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फ़ेसबुक-गूगल के मामले में क्या भारत चलेगा ऑस्ट्रेलिया के रास्ते पर?

ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फ़ोन पर बात करके नए क़ानून की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है.

By ज़ुबैर अहमद
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अगले कुछ दिनों में अगर ऑस्ट्रेलियाई संसद ने एक ऐतिहासिक मीडिया क़ानून पारित कर दिया, जिसकी पूरी संभावना है, तो ये फ़ेसबुक और गूगल जैसी बड़ी क कंपनियों के लिए बुरी ख़बर होगी. जानकारों का कहना है कि इसके नतीजे दुनियाभर पर पड़ सकते हैं.

मौजूदा दौर में दुनिया में अधिकतर लोग ख़बरें और विश्लेषण सोशल मीडिया के माध्यम से हासिल करते हैं. 2.80 अरब यूज़र के साथ फ़ेसबुक दुनिया की सबसे बड़ी और शक्तिशाली टेक कंपनी है. पिछले महीने के ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में इसके सबसे अधिक 32 करोड़ यूज़र्स हैं. दूसरे नंबर पर अमेरिका है, जहाँ इसके 19 करोड़ यूज़र्स हैं.

इंस्टाग्राम, वॉट्सऐप और मैसेंजर का मालिक भी फ़ेसबुक है और ये अरबों डॉलर की कंपनियाँ हैं, जबकि यूट्यूब गूगल की कंपनी है.

दुनिया की सबसे बड़ी टेक कंपनी फ़ेसबुक ने गुरुवार से ऑस्ट्रेलिया में अपने प्लेटफ़ॉर्म पर न्यूज़ का पूरी तरह बहिष्कार कर रखा है, जिसकी दुनिया भर में आलोचना हो रही है.

गूगल ने भी ऑस्ट्रेलिया से निकल जाने की धमकी दी है. रिंग में एक तरफ़ ऑस्ट्रेलिया की सरकार है, तो फ़ेसबुक और गूगल जैसी टेक कंपनियाँ दूसरी तरफ़ हैं. मुक़ाबला सख़्त है और ये कहना मुश्किल है कि जीत किसकी होगी.

ऑस्ट्रेलिया की सरकार के अनुसार इस क़ानून का उद्देश्य टेक कंपनियों और न्यूज़ मीडिया के बीच समानता स्थापित करना है. पिछले साल ऑस्ट्रेलियाई प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ता आयोग (ACCC) की एक जाँच में ये पता चला कि बड़े टेक दिग्गजों (फ़ेसबुक और गूगल) ने मीडिया क्षेत्र में राजस्व और मुनाफ़े का एक भारी हिस्सा एकत्र किया है.

डेढ़ साल तक चलने इस जाँच के अनुसार, ऑस्ट्रेलियाई मीडिया में डिजिटल विज्ञापन पर ख़र्च किए गए प्रत्येक 100 ऑस्ट्रेलियाई डॉलर में से 81 डॉलर गूगल और फ़ेसबुक की जेबों में जाता है (गूगल का हिस्सा 53 डॉलर है जबकि फ़ेसबुक का 28 डॉलर).

इसी रिपोर्ट के बाद सरकार ने नया बिल बनाया है. इस बिल के पारित हो जाने के बाद मीडिया कंपनी के कंटेंट इस्तेमाल करने के लिए फ़ेसबुक और गूगल को पैसे देने पड़ेंगे और विज्ञापन से हुई कमाई में मीडिया कंपनियों की हिस्सेदारी बढ़ानी पड़ेगी.

फ़ेसबुक और गूगल के विरोध के बावजूद इस हफ़्ते ऑस्ट्रेलियाई संसद इस विवादास्पद बिल को पारित करने की तैयारी में है. संसद के निचले सदन ने इसे पहले ही पारित कर दिया है. अब उच्च सदन को इसे पारित करना है, जो विशेषज्ञों के अनुसार केवल एक औपचारिकता लगती है.

क्या भारत में भी ऐसा ही क़ानून बनाएँगे?

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क़ानून का पारित होना ऑस्ट्रेलिया की सरकार और वहाँ की न्यूज़ मीडिया कंपनियों की जीत होगी. इसका नतीजा ये हो सकता है कि दूसरे देशों में भी मीडिया कंपनियाँ इसी तरह के क़ानून पारित कराने पर अपनी सरकारों को मजबूर कर सकती हैं. क्या भारत में भी ऐसा ही होगा?

ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने गुरुवार को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो से फ़ोन पर बात की और नए क़ानून की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. समाचार एजेंसियों के मुताबिक़ पीएम मॉरिसन नए क़ानून की ज़रूरत पर कुछ दूसरे देशों के नेताओं से भी संपर्क करने वाले हैं.

दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार परंजॉय गुहा ठाकुरता ने साल 2013 के बाद आम भारतीय चुनाव में फ़ेसबुक और बीजेपी के बीच कथित रिश्तों का पर्दाफ़ाश करने का दावा किया था. इस पर उन्होंने एक किताब भी लिखी थी.

ऑस्ट्रेलिया में चल रहे विवाद पर उनका कहना था, "ये समय बताएगा कि फ़ेसबुक हार मानेगा या नहीं. लेकिन ऑस्ट्रेलियाई सरकार की कार्रवाई और इस लड़ाई के परिणाम एक नई मिसाल क़ायम करेंगे, जिसका दुनिया भर में मीडिया के इकोसिस्टम पर असर पड़ेगा और भारत भी इससे प्रभावित होगा."

लेकिन सिंगापुर में भारतीय मूल के मीडिया और टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ रचित दयाल कहते हैं कि भारत का मार्केट अलग है.

वो कहते हैं, "भारत पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत अलग न्यूज़ मार्केट है, जहाँ प्रिंट और टीवी मीडिया अब भी फल-फूल रहा है. स्थानीय और क्षेत्रीय मीडिया हाउस अभी भी अच्छा कर रहे हैं. भारत में उद्यमशीलता की ऊर्जा समाचार मीडिया में प्रतिस्पर्धा को बहुत अधिक बल देती है."

ऑस्ट्रेलिया की मीडिया ने नए क़ानून के लिए सरकार पर लगातार दबाव डाला हुआ था. रचित दयाल के अनुसार भारत में इस बात की संभावना कम है. वो कहते हैं, "भारत में किसी भी मीडिया हाउस के पास ऐसी कोशिश के लिए पर्याप्त राजनीतिक ताक़त नहीं है."

वैसे भी फ़ेसबूक और गूगल अलग तरह के प्लेटफ़ॉर्म हैं, जिसके कारण इनके राजस्व मॉडल भी अलग है. फ़ेसबुक इंडिया के एक आला अधिकारी ने अपना नाम सार्वजनिक न करने की शर्त पर बीबीसी को बताया कि फ़ेसबुक "अपने पार्टनरों को इंस्टेंट आर्टिकल द्वारा और फेसबुक वॉच पर प्रकाशित वीडियो कंटेंट के बदले मीडिया वालों को पैसे देता है."

गूगल और फ़ेसबुक दोनों वीडियो विज्ञापन से होने वाली कमाई से भी भारतीय मीडिया कंपनियों को थोड़े पैसे देते हैं. लेकिन फ़ेसबुक के सूत्रों ने ये नहीं बताया कि वो अपनी कमाई का कितना हिस्सा भारतीय मीडिया कंपनियों को देते हैं.

अभी तक किसी भारतीय मीडिया कंपनी ने औपचारिक रूप से अपने हिस्से की कमाई में बढ़ोत्तरी की माँग नहीं की है और ना ही भारत सरकार ने इस तरह का कोई संकेत दिया है कि ऑस्ट्रेलिया की तरह वो भी इस सिलसिले में कोई नया क़ानून लाना चाहती है.

भारत में मुद्दा सियासी रूप का है. सरकार सभी ऑनलाइन कंपनियों को नियंत्रण में करने के लिए क़ानूनी तौर पर एक नियामक प्राधिकरण लाने की सोच रही है.

गूगल ढीला पड़ रहा है?

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अब गूगल ने ऑस्ट्रेलिया की सात मीडिया कंपनियों के साथ तीन करोड़ डॉलर का एक समझौता किया है, जिससे गूगल अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा ऑस्ट्रेलिया की मीडिया कंपनियों के साथ साझा कर सकेगा. गूगल देश की अन्य मीडिया कंपनियों के साथ भी बातचीत कर रहा है.

