'वन चायना पॉलिसी' से आगे निकल चुका भारत, क्या अब ताइवान को लेकर नई नीति बनाने का वक्त आ गया?
भारत ने साल 2010 से ही 'वन चायना पॉलिसी' से दूरी बनाना शुरू कर दिया था और 2010 में पीएम मनमोहन सिंह ने चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के दौरान 'वन चायना पॉलिसी' का जिक्र अपने बयान से हटा दिया था।
नई दिल्ली, अगस्त 05: कश्मीर विवाद पर चीन लगातार भड़काऊ बयानबाजी करता रहा है और चीन के कंधे पर चढ़कर पाकिस्तान उछलता रहता है और अब ताइवान संकट, जिसको लेकर अभी तक भारत चुप रहा है, तो फिर सवाल ये उठ रहे हैं, कि क्या अब भारत को अपनी ताइवान नीति का विकास नहीं करना चाहिए और दुनिया के सामने खुलकर अपने दुश्मन के कमजोर नस पर चोट करते हुए अपनी ताइवान नीति का ऐलान नहीं करना चाहिए? यूएस हाउस स्पीकर नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद आगबबूला चीन लगातार भीषण युद्धाभ्यास कर रहा है और पूरी दुनिया एक और युद्ध की आहट को महसूस कर रही है, तो ऐसे में सवाल ये उठ रहे हैं, कि क्या वक्त रहते चीन के अहंकार को तोड़ने के लिए भारत को सामने नहीं आना चाहिए, क्योंकि अब ये तो पूरी तरह से साफ हो चुका है, कि अगर चीन ने ताइवान पर कब्जा किया, तो फिर उसका अगला निशाना भारतीय क्षेत्र ही होंगे और शी जिनपिंग की 'हिटलर' नीति का अगला टारगेट भारत होगा, तो क्या वक्त रहते भारत को चीन पर पलटवार नहीं कर देना चाहिए?
ताइवान पर अमेरिका कनफ्यूज?
दुनियाभर के एक्सपर्ट्स मानते हैं, कि अगर हिटलर को उस वक्त रोका गया होता, जब उसने अपने पड़ोसी देशों पर कब्जा करना शुरू कर दिया होता, तो शायद विश्वयुद्ध नहीं होता। चूंकी, हिटलर को रोकने के बजाए दुनिया के सभी ताकतवर देश चुप रहे और इस दौरान हिटलर लगातार अपनी सेना का और अपनी शक्ति का विस्तार करता चला गया, इसीलिए एक वक्त के बाद हिटलर इतना आक्रामक हो गया, कि दुनिया को विश्वयुद्ध से गुजरना पड़ा और चीन को लेकर भी एक्सपर्ट्स का यही मानना है। लेकिन, चीन को लेकर दुनिया अभी भी खामोश है और चीन अपनी शक्ति का विस्तार ठीक हिटलर के अंदाज में करता जा रहा है, जो भारत को अपना दुश्मन मानता है। वहीं, अमेरिका की ताइवान पर नीति काफी ज्यादा कनफ्यूजन भरी है। यूएस हाउस स्पीकर की जिस ताइवान यात्रा को लेकर भारी तनाव बढ़ा है, उसे अब अमेरिका ने निजी यात्रा बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की है और अमेरिका की तरफ से बकायदा बयान जारी कर यहां तक कहा गया है, कि अमेरिका अभी भी 'वन चायना पॉलिसी' का पालन करता है। इसके साथ ही अमेरिका के चार युद्धपोत ताइवान के पास है और बाइडेन प्रशासन का कहना है, कि ये सामान्य तैनाती है। तो फिर क्या अमेरिका की नीति में ही खोट नहीं है? ये एक अहम सवाल है।
चीन की आक्रामकता का जवाब क्या?
