आखिरकार इंडो-पैसिफिक का 'पावरहाउस' बन ही गया भारत, जानें कैसे दुनिया कर रही सलाम?
स्वतंत्रता हासिल करने के बाद भारत ने पश्चिम के लिए अपने बाजार नहीं खोले, बल्कि सरकार संचालित अर्थव्यवस्था के सहारे आगे बढ़ने का फैसला किया, जो अब एक परफेक्ट फैसला साबित हो रहा है।
India in Indo-Pacific: 1947 में आजादी हासिल करने वाले भारत जब कामयाबी के साथ दुनिया को लोकतंत्र की ताकत दिखा रहा है और बता रहा है, कि कैसे एक अरब 40 करोड़ लोगों की आबादी के साथ भी लोकतांत्रित रास्ते पर चला जा सकता है, उस वक्त एक बार फिर से भारत एशिया में वो ताकत बनकर ऊभर रहा है, जिसकी रफ्तार पिछले कुछ सालों में थोड़ी धीमी हो गई थी। आजादी के बाद पश्चिमी अर्थव्यवस्था के प्रति सतर्क रहे भारत ने उस वक्त अपनी बाजारों को खोलना शुरू कर दिया है, जब वो पूर्वी एशिया के बाजार का टाइगर बन चुका है। ऐसे में मोदी सरकार की उस नीति पर बात करना अब जरूरी हो गया है, जिसकी वजह से ना सिर्फ इंडो-पैसिफिक में भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र बनकर उभरा है, बल्कि भारत की इस ताकत को अब दुनिया मान भी रही है और सम्मान भी दे रही है।
सही समय पर सही कदम
स्वतंत्रता हासिल करने के बाद भारत ने पश्चिम के लिए अपने बाजार नहीं खोले, बल्कि सरकार संचालित अर्थव्यवस्था के सहारे आगे बढ़ने का फैसला किया, जो अब एक परफेक्ट फैसला साबित हो रहा है, हां, इसके कुछ नकारात्मक असर भी पड़े, जिसमें भारत की अर्थव्यवस्था का विकास उस तरह से नहीं हो पाया, लेकिन जब जरूरत पड़ी, तो भारत ने कुछ हद तक अपने बाजार को खोला भी। लेकिन, भारत में चल रही आर्थिक समस्याओं के लिए सरकार के कदम रणनीतिक प्रतिक्रिया के बजाय सामरिक प्रतिक्रिया की तरह रही। 1967 में आसियान के गठन के बाद साल 1975 और साल 1980 में भारत को एक पूर्ण डायलॉग पार्टनर बनने के लिए संपर्क किया गया था, लेकिन भारत ने इन निमंत्रणों को अस्वीकार कर दिया। जापान और दक्षिण कोरिया जैसी अमेरिका-गठबंधन वाली पूर्वोत्तर एशियाई शक्तियों के साथ नई दिल्ली के संबंध इस दौरान कमजोर होते रहे, जबकि ताइवान को पूरी तरह से त्याग दिया गया।
भारत की व्यापार नीति क्या थी?
1970 और 1980 के दशक के दौरान भारत ने खुद को एक ऐसे व्यापार क्षेत्र से बाहर रखा, जहां निर्यात का तेजी से विकास हो रहा था और जो जापानी निवेश से प्रेरित था। जिसका परिमाण ये रहा, कि शीत युद्ध के अंत तक इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के ज्यादातर हिस्सों में भारत के समुद्री और व्यापारिक संबंध काफी कम हो गए। लेकिन, 1990 के दशक की शुरुआत में भारत की आर्थिक और विदेश, दोनों नीतियों का पुनर्गठन हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री पामुलपर्थी वेंकट नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारत ने "लुक ईस्ट" पॉलिसी का निर्माण किया और साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने वाले नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार बनने के फौरन बाद "एक्ट ईस्ट" नीति को ब्रांड बना लिया, जिसके बाद भारत का पूरा फोकस इंडो- पैसिफिक पर केन्द्रित हो गया, जिसका मकसद ना सिर्फ इंडो-पैसिफिक में व्यापार के नये मौके खोजना था, बल्कि अपनी सामरिक ताकत का भी विस्तार करना था।
लुक ईस्ट नीति का असर
नरसिम्हा राव की सरकार ने 'लुक ईस्ट' नीति को जन्म दिया था और फिर धीरे धीरे उसका फायदा भी दिखने लगा। साल 1992 में भारत ASEAN का डायलॉग पार्टनर बना था और 1995 में फुल डायलॉग पार्टनर हबन गया और फिर 2010 में ASEAN-भारत फ्री ट्रेड एरिया को लेकर समझौता हुआ। यानि, अब भारत ने ASEAN के लिए अपने बाजार भी खोले और ASEAN के बाजार में भी भारत ने पूरी ताकत के साथ कदम रखने की दिशा में कदम बढ़ा दिया। भारत की लुक ईस्ट नीति की दिशा में ये एक मील का पत्थर साबित हुआ। साल 2010 में फ्री ट्रेड समझौता होने के करीब 10 सालों बाद अब ASEAN और भारत के बीच का व्यापार दोगुना होकर 87 अरब डॉलर को पार कर गया है। इस दौरान चीन के अलावा अन्य पूर्वी एशियाई शक्तियों के साथ भारत के संबंधों काफी मजबूत होने लगे। जापान ने पिछले दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था में लगभग 31 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है। वही्ं, भारत ने फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के जरिए से दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ अपने जुड़ाव को भी बढ़ाया है।
