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चीन क्या बना रहा है सुपर सैनिक? ऐसा हुआ तो क्या होगा

जेनेटिक के मामले में चीन पहले ही बहुत आगे निकल चुका है. क्या इस तकनीक का इस्तेमाल कर चीन ऐसे सैनिक बना लेगा जिनपर मौसम या दर्द का असर न हो?

By थॉम पूल
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Robotic soldiers are visualised
Getty Images
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क्या चीन 'कैप्टन अमेरिका' का अपना अलग वर्ज़न बना रहा है? अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने ऐसे संकेत दिये हैं. मगर प्रचार के परे, एक सुपर सैनिक की संभावना कोरी कल्पना मात्र नहीं है और सिर्फ़ चीन ही नहीं बल्कि कई दूसरे देश भी इसमें दिलचस्पी ले रहे हैं.

भारी निवेश और आगे रहने की इच्छा के दम पर दुनिया की सेनाएं तकनीकी नवाचार को प्रेरित करती रही हैं. इस इच्छा ने सिर्फ़ बेहद उन्नत ही नहीं, बल्कि मामूली चीज़ों को भी जन्म दिया है.

डक्ट टेप को ही ले लीजिए. इलेनोए की एक हथियार बनाने की फ़ैक्ट्री में काम करने वाले एक कर्मचारी के सुझाव पर इसका अविष्कार हुआ था. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इस कर्मचारी के बेटे नौसेना में काम कर रहे थे.

उस दौर में गोला बारूद के डिब्बों को पेपर टेप से चिपकाया जाता था. इसे इस्तेमाल करना आसान नहीं था.

वेस्ता स्टाउट ने वाटरप्रूफ़ कपड़े के टेप का सुझाव दिया. लेकिन वरिष्ठ कर्मचारियों ने उनके विचार को नकार दिया. उन्होंने राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को पत्र लिखा और फिर उनके इस विचार को हकीक़त में बदलने का आदेश दे दिया गया.

यदि सेना की ज़रूरत हमें अच्छी तरह से चिपकने वाला टेप दे सकती है, तो क्या नहीं दे सकती?

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BBC
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साल 2014 में एक नये प्रयास की घोषणा करते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पत्रकारों से कहा था कि 'मैं यहाँ ये घोषणा करने के लिए आया हूँ कि हम 'आयरन मैन' बनाने जा रहे हैं.'

उस वक़्त उनकी इस बात पर भले ही ठहाका लगा हो, लेकिन वो गंभीर थे. अमेरिकी सेना इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर चुकी है. सेना एक सुरक्षात्मक सूट बना रही है जिसे नाम दिया गया है 'टेक्टिकल असॉल्ट लाइट ऑपरेशन सूट' (टालोस).

वीडियो गेम की तरह लगने वाले इसके विज्ञापन वीडियो में एक सैनिक दुश्मन के सेल में घुसता दिखता है और गोलियाँ उसके शरीर से टकारकर इधर-उधर बिखर जाती हैं.

पर अमेरिकी सेना का 'आइरन मैन' नहीं बन सका. पाँच साल बाद ये प्रयास रोक दिया गया. लेकिन इसे बनाने वालों को उम्मीद है कि इसके अलग-अलग हिस्सों का कहीं और इस्तेमाल किया जा सकेगा.

अमेरिकी सेना का विज्ञापन वीडियो
USSOCOM
अमेरिकी सेना का विज्ञापन वीडियो

एक्सोस्केलेटन (शरीर के बाहर पहना जाने वाला ढांचा) उन कई तकनीकों में से एक है, जिन्हें सेनाएं अपने सैनिकों को और ताक़तवर बनाने के लिए आज़मा रही हैं.

प्राचीन काल से ही तरक्की (क्षमता बढ़ाना) कोई नई बात नहीं है. सेनाएं अपने सैनिकों को ताक़तवर और प्रभावी बनाने के लिए हथियारों, उपकरणों और उनकी ट्रेनिंग में निवेश करती रही हैं.

लेकिन आज के दौर में तरक्की का मतलब सिर्फ़ सैनिक को बेहतरीन बंदूक थमा देना नहीं है. इसका मतलब सैनिक को ही बदल देना भी हो सकता है.

साल 2017 में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने चेतावनी दी थी कि इंसान बहुत जल्द ही परमाणु बम से भी ख़तरनाक कोई चीज़ बना सकता है.

'हम कल्पना कर सकते हैं कि इंसान एक ऐसे इंसान का निर्माण कर सकता है जिसमें इच्छानुसार विशेषताएं होंगी. ये सिर्फ़ थ्योरी में नहीं, बल्कि ऐसा करना संभव होगा. वो एक जीनियस गणितज्ञ हो सकता है, एक शानदार संगीतकार हो सकता है या फिर एक ऐसा सैनिक हो सकता है जो डर, दया, दुख, अफ़सोस और दर्द के बिना लड़ सके.'