लेकिन फ़ेसबुक अब तक अपने तर्क पर अड़ा है. हालाँकि तीन दिन पहले फ़ेसबुक के प्रमुख मार्क ज़करबर्ग और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के बीच फ़ोन पर बात हुई है, जिसमें समाचार एजेंसियों के मुताबिक़ विवाद वाले बिल पर विस्तार से विचार विमर्श हुआ, लेकिन फ़िलहाल इसका कोई नतीजा सामने नहीं आया है.

रचित दयाल का मानना है कि टेक कंपनियों को शायद ऑस्ट्रेलिया की सरकार के सामने झुकना पड़े, लेकिन उनके अनुसार सियासी नेता टेक कंपनियों पर दूसरे और इससे से भी अहम मुद्दे पर दबाव नहीं डाल रहे हैं.

वो कहते हैं, "नेता उपभोक्ता के डेटा प्रोटेक्शन, इंटरनेट पर नाबालिगों की सुरक्षा, फ़ेक न्यूज़ और प्राइवेसी जैसे गंभीर मुद्दों पर ध्यान कम और मीडिया कंपनियों के मालिकों की कमाई बढ़ाने पर अधिक ध्यान दे रहे हैं."

असर

गूगल की उस धमकी के बाद कि वो ऑस्ट्रेलिया से निकल जाएगा, ऑस्ट्रेलिया के एक नेता और सीनेटर रेक्स पैट्रिक ने कहा, "इसका असर दुनिया भर में पड़ेगा. क्या आप दुनिया के हर मुल्क से बाहर हो जाएँगे?"

ऑस्ट्रेलिया के इस क़दम से कुछ महीने पहले, ब्रिटेन में फ़ेसबुक ने कई मीडिया कंपनियों के साथ एक समझौता किया था, जिसके तहत वो मीडिया कंपनियों के कंटेंट इस्तेमाल करने के बदले पैसे देगा.

फ़ेसबूक यूँ ही इसके लिए तैयार नहीं हुआ था, बल्कि उस पर सरकार का नए क़ानून लाने का दबाव बना हुआ था. अधिकांश ब्रिटिश अख़बार समूहों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके तहत जनवरी से उनके इस्तेमाल किए हुए कंटेंट के पैसे मिलने शुरू हो गए.

इसी तरह का विवाद यूरोप में भी शुरू हो चुका है. कॉपीराइट पर यूरोपीय संघ के एक विवादास्पद नए नियम के अनुसार सर्च इंजन और समाचार एग्रीगेटर्स को लिंक के लिए न्यूज़ वेबसाइटों को पैसे देने पड़ेंगे.

इसी तरह के एक विवाद के बाद फ़्रांस में प्रकाशकों और न्यूज़ मीडिया ने हाल ही में गूगल के साथ एक समझौते पर सहमति व्यक्त की है कि कैसे मिलकर काम करना चाहिए. लेकिन नामचीन फ़्रेंच अख़बारों के साथ ही ये समझौता हो सका है. यह व्यापक, बहुत सख़्त ऑस्ट्रेलियाई बिल की तुलना में बहुत अलग है.

सरकारों और बड़ी टेक फ़र्मों के बीच तनाव के अन्य क्षेत्र भी रहे हैं, जिनमें सरकारों ने टेक कंपनियों को नियंत्रित करने की बात की है. हाल ही में भारत सरकार ने ट्विटर से 1100 से अधिक अकाउंट्स को हटाने पर ज़ोर दिया था, जो एक बड़े विवाद की तरह देश के सियासी माहौल में उभरा था. इस विवाद का हल पूरी तरह से अब तक नहीं निकल सका है.

टेक कंपनियाँ या मीडिया कंपनियाँ?

टेक कंपनियों का असर अब केवल वित्त तक सीमित नहीं है. इनका गहरा असर राजनीतिक स्तर तक पहुँच गया है. कहा जाता है कि चुनावों में हवा का रुख़ मोड़ सकने में ये सक्षम हैं.

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टेक्नोलॉजी कंपनियों का न्यूज़ मीडिया कंपनियों पर हावी होने का मामला हाल के सालों में बढ़ा है, जिससे कई देशों में चिंता जताई गई है. गूगल दुनिया भर में एक प्रमुख सर्च इंजन बन गया है और इसे एक ज़रूरी सेवा के रूप में देखा जाता है, एक ऐसी सेवा जिस में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है. सोशल मीडिया को ख़बरों के सबसे अहम सूत्र के रूप में देखा जाने लगा है.

