकिस्तान को क्या मिलना है? मिलना तो सऊदी, यूएई, यूरोप और अमेरिका से था लेकिन सब से रिश्ते ख़राब हैं. मलेशिया का जो प्रधानमंत्री इनका समर्थन करता था वो अब सत्ता में नहीं हैं. ये मुस्लिम देशों के नेता बनना चाहते हैं लेकिन इनकी ये चाहत कुछ भी नहीं दिला पाएगी.''