पिछले साल अमेरिका की नेशनल इंटेलीजेंस के पूर्व निदेशक जॉन रेटक्लिफ़ ने इससे भी आगे बढ़कर चीन पर आरोप लगाते हुए कहा था कि 'चीन पीपल्स लिब्रेशन आर्मी के सैनिकों की शारीरिक क्षमताएं बढ़ाने के लिए उन पर परीक्षण कर रहा है क्योंकि चीन की सत्ता की भूख के सामने कोई नैतिक सीमा-रेखा नहीं है.'

चीन ने इस लेख को झूठ का पुलिंदा कहा था.

जब अमेरिका की मौजूदा नेशनल इंटेलिजेंस डायरेक्टर एवरिल हेंस से इस बारे में पूछा गया तो उनके दफ़्तर की तरफ़ से जवाब दिया गया कि उन्होंने इस पर टिप्पणी नहीं की है. एवरिल ने चीन की तरफ़ से पेश ख़तरों पर कई बार बयान दिए हैं.

नए राष्ट्रपति जो बाइडन का प्रशासन भले ही ट्रंप के एजेंडे से पीछा छुड़ा रहा हो, लेकिन चीन के साथ तनाव अमेरिकी विदेश नीति की चुनौती बना रहेगा.

महत्वाकांक्षा बनाम वास्तविकता

सुरक्षा बलों में सुपर सैनिक का होना सेनाओं को रोमांचित करता रहा है. ऐसे सैनिक की कल्पना कीजिए जिसे दर्द ना हो, जिस पर बेहद ठंडे तापमान या नींद का असर ना हो.

लेकिन अमेरिका का 'आइरन मैन' बनाने का प्रयास दर्शाता है कि महत्वाकांक्षाओं की भी तकनीकी सीमाएं हैं.

अमेरिका के दो शोधार्थियों ने साल 2019 में प्रकाशित एक शोध में यह दावा किया था कि चीन की सेना जीन एडिटिंग और एक्सोस्केलेटन और मानव-मशीन सहयोग की संभावनाओं को तलाश रही है. चीन की सेना के रणनीतिकारों के बयानों को इस शोध का आधार बनाया गया था.

इस शोध की सह-लेखिका एल्सा कानिया रैटक्लिफ़ की टिप्पणी पर संदेह करती हैं.

सेंटर फ़ॉर न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी की फेलो एल्सा कानिया कहती हैं, 'चीन की सेना किन चीज़ों पर चर्चा कर रही है और किन्हें अमली जामा पहनाना चाहती है उसे समझना महत्वपूर्ण है. लेकिन महत्वकांक्षाओं और आज की तकनीक कहाँ खड़ी है, उसके फ़ासले को समझना भी ज़रूरी है.'

वे कहती हैं कि 'दुनियाभर की सेनाएं सुपर सैनिक की संभावना को साकार करना चाहती हैं, लेकिन अंत में वैज्ञानिक तौर पर क्या करना संभव है, ये उन लोगों की महत्वकांक्षाओं पर रोक ज़रूर लगाता है जो सीमाओं को पार कर देना चाहते हैं.'

रैटक्लिफ़ ने अपने लेख में वयस्क सैनिकों की जीन एडिटिंग का ज़िक्र किया था, लेकिन यदि गर्भ में ही किसी भ्रूण का जीन संशोधित कर दिया जाये तो उससे सुपर सैनिक के निर्माण की सबसे मज़बूत संभावना पैदा होगी.

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में मोलीक्यूलर जेनेटीसिस्ट डॉक्टर हेलेन ओ नील कहती हैं कि सवाल ये है कि क्या वैज्ञानिक इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं? सवाल ये नहीं है कि ये तकनीक संभव है या नहीं.

वे कहती हैं, 'जीनोम संशोधित करने और प्रजनन में सहायता की तकनीक ट्रांस्जेनिक्स और कृषि क्षेत्र में ख़ूब इस्तेमाल हो रही हैं. फ़िलहाल इंसानों में इन दोनों के इस्तेमाल को अनैतिक माना गया है.'

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BBC
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जेनेटिक तकनीक का इस्तेमाल

साल 2018 में चीन के वैज्ञानिक हे जियानकुई ने एक हैरान करने वाली घोषणा की थी.

उन्होंने गर्भ में भ्रूण का डीएनए संशोधित कर जुड़वा बहनों को एचआईवी संक्रमण से बचा दिया था.

उनके इस कारनामे पर दुनियाभर में आक्रोश ज़ाहिर किया गया था. चीन समेत दुनिया के अधिकतर देशों में इस तरह जीन को संशोधित करने पर रोक है.