चीन ने ताइवान से फलों और मछलियों के आयात को कम कर दिया है और प्राकृतिक रेत के निर्यात को सस्पेंड कर दिया है। इसके साथ ही चीन ने ताइवान के खिलाफ भीषण सैन्य अभियान भी शुरू कर दिया है, जिसमें वो अधिपत्यवाद को लोकतंत्र पर जीत हासिल करते हुए प्रदर्शित कर रहा है। ऐसे में यह देखा जाना है, कि अगर संघर्ष बढ़ता है, को क्या अमेरिका अपनी नौसेना को ताइवान की रक्षा के लिए ताइवान स्ट्रेट में जाने की इजाजत देगा, क्योंकि यूक्रेन के मुकाबले ताइवान का समुद्री इलाके दुर्गम नहीं है और यहां पर काफी आसानी से चीन को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन, क्या वाकई अमेरिका ऐसा करेगा? बहुत बड़ा सवाल है।
भारत का 'वन चायना पॉलिसी'
भारत ने साल 2010 से ही 'वन चायना पॉलिसी' से दूरी बनाना शुरू कर दिया था और 2010 में पीएम मनमोहन सिंह ने चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के दौरान 'वन चायना पॉलिसी' का जिक्र अपने बयान से हटा दिया था। वहीं, साल 2014 में जब नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने ताइवान के राजदूत चुंग क्वांग टीएन और केन्द्रीय तिब्बत प्रशासन के अध्यक्ष लोबसंग सांगे को अपनी शपथ ग्रहण में आमंत्रित किया था और चीन को साफ संदेश देने की कोशिश की गई थी, कि मोदी सरकार की नीति ताइवान को लेकर क्या रहने वाली है, लेकिन उसके बाद मोदी सरकार ने चीन के साथ फिर से नजदीकी संबंध बनाना शुरू कर दिया और गलवान संघर्ष से पहले तक भारतीय पीएम नरेन्द्र मोदी जिस गर्मजोशी से चीन के राष्ट्रपति से मिलते थे, उससे लगता ही नहीं था, कि दोनों दुश्मन देश हैं। लेकिन, एक्सपर्ट्स का कहना है, कि अब समय आ गया है, कि नई दिल्ली ताइवान के साथ व्यापारिक संबंध मजबूत करे और राजनयिक संबंध बढ़ाए।
ताइवान संकट से किसे होगा फायदा?
ताइवान को लेकर अमेरिका-चीन के मनमुटाव पर रूस की पैनी नजर है, लेकिन, मास्को मैदान में कूदने के लिए तैयार भी नहीं दिख रहा है। तत्कालीन सोवियत संघ पहले के किसी भी चीन-ताइवान संकट में शामिल नहीं था। हालांकि, इस वक्त मास्को चाहता है कि ताइवान का मुद्दा और गर्म हो, ताकि यूक्रेन युद्ध से से तत्काल दुनिया का ध्यान हटाया जाए। लेकिन यह संभावना नहीं है, कि यूक्रेन से निपटने के लिए अमेरिका मास्को को अकेला छोड़ देगा। नैन्सी पेलोसी के ताइवान जाने के एक दिन पहले, अमेरिकी विशेष अभियान बलों ने अफगानिस्तान के काबुल में एक सुरक्षित घर में अल कायदा प्रमुख अयमान अल-जवाहिरी को मार गिराया था। जब वैश्विक मामलों को संभालने की बात आती है, तो व्हाइट हाउस एक महाशक्ति के गुणों का प्रदर्शन करने में सक्षम है। इसलिए, एक्सपर्ट्स ये भी मानते हैं, कि ये यह सोचना गलत होगा, कि अमेरिका 'एक समय में सिर्फ एक देश' के जाल में फंस जाएगा।
क्या ताइवान संकट को और बढ़ाएगा चीन?