गूगल, फ़ेसबुक और ट्विटर जैसी कंपनियाँ औपचारिक और क़ानूनी रूप से टेक्नोलॉजी कंपनियाँ हैं, लेकिन ये अब न्यूज़ का सबसे अहम ज़रिया बन चुकी हैं, इसीलिए अब इन्हें न्यूज़ कंपनियों की तरह अधिक देखा जाने लगा है.

यहां व्हॉट्सएप-फेसबुक पर सरकार ने लगाया टैक्स

सोशल मीडिया पर किन नियमों की बात कर रहा है सुप्रीम कोर्ट?

परंजॉय गुहा ठाकुरता कहते हैं, "विशाल डिजिटल मोनोपोली कंपनी अल्फ़ाबेट (गूगल, यूट्यूब और एंड्रॉयड की मालिक) की तरह, फ़ेसबुक (वॉट्सऐप और इंस्टाग्राम की मालिक) दावा करते रहे हैं कि वो एक टेक कंपनी है, मीडिया कंपनी या प्रकाशक नहीं हैं."

वो आगे कहते हैं, "तथ्य यह है कि सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के उपयोगकर्ताओं का एक बड़ा हिस्सा इसका उपयोग समाचार, करंट अफ़ेयर्स की जानकारी और अन्य कंटेंट प्राप्त करने के लिए कर रहा है, जिसे पारंपरिक मीडिया कंपनियों ने बनाया है. जबकि ये पारंपरिक मीडिया संगठन समाचार बटोरने, रिपोर्टिंग, रिसर्च, ग्राफिक, डिज़ाइन, फोटोग्राफर और ऑडियो-विज़ुअल सामग्री पर बड़ी मात्रा में पैसे ख़र्च करते हैं, उन्हें उस विज्ञापन राजस्व का बहुत कम हिस्सा मिलता है, जो फ़ेसबुक की ओर से कंटेट का इस्तेमाल करने पर मिलता है."

ठाकुरता कहते हैं कि 17 वर्षीय पुराना फ़ैसबुक और उसके 36 वर्षीय संस्थापक और सीईओ मार्क ज़करबर्ग चाहते हैं कि मौजूदा स्थिति बनी रहे. मीडिया संगठनों और सरकारों का मानना है कि यह एक अनुचित और स्वाभाविक रूप से अस्थिर परिस्थिति है.

कौन पक्ष सही और कौन ग़लत?

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फ़ेसबुक का तर्क स्पष्ट है कि वो लोग मीडिया कंपनियों के पास नहीं जाते, बल्कि मीडिया कंपनी वाले उनके प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करते हैं. फ़ेसबुक का ये दावा है कि उसके प्लेटफ़ॉर्म पर आने से मीडिया कंपनी की कहानियों को पाठक अधिक पढ़ते हैं या लोग वीडियो को अधिक देखते हैं और कई लोग फ़ेसबुक प्लेटफ़ॉर्म से होकर मीडिया की वेबसाइट पर जाते हैं.

सिंगापुर में भारतीय मूल के मीडिया विशेषज्ञ रचित दयाल कहते हैं, "मैं कहूँगा कि गूगल और फ़ेसबुक सही हैं. न्यूज़ मीडिया में पाठकों और श्रोताओं के नंबर में गिरावट ग्राहक के बदलते व्यवहार के कारण थी, न कि कुछ बड़े टेक प्लेटफ़ॉर्मों के कारण."

वो कहते हैं कि फ़ेसबुक और गूगल न्यूज़ मीडिया के लिए बहुत प्रभावशाली हो सकते हैं, लेकिन न्यूज़ मीडिया वास्तव में गूगल और फ़ेसबुक के सर्च एवं सोशल मीडिया के मुख्य व्यवसाय पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं डालती है.

रचित दयाल के मुताबिक, "जब न्यूज़ मीडिया को जीवित रहने और इसे मज़बूती प्रदान करने की आवश्यकता होती है, तो गूगल और फ़ेसबुक के साथ लड़ाई शुरू करने से न्यूज़ मीडिया में नई जान नहीं फूँकी जा सकती."

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English summary
In the case of Facebook-Google, will India follow the path of Australia?
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