अभी तक इस तकनीक का इस्तेमाल ऐसे भ्रूण पर ही किया गया है, जिन्हें तुरंत मार दिया जाता है और जिनका इस्तेमाल बच्चा पैदा करने के लिए नहीं किया जाता.

इस लेख के लिए जिन लोगों का साक्षात्कार किया गया, उनमें से कई का कहना है कि हे जियानकुई का मामला बायोएथिक्स (वैज्ञानिक नैतिकता) से जुड़ा अहम पड़ाव है.

वैज्ञानिकों का कहना है कि सिर्फ़ भ्रूण को एचआवी से ही नहीं बचाया गया था, बल्कि उसकी क्षमताएं भी बढ़ाई गईं थीं.

हे जियानकुई ने जुड़वा भ्रूण बनाने के लिए क्रिस्पर तकनीक का इस्तेमाल किया था.

इस तकनीक के ज़रिए जीवित कोशिकाओं का डीएनए बदल दिया जाता है. इससे उनके चरित्र से कुछ चीज़ों को मिटाया जा सकता है और कुछ को जोड़ा जा सकता है.

ये तकनीक बहुत आशाएं भी बंधाती हैं, संभवतः इसका इस्तेमाल अनुवांशिक बीमारियों को दूर करने के लिए किया जा सकता है. लेकिन सेना के लिए ये क्या कर सकती है?

फ्रांसिस क्रिक इंस्टीट्यूट लंदन में सीनियर रिसर्च साइंटिस्ट क्रिस्टोफ़े गेलीशे क्रिस्पर इस तकनीक को क्रांति कहते हैं.

लेकिन वे कहते हैं कि इसकी भी सीमाएं हैं. वो इसकी तुलना टेक्स्ट में 'फ़ांइड एंड रिप्लेस' टूल से करते हुए कहते हैं कि 'आप सटीक तरीके से शब्द तो बदल सकते हैं, लेकिन एक जगह जहाँ इसके सही मायने निकल सकते हैं, ये वहीं हो सकता है. वहाँ नहीं, जहाँ इसका कोई मतलब ना निकले.'

वे कहते हैं कि 'ये सोचना ग़लत है कि एक जीन बदलने से कोई एक ख़ास प्रभाव होगा. हो सकता है एक जीन निकाल लेने से आप एक ऐसे व्यक्ति का निर्माण कर लें जिसकी मांसपेशियाँ मज़बूत हों और जो ऊंचाई पर भी आसानी से साँस ले सके, लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि वो आगे चलकर कैंसर से पीड़ित हो जाये.'

'और कुछ ख़ासियतों को अलग करना भी मुश्किल है, उदाहरण के तौर पर कई जीन लम्बाई को प्रभावित करते हैं और अगर किसी विशेषता को बदला जाता है तो वो अगली पीढ़ियों को भी प्रभावित कर सकते हैं.'

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नैतिकता का सवाल

कुछ विश्लेषकों का मानना है कि चीन अमेरिका के जवाब में प्रयास कर रहा है.

द गार्डियन अख़बार में 2017 में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि अमेरिकी सेना जेनेटिक एक्सटिंक्शन टेक्नोलॉजी में करोड़ों डॉलर का निवेश कर रही है.

ये तकनीक आक्रामक प्रजातियों का सफ़ाया कर सकती है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों का मानना है कि इसके सैन्य इस्तेमाल भी हो सकते हैं.

इस दिशा में सिर्फ़ चीन और अमेरिका ही बढ़त हासिल करना नहीं चाहते हैं. फ्रांस में भी सेना को उन्नत सैनिकों के विकास की अनुमति दे दी गई है. हालांकि उन्हें नैतिक सीमाओं में रहने के दिशा-निर्देश भी दिये गए हैं.

रक्षा मंत्री फ़्लोरेंस पार्ले ने कहा था कि 'हमें तथ्यों का सामना करना ही होगा. हर किसी में हमारे जैसी नैतिकता की भावना नहीं है, लेकिन भविष्य की चुनौतियों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए.'

सर्द मौसम में प्रशिक्षण लेते ब्रितानी सैनिक
PA Media
सर्द मौसम में प्रशिक्षण लेते ब्रितानी सैनिक

भले ही वैज्ञानिक सुरक्षित तरीके से किसी व्यक्ति की विशेषताओं को परिवर्तित कर लें, लेकिन इस तकनीक के सैन्य इस्तेमाल की अपनी चुनौतियाँ रहेंगी.

उदाहरण के तौर पर क्या सेना के कमांड ढांचे के तहत काम करने वाला कोई सैनिक किसी ख़तरनाक ट्रीटमेंट के लिए पूरी तरह स्वतंत्र होकर अपनी रज़ामंदी दे पाएगा? रिपोर्टों के मुताबिक़, चीन और रूस ने कोविड-19 महामारी की वैक्सीन का परीक्षण अपने सैनिकों पर किया है.

ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी में एथिक्स (नैतिकता) मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर जूलियन सावूलेस्कू कहते हैं कि 'सेनाएं व्यक्तिगत सैनिकों के हितों को बढ़ावा देने के लिए नहीं होती हैं, उनका अस्तित्व ही रणनीतिक बढ़त हासिल करने या युद्ध जीतने के लिए होता है.'

'सैनिकों को आप किस स्तर के ख़तरे में डाल सकते हैं, इसको लेकर सीमाएं निर्धारित हैं, लेकिन उन्हें आम जनता से अधिक ख़तरों में तो डाला ही जाता है.'

प्रोफ़ेसर सावूलेस्कू कहते हैं कि किसी के लिए भी क्षमता बढ़ाने के ख़तरों का उससे होने वाले फ़ायदों से तुलना करना महत्वपूर्ण है.

'लेकिन ज़ाहिर तौर पर, सेनाओं के समीकरण अलग हैं, यहाँ व्यक्ति (सैनिक) को ख़तरा तो उठाना पड़ता है लेकिन फ़ायदा उसे नहीं मिलता.'

सैनिकों के सामने मरने-जीने की परिस्थितियां होती हैं, और ऐसा सोचा जा सकता है कि उनकी क्षमता बढ़ाने से उनके ज़िंदा रहने की संभावना को बढ़ाया जा सकता है.

लेकिन कैलिफ़ोर्निया पॉलीटेक्निक स्टेट यूनिवर्सिटी के दार्शनिक प्रोफ़ेसर पैट्रिक लिन कहते हैं कि ये इतना सरल भी नहीं है.

'मिलिट्री एनहेंसमेंट का मतलब ही है प्रयोग करना और अपने नागरिकों को ख़तरे में डालना. ऐसे में ये भी अस्पष्ट ही है कि अधिक सुरक्षित और क्षमता विकसित सैनिक कैसे होंगे. इसके ठीक उलट उन्हें और अधिक ख़तरनाक मिशन पर भेजा जा सकेगा या सामान्य सैनिकों के मुक़ाबले उन्हें लड़ने के अधिक मौक़े दिये जा सकेंगे.'

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'कैप्टन अमेरिका' का वास्तविक रूप हो सकता है नज़दीकी भविष्य में ना दिखे, लेकिन हैरान करने वाले विकास की संभावना तो हमेशा बनी ही रहती है.

प्रोफ़ेसर सावूलेस्कू कहते हैं कि 'सेना में चीज़ों का विकास कैसे होता है, उस पर नैतिक या लोकतांत्रिक नियंत्रण रखना बहुत मुश्किल है, क्योंकि राष्ट्रीय हित की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए ऐसे तकनीकी विकास हमेशा गुप्त ही रखे जाते हैं.'

ऐसे मे इस क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए या क्या किया जा सकता है? इस पर प्रोफ़ेसर लिन कहते हैं कि 'इसकी मुख्य चुनौती ये है कि ये एक दोहरे इस्तेमाल वाली रिसर्च है. उदाहरण के तौर पर एक्सोस्केलेटन शोध का शुरुआती मक़सद लोगों को बीमारी से निजात देना था, जैसे कि किसी लकवा मार गए व्यक्ति को चलने में मदद करना.'

चलता हुआ व्यक्ति
Fonds de dotation Clinatec
चलता हुआ व्यक्ति

लेकिन इस उपचारात्मक इस्तेमाल का आसानी से सैन्यकरण किया जा सकता है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि इसे कैसे रोका जाये.

इसका मतलब ये है कि ये स्पष्ट नहीं कि इसे कैसे नियंत्रित किया जाये, बिना अत्याधिक व्यापक विनियमन के, जो उपचारात्मक शोध को भी प्रभावित कर सकता है.

डॉक्टर ओ नील के मुताबिक़, जेनेटिक रिसर्च में चीन पहले ही आगे बढ़ चुका है और बाकी देश इस मामले में चीन से पीछे हैं.

वे कहती हैं, 'मुझे लगता है कि हमने आज की ज़रूरत पर ध्यान देने के बजाए नैतिक सवालों में अपना समय नष्ट कर दिया है.'

'अटकलों और द्वंद पर बहुत अधिक ऊर्जा ख़र्च की जा चुकी है, जबकि ऊर्जा वास्तविक ख़तरों और तकनीक का कैसे इस्तेमाल किया जाए इस पर ख़र्च की जानी चाहिए, ताकि हम उसे बेहतर तरीके से समझ सकें क्योंकि कहीं और तो ये होगा ही और हो भी रहा है. और सिर्फ़ शोध करते रहने से ही हमें ये पता चलेगा कि ये कहाँ गलत हो सकता है.'

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English summary
Is China making super soldiers? What will happen if this happens
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