भारत को अब क्या करना चाहिए
मोदी सरकार के शासनकाल में भारत का फोकस आत्मनिर्भरता की तरह है, लेकिन कुछ बाहरी बाधाएं भी हैं, जिनका सामना भारत को करना पड़ रहा है, जिसमें पाकिस्तान और चीन सबसे प्रमुख हैं। पाकिस्तान, भारत के विकास को अपने हितों के लिए हानिकारक मानता है क्योंकि वह भारत के साथ रणनीतिक समानता चाहता है। चीन लंबे समय से भारत के विकल्पों को बाधित करने के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर काम कर रहा है, जबकि वो भारत के साथ अपनी विवादित हिमालयी सीमा का सैन्यीकरण भी कर रहा है। लिहाजा, भारत को भी अपनी सामरिक स्थिति मजबूत करने की दिशा में ध्यान उस तरह बंटाना पड़ रहा है। ऐसे में एक्सपर्ट्स का मानना है, कि अब कनेक्टिविटी के लिए भारत को महासागरों की तरफ ध्यान देना चाहिए। यहां भारतीय हितों के सामने कई चुनौतियां तो हैं, लेकिन भारत को अवसर निकालने होंगे। चुनौती इसलिए पैदा होती है, क्योंकि भारत को अपने समुद्री रास्ते भी ब्लॉक दिख सकते हैं, लिहाजा अब भारत जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे के मशहूर वाक्य 'फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक' का सबसे बड़ा प्रस्तावक बन गया है।
भारत को करना होगा नेवी का विकास
यदि समुद्री मार्गों को खुला रखना है, तो भारत को अपनी नौसैनिक शक्ति का विकास करना होगा, जिसे लंबे समय से अपने सशस्त्र बलों की "सिंड्रेला सेवा" माना जाता है। भारत की 'लुक ईस्ट' नीति के निर्माण के साथ ही भारत ने अपनी रक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा अपने नौसैनिक बलों को आवंटित करना शुरू कर दिया, जो 1992-93 में कुल बजट के 11.2% से बढ़कर 2009-10 में 19% हो गया है। यह फंडिंग नौसेना को भारत-प्रशांत क्षेत्र में "नेट सिक्योरिटी प्रोवाइडर" के रूप में अपनी भूमिका निभाने की अनुमति देगी। इसके साथ ही भारत और अमेरिका के बीच सुरक्षा सहयोग भी बढ़ रहा है और दोनों देशों की सेनाएं, नौसेनाएं और वायु सेनाएं अब नियमित रूप से संयुक्त अभ्यास करती हैं। भारत ने जापान, ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ क्वाड का निर्माण किया है, जो इंडो- पैसिफिक में अब खुलकर चीन को चुनौती देने के लिए तैयार हो गया है। वहीं, साल 2021 में भारत, इजराइल, संयुक्त अरब अमीरात और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच एक और "क्वाड" का निर्माण किया गया और ये एक ऐसा कदम है, जिसे पश्चिम एशिया में भारत की धुरी के रूप में समझा जा सकता है।
समुद्री कनेक्शन को जोड़ने की कोशिश में भारत
भारत जानता है, कि आने वाले वक्त में चीन उसके लिए सबसे बड़ी परेशानी बनेगा और भविष्य में समुद्री रास्तों पर वर्चस्व स्थापित करने की होड़ लगने वाली है, लिहाजा अब भारत, संयुक्त अरब अमीरात के साथ एक व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौते को मजबूत कर रहा है, वहीं, इजरायल और खाड़ी सहयोग परिषद के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत कर रहा है। जब ये व्यापार समझौते पूरे हो जाएंगे, तो भारत अपनी विस्तारित तटरेखा का इस्तेमाल करते हुए अपने पूर्व और पश्चिम में लंबे समय से चली आ रही समुद्री लिंक को पुनर्जीवित कर लेगा और ऐसा होने के साथ ही भारत, उत्तर की ओर अपनी जमीनी सीमाओं पर आने वाले सामरिक अवरोधों को तोड़ने की स्थिति में आ जाएगा। क्वाड और पश्चिम एशिया में उभरता हुआ "क्वाड" भारत को अपनी भौगोलिक केंद्रीयता का इस्तेमाल करते हुए अपनी नई इंडो-पैसिफिक नीति को साकार करने का मौका दे सकता है।