हालांकि, चीन इस वक्त अंधाधुंध तरीके से मिसाइलों की बरसात कर रहा है, लेकिन ये सिर्फ चीन का एक पैंतरा हो सकता है और इसके सहारे शी जिनपिंग अपनी नाक बचाने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि, चीन की फिलहाल जो स्थिति है, उस वक्त बीजिंग संकट को और बढ़ाने की कोशिश नहीं करना चाहेगा। चीन को अपनी पसंद के समय और स्थान पर एक कैलिब्रेटेड तरीके से काम करने और स्ट्राइक करने के लिए जाना जाता है। लेकिन शी जिनपिंग जल्दी में हैं, क्योंकि उन्हें एक मजबूत व्यक्ति होने की अपनी छवि की रक्षा करनी है और जिसे नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा से गहरा धक्क लगा है। शी जिनपिंग के सामने राष्ट्रपति पद का तीसरा कार्यकाल भी लेना और कोविड लॉकडाउन ने पहले ही चीन की अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। वहीं, रीयल एस्टेट सेक्टर में मचे तूफान ने चीन की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का पहुंचाया है और बैंकों के 300 अरब डॉलर से ज्यादा के नुकसान की आशंका है। लिहाजा, चीन जानता है, कि वो अगल ताइवान पर एक्शन लेता है, तो उसपर अमेरिका सहित यूरोपीय देश उसी तरह के प्रतिबंध लगाएंगे, जो रूस पर लगाए गये हैं और चीन फिलहाल ऐसा जुआ खेलने के मूड में नहीं होगा।
अर्थव्यवस्था भी रखती है मायने
कोविड महामारी के बाद से जैसे जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है, वैसे वैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की मांग में इजाफा होते देखा जा रहा है और इलेक्ट्रॉनिक सेक्टर में प्रोडक्शन के लिए ताइवान दुनिया का अग्रणी देश है, जो दुनिया की कुल मांग का 65 प्रतिशत सेमीकंडक्टर का निर्माण अकेले करता है। इसके साथ ही ऑटोमोबाइल उद्योग और विनिर्माण के अन्य संबंधित क्षेत्रों के लिए कई इलेक्ट्रॉनिक स्पेयर पार्ट्स अभी भी ताइवान की उत्पादन सुविधाओं पर बहुत अधिक निर्भर हैं। स्थिति ये है, कि चीन का मैन्यूफैक्चरिंग गुड्स इंडस्ट्री भी इलेक्ट्रॉनिक सामानों के लिए ताइवान पर पूरी तरह से निर्भर है, लिहाजा अगर ताइवान तनाव में आता है, तो खुद चीन भी परेशान हो। वहीं, ताइवान के लिए सबसे अच्छी बात ये है, कि ताइवान के पास उसकी जीडीपी का 280 प्रतिशत विदेशी मुद्रा भंडार है, जो 13 महीनों तक लगातार उसका पेट भर सकता है, लिहाजा चीन अगर ताइवान को घेरता भी है, तो उसपर 13 महीने के बाद ही कोई मुसीबत आएगी, लेकिन क्या 13 महीने तक चीन अपनी अर्थव्यवस्था का पतन झेल पाएगा? ये मुश्किल है।
ताइवान जीतना चीन के लिए मुश्किल
आर्थिक अनिश्चितता से न तो चीन को मदद मिलेगी और न ही ताइवान को। किसी भी चरम सैन्य कार्रवाई और जबरन कब्जा करने के प्रयास के परिणामस्वरूप यूक्रेन जैसा संघर्ष होगा, जो ताइवान के लिए अत्यधिक हानिकारक होगा लेकिन चीन को पूरी दुनिया में अलग-थलग कर देगा। जबकि दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया की कुछ अर्थव्यवस्थाएं खराब स्थिति में हैं, भारत प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम रहा है। नई दिल्ली को फ्लैशपॉइंट के भंवर में फंसे बिना संघर्ष की स्थिति को कम करने के सभी प्रयासों का हिस्सा बनने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। भारत को घरेलू मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को प्रोत्साहित करने, सभी बाधाओं को दूर करने, टैक्स कानूनों को उदार बनाने और आपूर्ति श्रृंखला तंत्र को मजबूत करने के लिए ताइवान के साथ अधिक आर्थिक साझेदारी की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, ताकि चीन को एक सख्त संदेश देने के साथ साथ विश्व व्यवस्था में नेतृत्व का निर्धारण करने में आसानी होगी।
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